इतिहास अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर शीत-युद्ध का प्रभाव द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के काल में संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के बीच उत्पन्न तनाव की स्थिति को शीत युद्ध के नाम से जाना जाता है। … किन्तु युद्ध समाप्त होते ही, एक ओर ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका तथा दूसरी ओर सोवियत संघ में तीव्र मतभेद उत्पन्न होने लगा।
शीत युद्ध का इतिहास,उत्पत्ति के कारण, और राजनीतिक प्रभाव
शीतयुद्ध नामक शब्द का प्रयोग ‘बर्नार्ड बारूच’ ने किया, जिसे वॉल्टर लिपमैन’ ने लोकप्रिय बनाया।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दो महाशक्तियों अमेरिका और सोवियत संघ का उदय हुआ। इन दोनों महाशक्तियों के आपसी सम्बन्धो को अभिव्यक्त करने वाला सबसे अधिक उपयुक्त शब्द है-शीत युद्ध
शीत युद्ध एक व्यापारीक संघर्ष था जिसमे दो विरोधी जीवन पद्धतिया उदारवादी लोकतंत्र तथा सर्वाधिकार्रवादी साम्यवाद -सर्वोच्चता प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रही थी। यथार्थवादी सिद्धान्त के प्रमुख प्रवक्ता हंस जे.मॉरगेन्थाऊ के अनुसार “शीत युद्ध पुरानी शक्ति राजनीति का नवीनीकरण है।
जोसेफ फ्रेकले के शब्दों में “शीत युद्ध दो बड़े राज्यों के बीच विद्यमान गहरी प्रतियोगिता अर्थात चालो तथा प्रतिचलो का सिलसिला माना जा सकता है।”
इस प्रकार शीत युद्ध दो महाशक्तियों अमेरिका और सोवियत संघ, दो विचारधाराओ(पूंजीवाद, साम्यवाद) औऱ दो सैनिक गुटों (नाटो औऱ वारसा ) के मध्य वैचारिक द्वंद्व था। यह एक ऐसा युद्ध था जिसका रणक्षेत्र मानव का मस्तिष्क था। यह मनुषयो के मानो में लड़ा जाने वाला युद्ध था।इसे स्नायु युद्ध भी कहा जाता है।
शीतयुद्ध –
शीत युद्ध जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है कि यह अस्त्र-शस्त्रों का युद्ध न होकर धमकियों तक ही सीमित युद्ध है। इस युद्ध में कोई वास्तविक युद्ध नहीं लगा गया। शीत युद्ध एक प्रकार का वाक युद्ध था जो कागज के गोलों, पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो तथा प्रचार साधनों तक ही लड़ा गया।
इस युद्ध में न तो कोई गोली चली और न कोई घायल हुआ। इसमें दोनों महाशक्तियों ने अपना सर्वस्व कायम रखने के लिए विश्व के अधिकांश हिस्सों में परोक्ष युद्ध लड़े। युद्ध को शस्त्रायुद्ध में बदलने से रोकने के सभी उपायों का भी प्रयोग किया गया, यह केवल कूटनीतिक उपयों द्वारा लगा जाने वाला युद्ध था जिसमें दोनों महाशक्तियां एक दूसरे को नीचा दिखाने के सभी उपायों का सहारा लेती रही।
शीतयुद्ध का चरम बिंदु क्यूबा मिसाइल संकट (1962) था। शीत युद्ध के प्रारंभिक समय में अमेरिका के नेतृत्व में उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन नाटो की स्थापना 4 अप्रैल, 1949 में हुई। सोवियत संघ नेतृत्व में बने पूर्वी गठबंधन का नाम वारसा संधि था, जो 1955 में स्थापित हुआ नाटो के विरोध में।
इस युद्ध का उद्देश्य अपने-अपने गुटों में मित्रा राष्ट्रों को शामिल करके अपनी स्थिति मजबूत बनाना था ताकि भविष्य में प्रत्येक अपने अपने विरोधी गुट की चालों को आसानी से काट सके। यह युद्ध द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ के मध्य पैदा हुआ अविश्वास व शंका की अन्तिम परिणति था
शीतयुद्ध की उत्पत्ति के कारण:
बर्लिन संकट (1961) के समय संयुक्त राज्य अमेरिका एवं सोवियत रूस के टैंक आमने सामने शीतयुद्ध के लक्षण द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान ही प्रकट होने लगे थे। दोनों महाशक्तियां अपने-अपने संकीर्ण स्वार्थों को ही ध्यान में रखकर युद्ध लड़ रही थी और परस्पर सहयोग की भावना का दिखावा कर रही थी।
जो सहयोग की भावना युद्ध के दौरान दिखाई दे रही थी, वह युद्ध के बाद समाप्त होने लगी थी और शीतयुद्ध के लक्षण स्पष्ट तौर पर उभरने लग गए थे, दोनों गुटों में ही एक दूसरे की शिकायत करने की भावना बलवती हो गई थी। इन शिकायतों के कुछ सुदृढ़ आधार थे। ये पारस्परिक मतभेद ही शीत युद्ध के प्रमुख कारण थे,
शीतयुद्ध की उत्पत्ति के प्रमुख कारण निम्नलिखित
- पूंजीवादी और साम्यवादी विचारधारा का प्रसार ( साम्यवाद का उदय 1917 )
- सोवियत संघ द्वारा याल्टा समझौते का पालन न किया जाना।
- सोवियत संघ और अमेरिका के वैचारिक मतभेद।सोवियत संघ का एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरना।
- ईरान में सोवियत हस्तक्षेप।टर्की में सोवियत हस्तक्षेप।यूनान में साम्यवादी प्रसार।द्वितीय मोर्चे सम्बन्धी विवाद।तुष्टिकरण की नीति।
- सोवियत संघ द्वारा बाल्कान समझौते की उपेक्षा।अमेरिका का परमाणु कार्यक्रम।परस्पर विरोधी प्रचार।
- लैंड-लीज समझौते का समापन।फासीवादी ताकतों को अमेरिकी सहयोग।बर्लिन विवाद।सोवियत संघ द्वारा वीटो पावर का बार-बार प्रयोग किया जाना
- संकीर्ण राष्ट्रवाद पर आधारित संकीर्ण राष्ट्रीय हित
- युक्त राज्य अमेरिका का कम्युनिस्ट भय
- अमेरिका द्वारा परमाणु बम की गोपनीयता
- जर्मनी के खिलाफ दूसरा मोर्चा खोलने में अमेरिका द्वारा देरी
शीतयुद्ध की शुरुआत
फुल्टन भाषण- फुल्टन भाषण (वर्ष 1945) को शीत युद्ध का औपचारिक आरंभ माना जाता है। इस भाषण में चर्चित ने कहा कि बाल्टिक से लेकर एड्रियाटिक तक यूरोप में ‘एक लोहे की दीवार’ (सोवियत संघ) खड़ी हो चुकी है।
शीत युद्ध के दौरान गुटनिरपेक्ष आंदोलन जोसेफ ब्रोज टीटो ( यूगोस्लाविया), पंडित जवाहरलाल नेहरु (भारत), गमाल अब्दुल नासिर (मिश्र), सुकर्णो (इंडोनेशिया) तथा वामे एनक्रोमा (घाना) के नेतृत्व में स्थापित हुआ। शीत युद्ध का कारण विश्व में प्रचलित दो प्रमुख विरोधी विचारधाराएं – पूंजीवादी और साम्यवादी ।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर शीत युद्ध का प्रभाव-
- विश्व का दो गुटों में विभाजित होना।
- आण्विक युद्ध की सम्भावना का भय।
- आतंक ओर अविश्वास के दायरे में विस्तार
- सैनिक संधियों एवं सैनिक गठबंधनो का बाहुल्य।
- सयुक्त राष्ट्र को पंगु करना।
भारत और शीत युद्ध-
गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेता के रूप में शीतयुद्ध के दौर में भारत में जो स्तरों पर अपनी भूमिका निभाई एक स्तर पर भारत में सजग और सचेत रूप से अपने को दोनों महाशक्तियों की खेमेबंदी से अलग रखा दूसरे भारत में उपनिवेशों के चंगुल से मुक्त हुए नव स्वतंत्र देशों के महाशक्तियों के खेमे में जाने का पुरजोर विरोध किया।
भारत की नीति मैं ना तो नकारात्मक थी और ना ही निष्क्रियता की नेहरू ने विश्व को याद दिलाया कि गुटनिरपेक्षता कोई पलायन की नीति नहीं है इसके विपरीत भारत शीत युद्ध कालीन प्रतिद्वंदिता की जकड़ ढीली करने के लिए अंतरराष्ट्रीय मामलों में सक्रिय रुप से हस्तक्षेप करने के पक्ष में था भारत में दोनों गुटों के बीच मौजूद मतभेदों को कम करने की कोशिश की और इस तरह उसने इन मतभेदों को पूर्ण व्यापी युद्ध का रूप लेने से रोका।
भारत नें शीत युद्ध के दौर में प्रतिद्वंदियों के बीच संवाद कायम करने तथा मध्यस्ता करने के लिए प्रयास किए उदाहरण के तौर पर 1950 के दशक के शुरुआती सालों में कोरियाई युद्ध के दौरान। शीत युद्ध के दौरान भारत में लगातार उन क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगठनों को सक्रिय बनाए रखने की कोशिश की जो अमेरिका अथवा सोवियत संघ के खेमे में से नहीं जुड़े थे ।
नेहरु जी ने स्वतंत्र और परस्पर सहयोगी राष्ट्रों के एक सच्चे राष्ट्र कुुल के ऊपर गहरा विश्वास जताया जो शीत युद्ध को खत्म करने में न सही पर उसकी जगह ढीली करने में ही सकारात्मक भूमिका निभाएं।
महत्वपूर्ण संधि-
1. सीमित परमाणु परीक्षण संधि (LTBT)
वायुमंडल बाहरी अंतरिक्ष तथा पानी के अंदर परमाणु हथियारों के परीक्षण पर प्रतिबंध लगाने वाली इस संधि पर ब्रिटेन तथा सोवियत संघ ने मास्को में 5 अगस्त 1963 को हस्ताक्षर किए यह संदेश 10 अक्टूबर 1963 से प्रभावी हो गई।
2. परमाणु अप्रसार संधि ( NTP )
यह संधि केवल परमाणु शक्ति संपन्न देशों को एटमी हथियार रखने की अनुमति देती है तथा बाकी देशों को रोकती है।
Note- यह संदेश उन देशों को परमाणु शक्ति से संपन्न देश मानती है जिन्होंने 1 जनवरी 1967 से पहले किसी परमाणु हथियार या परमाणु स्फोटक सामग्रियों का निर्माण और विस्फोट किया हो। इसके तहत 5 देशों जिनमें अमेरिका सोवियत संघ बाद में रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन को परमाणु शक्ति संपन्न माना गया।
एनपीटी संधि पर 1 जुलाई 1968 को वाशिंगटन लंदन और मास्को में हस्ताक्षर हुए जो 5 मार्च 1970 से प्रभावी हुई।
3. सामरिक अस्त्र परिसीमन वार्ता फर्स्ट (salt first)
सामरिक अस्त्र परिसीमन वार्ता का पहला चरण 1969 के नवंबर से आरंभ हुआ इसके तहत अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने मास्को में 26 मई 1972 को सोवियत संघ के नेता लियोनेड बरेझनेव के साथ समझौते पर दस्तखत किए।
4. सामरिक अस्त्र परिसीमन वार्ता -2 (salt -2)
वार्ता का दूसरा चरण 1972 के नवंबर महीने में शुरू हुआ। अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने सोवियत संघ के नेता लियोनेड ब्रिझनेव के साथ वियना में 18 जून 1972 को सामूहिक रुप से घातक हथियारों के परिसीमन से संबंधित संधि पर हस्ताक्षर किए।
5. सामरिक अस्त्र न्यूनीकरण संधि फर्स्ट (स्टारट -1)
अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और सोवियत संघ के राष्ट्रपति गोर्बाचोव मैं 31 जुलाई 1991 को किस संधि पर हस्ताक्षर किए।
6. सामरिक अस्त्र न्यूनीकरण संधि –2(स्टारट_2)
इस संधि पर रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन तथा अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश मैं मास्को में 3 जनवरी 1993 को हस्ताक्षर किए।
महत्वपूर्ण संगठन –
1. नॉटो {NATO}
- नॉटो की वर्ष 1949 में ब्रुसेल्स संधि के द्वारा स्थापना हुई।
- शीत युद्ध के दौरान अमेरिका ने साम्यवाद का परिरोधन करने के लिए नॉटो जैसे सैन्य संगठन की स्थापना की, जिसका उद्देश्य था, अमेरिकी सुरक्षा को प्रभावी बनाना। साथ ही पूर्वी जर्मनी को पीछे ढ़केलना और सोवियत संघ को बाहर करना था।
- इसके संस्थापकों में, अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, लक्जमबर्ग, नीदरलैंड, बेल्जियम और नार्वे सम्मिलित थे। शीतयुद्ध के समापन (1991) के बाद भी नॉटो बना हुआ है।
2. सियटो (SEATO)
- सियटो का निर्माण वर्ष 1954 में नॉटो की ऐशियाई संस्करण के रूप में हुआ। इसका मूल उद्देश्य, ‘डोमिनो सिद्धांत’ (साम्यवाद के प्रसार को रोकना) को प्रभावी रूप में लागू करना था। इस के संस्थापकों में अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, ब्रिटेन, थाईलैंड फिलीपींस और पाकिस्तान थे।
3. सेंट्रल ट्रीटी आर्गेनाईजेशन (CENTO) बगदाद संधि-1955
- नॉटो का पश्चिमी ऐशियाई संस्करण जिसकी स्थापना साम्यवाद के प्रसार को पश्चिम एशिया में रोकने के लिए हुई।
- इसके सदस्यों में ब्रिटेन, ईरान, तुर्की और पाकिस्तान थे। क्योंकि पश्चिमी एशिया में अमेरिका ने सेंटो(CENTO) के माध्यम से इस क्षेत्र के प्रभावशाली देशो को साथ लेने का प्रयत्न किया। यह उल्लेखनीय है कि इजरायल, अमेरिका का पहले से ही प्रभावशाली मित्र था।
4. अंजुस (ANZUS)
- एशिया प्रशांत क्षेत्र में नॉटो का संस्करण, शीतयुद्ध के दौरान इसकी स्थापना अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड द्वारा मिलकर की गयी। यह उल्लेखनीय है कि चीन के साम्यवादी होने और कोरियाई संकट (1950) के बाद अमेरिका साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिए प्रतिबद्ध था।
नव शीत युद्ध
(शीत युद्ध का तिसरा चरण, 1979-1990)
- नव शीत युद्ध विचारधाराओ के मध्य न होकर ,सोवियत संघ और अमेरिका के मध्य था।
- पहले चरण की शुरुआत यूरोप से हुई ।जबकि नव शीत युद्ध की शुरुआत अफगानिस्तान से हुई ।
- पहला शीत युद्ध मूलतः अमेरिका द्वारा शुरू किया गया था।जबकी नव शीत युद्ध का आरंभ सोवियत संघ द्वारा किया गया।
- पहले चरण में सैन्य गठबंधन एकीकृत और शक्तिशाली थे।जबकि नव शीत युद्ध के समय सैन्य गठबंधन सिथिल पड़ गए थे।
नई सोच की विदेश नीति
गोरवाच्योब(सोवियत संघ) ने सयुक्त राष्ट्र महासभा को सम्बोधित(1985) करते हुये कहा कि-
- परमाणु हथियारों के युग मे हथियारों से सुरक्षा सम्भव नहीं है।
- सुरक्षा राजनीतिक होनी चाहिये।
- मानव का हित,वर्ग विशेष के हितों से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
- दुनिया में अंतर्निर्भरता का विकाश होरहा है।इसलिए परस्पर सहयोग की आवश्यकता है।
- यदि विश्व का एक भाग असुरक्षित और अशांत है, तो दूसरा भाग सुरक्षित और शांत नही हो सकता।