आमेर का कच्छवाह वंश (ढूंढाड़ राज्य)
आमेर के कच्छवाह स्वयं को श्रीराम के पुत्र कुश की सन्तान मानते है, आमेर से प्राप्त शिलालेख में भी इन्हें ‘रघुकुल तिलक‘ के नाम से जाना गया है।
दूल्हेराय नामक व्यक्ति ने सर्वप्रथम कच्छवाह वंश की स्थापना की थी।
1137 ई. में बड़गूजरों को हराकर दूल्हेराय ने ढूंढाड राज्य को बसाया था,
दूल्हेराय ने सर्वप्रथम दौसा को अपनी राजधानी बनाया
जो इस राज्य की सबसे प्राचीन राजधानी थी,
दूल्हेराय ने इस राजधानी को मीणाओं से प्राप्त किया था.
दूल्हेराय ने रामगढ़ नामक स्थान पर जमुवामाता के मंदिर का निर्माण कराया
जमूवा माता को कच्छवाह वंश की कुलदेवी के रूप में स्थापित भी किया था,
ढूंढाड़ में प्राचीन रामगढ़ गुलाब की खेती के लि प्रसिद्ध था, जिसके कारण “रामगढ़ को ढूंढास” का पुष्कर कहा गया.
दूल्हेराय ने बाद में रामगढ़ को जीतकर इसे राजधानी बनाया इस प्रकार दूल्हेराय के शासन की दो राजधानियां अस्तित्व में आयी,
दूल्हेराय के पश्चात् कोकिलदेव ने आमेर के मीणाओं को पराजित कर इस सम्पन्न भू-भाग को कच्छवाह वंश का एक अंग बनाया,
बाद में कोकिलदेव ने आमेर राज्य को राजधानी के रूप में सथापित किया.
राजा कोकिलदेव पश्चात् राजदेव नामक व्यक्ति ने आमेर के महलों का निर्माण कराया, जिन्हें कदमीमहल कहा जाता था
ये महल आमेर राज्य का कच्छवाह वंश के प्राचीन महल माने जाते थे।
इन महलों में कच्छवाह वंश के नवीन शासकों का राज्याभिषेक सम्पन्न होता था।
पृथ्वीराज
- कच्छवाह शासक पृथ्वीराज ने खानवा के युद्ध में सांगा का साथ दिया था।
- पृथ्वीराज ने रामानुज सम्प्रदाय की पीठ निर्माण कराया, क्योकि पृथ्वीराज संत कृष्णदास पयहारी से प्रभावित हुए थे,
- रामानुज सम्प्रदाय की पीठ गलता जी (जयपुर) में स्थित है। गलता जी को मंकी वैली के नाम से जाना जाता है।
- पृथ्वीराज के पुत्र सांगा ने सांगानेर नामक कस्बा बसाया था, आमेर के इस शासक ने बारह कोटरी नामक व्यवस्था का निर्माण किया
- इस व्यवस्था के अन्तर्गत पृथ्वीराज ने आमेर को बारह भागों में विभाजित कर दिया तथा इसी विभाजन को पृथ्वीराज ने अपने 12 पुत्रों में बांट दिया
- जिसके कारण यह बारह कोटरी व्यवस्था कहलाई।
- पृथ्वीराज की पत्नी बालाबाई ने आमेर में लक्ष्मीनारायण मंदिर निर्माण कराया।
- पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद उसका छोटा लड़का पूर्णमल आमेर का शासक बना किन्तु बाद में भीमदेव ने उसे गद्दी से उतार दिया
- जिससे कच्छावाहों में गृहयुद्ध आरम्भ हो गया। इससे कच्छावाहों के राज्य में पहले अफगानों का फिर मुगलों का प्रभाव बढ़ा।
- भीमदेव के बाद उसका पुत्र रत्नसिंह गद्दी पर बैठा। रत्नसिंह को उसके छोटे भाई भारमल ने जहर पिला कर मार ड़ाला और स्वयं राजा बन गया।
भारमल
- राजपुतानों का यह एकमात्र शासक, जिसमें सर्वप्रथम मुगलें की अधीनता को स्वीकार कर मुगलों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए थे
- भारमल उसी पृथ्वीराज का पुत्र था, जिसने खानवा के युद्ध में राणा सांगा की सेना का नेतृत्व कर बाबर के विरूद्ध युद्ध किया
- लेकिन भारमल ने उसी मुगल वंश में अपनी पुत्री का विवाह किया था।
- 1562 ई. में चंगुलाई खां के नेतृत्व में सांगानेर नामक स्थान पर भारमल की मुगल सम्राट अकबर से मुलाकात हुई तथा सांभर नामक स्थान पर भारमल ने अपनी पुत्री हरकाबाई का विवाह अकबर के साथ किया था
- मुगल सम्राट अकबर ने हरकाबाई को मरियम उज्जमानी उपाधि से सम्मानित किया था।
- मुगल सम्राट अकबर ने राजा भारमल को अमीर-उल-उमरा की उपाधि से सम्मानित किया, राजा भारमल ने आमेर में निर्माण कार्य प्रारम्भ किया।
राजा भगवन्तदास (1573-1589 ई.)
भारमल की मृत्यु के पुत्र भगवन्तदास आमेर की सिंहासन पर बैठा और इन्होंने अपनी पुत्री का विवाह सहजादा सलीम के साथ किया।
जहाँगीर ने इसे सुल्तान–ए–निशा की उपाधि दी। इससे खुसरों का जन्म हुआ।
भगवन्तदास को 5000 का मनसब एवं अमीर-उल-उमरा की उपाधि दी।
मानसिंह प्रथम (1589-1614 ई.)
- आमेर कच्छवाह शासकों में अकबर के लिए सबसे विश्वसनीय राजा मानसिंह थे
- जिन्होनें अपनी छोटी सी उम्र से ही अकबर के सैन्य अभियानों का कुशल नेतृत्व किया था, राजा मानसिंह का विधिवत तरीके से राज्यभिषेक 1589 ई. को हुआ।
- राजा मानसिंह अकबर के दरबार में प्रसिद्ध नवरत्नों में शामिल थे।
- राजा मानसिंह प्रथम को ऐतिहासिक इमारतों तथा अकबर कही महत्वपूर्ण विजयों के लिए याद किया जाता है
- राजा मानसिंह के अकबर के काबुल अभियान, बिहार विजय, उड़ीसा विजय तथा बंगाल पर विजय प्राप्त की थी
- राजा मानसिंह ने अकबर की ओर से राणा प्रताप के विरूद्ध हल्दीघाटी के युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व किया था।
- जिसे मुगल सम्राट अकबर ने सात हजारी मनसब का पद प्रदान किया तथा फर्जन्द की उपाधि से भी सम्मानित किया था।
- बैराठ के समीप पंचमहल राजा मानसिंह ने मुगल सम्राट अकबर ने आराम पसन्दगी के लिए तैयार करवाया था
- जब अकबर ख्वाजा साहब की दरगाह (अजमेर) के लिए जाते थे तब विश्राम हेतु अकबर का पड़ाव यहाँ डाला जाता था
- मुगल सम्राट अकबर ने पुत्र प्राप्ति के लिए एक बार दिल्ली से पैदल यात्रा करते हुए इसी पंचमहला में विश्राम किया
- इसी यात्रा के दौरान अकबर को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिसे मुगल वंश में सलीम के नाम से जाना गया।
जगत शिरामणि का मन्दिर
- आमेर में इस मंदिर का निर्माण राजा मानसिंह प्रथम की रानी कनकावती ने अपने पुत्र जगतसिंह की स्मृति में कराया था
- जगतसिंह ने भी मुगल सम्राट अकबर के लिए कांगड़ा (हिमाचल) की विजय में मुगल सेना का नेतृत्व किया था।
- इस कारण मुगल सम्राट ने जगत सिंह को रायजादा की उपाधि से सम्मानित किया, राजा मानसिंह के शासनकाल में जगतसिंह को बंगाल में नियुक्त किया था
- जहां जगतसिंह की अधिक शराब पीने के कारण मृत्यु हो जाती है।
- आमेर कच्छवाह वंश की इष्ट देवी के रूप में इस मंदिर का निर्माण राजा मानसिंह प्रथम बंगाल शैली में काले संगमरमर के पत्थरों से कराया
- राजा मानसिंह ने इस देवी की प्रतिमा को ढाका के राजा केदारराय को परास्त कर प्राप्त कि थी। इस मंदिर की देवी की अर्चना में जल व मदिरा का भोग लगाया जाता है।
- राजा मानसिंह ने पुष्कर में एक भव्य एवं कलात्मक मानमहल का निर्माण कराया था
- जो आज राज्य सरकार के सहयोग से एक पैलेस के रूम में (होटल) संचालित है, मानसिंह ने आमेर के महलों का भी निर्माण कराया तथा आमेर दुर्ग का पुननिर्माण कराया था।
- राजा मानसिंह के शासनकाल में उसका दरबारी लेखक कवि मुरारीदान ने मानप्रकाश नामक ऐतिहासिक ग्रन्थ की रचना की इसी प्रकार जगन्नाथ ने मानसिंह कीर्ति मुक्तावली नाम से ग्रन्थ लिखा।
- राजा मानसिंह के दरबारी राजकवि हाया बारहठ थे।
- सन्त दादूदयाल मानिंसंह प्रथम के समकालीन थे तथा यह भी माना जाता है कि तुलसी दास जी के साथ उनकी घनिष्ठ मित्रता थी।
- 1614 ई. में मानसिंह का एलीचपुर में देहान्त हुआ।
मिर्जा राजा जयसिंह (1621 ई.-1667 ई.)
- आमेर के कच्छवाह शासकों में सबसे महत्वपूर्ण एवं योग्य शासकों में इन्हें याद किया जाता है, आमेर का सर्वाधिक विकास इन्हीं के शासनकाल में हुआ
- जबकि सवाई जयसिंह के शासनकाल में जयपुर का विकास हुआ
- 1621 ई. में मात्र 11 वर्ष की आयु में ये आमेर के शासक बने।
- आमेर के कच्छवाह इतिहास में मिर्जा राजा जयसिंह ने सर्वाधिक 46 वर्ष तक शासन किया
- इन्होनें अपनी सेवाएँ तीन मुगल शासकों को प्रदान की : जहाँगीर, शाहजहाँ व औरंगजेब।
- मुगल सम्राट शाहजहाँ ने जयसिंह को ‘मिर्जा‘ राजा‘ की उपाधि कन्धार अभियान के उपरान्त प्रदान की, क्योंकि जयसिंह ने शाहजहाँ के लिए कन्धार पर विजय प्राप्त की थी।
- मुगल सम्राट औरंगजेब ने शिवाजी के विरूद्ध अभियान पर मिर्जा राजा जयसिंह को भेजा, जिन्होंने शिवाजी को मुगल सम्राट से संधि हेतु विवश किया।
- 11 जून 1665 को दोनों के मध्य संधि हो गई, जिसे पुरंदर की संधि कहते हैं।
- मिर्जा राजा जयसिंह ने जयपुर में जयगढ़ किले के किले का निर्माण कराया
- इस महल मे एक मनोरंजन घर भी था, जिसे कठपुतली घर कहा जाता है।
- मिर्जा राजा जयसिंह ने नाहरगढ़ दुर्ग की नींव रखी जिसे सवाई जयसिंह ने पूरा कराया।
- आमेर के कच्छवाह शासकों में मिर्जा राजा जयसिंह एक विद्धान शासक थे
- जिन्होनें संस्कृत भाषा को लोकप्रिय बनाया तथा बनारस में संस्कृत विद्यालय का निर्माण कराया।
- मिर्जा राजा जयसिंह के दरबारी कवियों में बिहारी को संरक्षण प्राप्त था
- जिसने ‘बिहारी सतसई‘ नामक ग्रन्थ की रचना की, इसी प्रकार राज्य कवियों में कुलपति मिश्र व रामकवि को भी संरक्षण प्राप्त था।
- औरंगजेब के दक्षिण अभियान के समय 1667 ई. में बुरहानपुर में मिर्जा राजा जयसिंह का देहान्त हो गया
- इस शासक की मृत्यु के पश्चात रामसिंह प्रथम व विशनसिंह एक कमजोर शासक हुए।
जयपुर
सवाई जयसिंह
- कच्छवाह वंश के शासकों में सवाई जयिंसंह का वास्तविक नाम विजयसिंह था
- सवाई जयसिंह ने आमेर से शासन न चलाकर जयपुर से नयी राजधानी के रूप में शासन को क्रियान्वित किया।
- मुगल सम्राट औरंगजेब ने जयसिंह को सवाई की उपाधि से सम्मानित किया
- इस राजवंश में यह प्रथम शासक था, जिसे सवाई की उपाधि से नवाजा गया था
- जबकि राजपूताने में सवाई की उपाधि सूरसिंह को (जोधपुर राठौड़ वंश) अकबर प्रदान की थी।
- 1700 ई. में विशनसिंह की मृत्यु के पश्चात पुत्र के रूप में जयसिंह कच्छवाह वंश का शासक बना
- जयसिंह के शासनकाल में मुगल साम्राज्य में पुनः उत्तराधिकार के लिए संघर्ष छिड़ गया
- जिसमें सवाई जयसिंह ने आजम का पक्ष लिया इस बात से मुअज्जम सवाई जयसिंह से नाराज हो गया
- तब मुअज्जम ने आमेर पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया
- मुअज्जम को ही बहादुरशाह प्रथम के नाम से जाना जाता है
- ने आमेर का नाम परिवर्तित कर मोमिनाबाद रखा, इसी राज्य को इस्लामाबाद के नाम से भी जाना जाता था।
- सवाई जयसिंह के शासन काल में भरतपुर के जाट राजा बदनसिंह ने इस शासक के साथ मिलकर अनेक भू-भागों पर विजय प्राप्त की
- जिसके उपराज्त सवाई जयसिंह ने जाट राजा बदनसिंह को ब्रजराज की उपाधि तथा डीग का परगना प्रदान किया था।
- सवाई जयिंसंह ने राजपूताना के अनेक राज्यों के शासकों को एकत्रित कर मराठों के विरूद्ध एक सम्मेलन का आयोजन कराया
- जिसे हुरड़ा सम्मेलन कहा गया, यह सम्मेलन मेवाड़ के भीलवाड़ा के निकट हुरड़ा नामक गांव में आयोजित हुआ
- इस सम्मेलन को आयोजित करने का श्रेय सवाई जयसिंह को दिया जाता है
- सम्मेलन 17 जुलाई, 1734 ई. को आयोजित हुआ
- लेकिन अपने निजी स्वार्थों के कारण यह सम्मेलन सफल नहीं हो सका, इस सम्मेलन की अध्यक्षता मेवाड़ के महाराजा जगतसिंह द्वितीय ने की थी।
- सवाई जयसिंह ने गंगवाना के युद्ध में मारवाड़ के जोधपुर के अभयसिंह तथा नागौर के तख्तसिंह की एक संयुक्त सेना को पराजित किया।
- वर्तमान में गंगवाना/मंगवाना नामक स्थान जोधपुर जिले में स्थित है, गंगवाना युद्ध का मुख्य कारण राज्यों की सीमा निर्धारण था।
- जयपुर के कच्छवाह शासकों में सवाई जयसिंह एक विद्यानुरागी शासक होनें के साथ-साथ वास्तुशास्त्र में भी विशेष रूचि रखते थे,
- पं. जगन्नाथ को जयपुर की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है
- जयसिंह ने बंगाल के प्रसिद्ध वास्तुकार पं. विद्याधर भट्टाचार्य के द्वारा जयपुर शहर का डिजाइन तैयार करवाया,
- इस प्रकार सवाई जयसिंह के शासनकाल में 18 नवम्बर, 1727 को आधुनिक जयपुर शहर का निर्माण हुआ
- इसके बाद जयिंसंह ने जयपुर को ही अपनी स्थाई राजधानी बनाया।
- सवाई जयसिंह ने जयपुर के सिटी पैलेस में चन्द्रमहल का निर्माण कराया इस महल में कुल सात मंजिले थीं
- जिसमें 7वीं मंजिल को मुकुट मन्दिर के नाम से जाना गया, इस चन्द्रमहल की दीवारां पर आदमकद चित्र अंकित है।
- राजपुताने में सवाई जयसिंह के शासनकाल में ही सर्वप्रथम आदमकद चित्रों की नींव डाली गई थी।
- सवाई जयसिंह की ज्योतिष ने भी रूचि थी अतः भारत में 5 वेधशालाओं का निर्माण कराया, जिन्हें जन्तर-मन्तर कहा जाता था
- जयपुर, दिल्ली, बनारस, उज्जैन तथा मथुरा मुख्य थी
- इन पांच वेदशालाओं में प्रथम व प्राचीन वेदशाला दिल्ली की थी। सबसे बड़ी व नवीन वेदशाला जयपुर की थी।
- सवाई जयसिंह ने ग्रह नक्षत्रों की खोज के लिए ‘जीज मोहम्मद शाही’ ग्रंथ की रचना की।
- सवाई जयसिंह ने जयपुर की वेधशाला में ऊंचाई नापने के लिए रामयंत्र नामक उपकरण तथा समय जाने के लिए सम्राट यंत्र लगाए थे
- सम्राट यंत्र (सूर्य घड़ी) को दुनिया की सबसे बड़ी घड़ी का दर्जा प्राप्त था।
- जयपुर के कच्छवाह शासकों में यह अंतिम शासक था, जिनसे अश्वमेध यज्ञ को सम्पन्न कराया
- इस यज्ञ का मुख्य पुरोहित पुण्डरीक रत्नाकर थे
- पुण्डरीक रत्नाकार ने एक प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की जिसे जयसिंह कल्पद्रुम के नाम से जाना जाता है।
- सवाई जयसिंह प्रथम शासक था, जिसनें विदेशी जाति पुर्तगालियों से सम्बन्ध स्थापित किए थे
- सवाई जयसिंह ने अपने एक दल को राजा एमानुअल के दरबार में भेजा जहां उन्होनें अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया
- उन ग्रन्थों को जयपुर मंगवाया, पुर्तगाल के राजा एमानुअल ने भी जेवियर डिसिल्वा को सवाई जयसिंह के दरबार में भेजा
- जिसने जयपुर में पोथीखाना के अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया
सवाई ईश्वरसिंह
- सवाई जयसिंह की मृत्यु के पश्चात सवाई ईश्वरसिंह को मराठों के वैमनस्य का सामना करना पड़ा
- क्योंकि जयसिंह ने बूंदी के उत्तराधिकार के प्रश्न पर हस्तक्षेप करना प्रारम्भ कर दिया
- बूंदी के शासकों ने मराठों की सहायता से सवाई ईश्वरसिंह पर आक्रमण करने की योजना बनाई
- 1747 ई. को जयपुर के शासक सवाई ईश्वर सिंह ने अपने भाई माधोसिंह प्रथम तथा कोटा, बूंदी, मेवाड़ व मराठों की संयुक्त सेना को परिजत किया।
- यह विजय राजमहल (टोंक) की विजय के रूप में जानी गई।
- इस विजय के उपलक्ष्य में सवाई ईश्वरसिंह ने जयपुर के त्रिपोलया बाजार में एक मीनार का निर्माण कराया, जिसे ईसरलाट या सरगासूली कहा गया।
बगरू का युद्ध
- पराजित माधोंसंह प्रथम ने मल्हार राव होल्कर की सहायता से जयपुर के समीप बगरू नामक स्थान पर ईश्वरसिंह को पराजित किया
- राज्य पर अधिकार करने के पश्चात ईश्वरसिंह पर यह शर्त लगा दी गई कि ईश्वरसिंह 30 लाख रूपये हर्जाने के रूप में मराठों को देगा
- इस शर्त पर सवाई ईश्वरसिंह को जयपुर का शासक मान लिया गया
- सवाई ईश्वरसिंह ने यह बड़ी धनराशि देने के लिए अपनी असमर्थता प्रकट की
- 1750 ई. में सवाई ईश्वरसिंह ने सरगासूली से कूदकर आत्महत्या कर ली।
सवाई माधोसिंह प्रथम
- सवाई ईश्वरसिंह के आत्महत्या कर लेने के बाद उसका भाई माधोसिंह प्रथम जयपुर का शासक बना
- यह मल्हार राव होल्कर की मदद से जयपुर का शासक बना था।
- माधोसिंह के राजा बनने के बाद मराठा सरदार मल्हार राव होल्कर एवं जय अप्पा सिंधिया ने इससे भारी रकम की माँग की,
- जिसके न चुकाने रप मराठा सैनिकों ने जयपुर ने उपद्रव मचाया, फलस्वरूप नागरिकों ने विद्रोह कर मराठा सैनिकों का कत्लेआम कर दिया।
- महाराजा माधोसिंह ने मुगल बादशाह अहमदशाह एवं जाट महाराजा सूरजमल (भरतपुर) एवं अवध नवाब सफदरजंग के मध्य समझौता करवाया।
- इसके परिणामस्वरूप बादशाह ने रणथम्भौर किला माधोसिंह को दे दिया।
- इससे नाराज़ हो कोटा महाराजा शत्रुसाल ने जयपुर पर आक्रमण कर नवम्बर 1761 ई. में भटवाड़ा के युद्ध में जयपुर की सेना को हराया।
- 1763 ई. में सवाई माधोसिंह ने रणथम्भौर दुर्ग के पास सवाई माधोपुर नगर बसाया।
- 1768 ई. में इनकी मृत्यु को गई। इन्होंने जयपुर में मोती डूँगरी पर महलों का निर्माण करवाया।
- सवाई माधोसिंह प्रथम ने नाहरगढ़ दुर्ग में अपनी नौ प्रेंयसियों के लिए एक जैसे महलों का निर्माण विक्टोरिया शैली में कराया था।
- माधोसिंह प्रथम का दरबारी कवि द्वारिकानाथ भट्ट था, जिसने ‘बारी वैराग्य‘ नामक ग्रंथ की रचना की थी
- सवाई माधोसिंह प्रथम के पश्चात 1768-1778 ई. के मध्य एक कमजोर शासक पृथ्वीसिंह का शासन रहा,
- लेकिन 1780 ई. में पृथ्वीसिंह की मृत्यु के पश्चात प्रतापसिंह जयुपर का शासक बना।
सवाई प्रतापसिंह
प्रतापसिंह महान कवियों, विद्वानों व प्रसिद्ध लेखकों का आश्रयदाता था
सवाई प्रतापसिंह स्वयं ब्रजनिधि नाम से कविताएं लिखते थे, जिसके कारण इन्हें ब्रजनिधि शासक भी कहा जाता था
इनका सम्पूर्ण वर्णन ब्रजनिधि ग्रन्थावली में मिलता है।
सवाई प्रतापसिंह के शासनकाल में विभिन्न क्षेत्रों के 22 विद्वान दरबार की शोभा बढ़ातें थे
जिन्हें बाईसी या गुणीजन खान के नाम से जाना जाता था
इनमें देवर्षि ब्रजपाल भट्ट, गणपति भारति, चांद खां, द्वारिकानाथ भट्ट आदि प्रमुख थे
प्रतापसिंह ने चांद खां को बुद्ध प्रकाश की उपाधि से सम्मानित किया था।
सवाई प्रतापसिंह ने अपने शासनकाल में कला व संगीत के लिए एक विशाल सम्मेलन का आयोजन कराया
इस सम्मेलन का समस्त लेखन कार्य प्रतापसिंह ने अपने दरबारी कवि देवर्षि ब्रजपाल भट्ट को सौंपा तथा
संगीत के प्रसिद्ध ग्रंथ राधा गोविन्द संगीत सार की रचना देवर्षि ब्रजपाल भट्ट ने की।
सवाई प्रतापसिंह ने 1799 ई. में एक ऐतिहासिक इमारत हवामहल का निर्माण जयपुर में कराया
इस इमारत को राजस्थान का एयरफोर्ट कहते हैं, इस इमारत के वास्तुकार लालचन्द उस्ता थे
जिन्होने भगवान श्री कृष्ण के मुकुट के समान इसकी आकृति तैयार की
इस इमारत में कुल पांच मंजिले थीं, इसमें कुल 953 खिड़कियाँ है।
जयपुर के इस कच्छवाह शासक के शासनकाल में एक अंग्रेज अधिकारी जार्ज थॉमस ने आक्रमण किया
जिसका मुकाबला प्रतापसिंह से हुआ।
सवाई जगतसिंह
जयपुर के कच्छवाह राजवंश में जयपुर के शासक के नाम से प्रचलित इस शासक को जयपुर की बदनामी का ताज मिला,
इसका शासन काल 1803-1818 के बीच रहा,
सवाई जगतसिंह का संबंध रसकपुर नामक वेश्या से था, जिसका प्रभाव जयपुर के प्रशासन में बढ़ा चला जा रहा था,
जगतसिंह ने रसकपुर नामक सिक्कों का भी प्रचलन करवा दिया था
इस घटना के कारण जगतसिंह को जयपुर के प्रजा के सामने बदनाम होना पड़ा
बाद में रसकपुर को नाहरगढ़ के दुर्ग में बन्दी बनाकर रखा गया।
सवाई जगतसिंह के शासन काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना यह थी
कि इसने अपने राज्य को मराठों व पिण्डारियों के आक्रमणों से बचाने के लिए ब्रिटिश सरकार से 1818 ई में संधि कर ली थी।
जयपुर में ब्रजबिहारीजी के मंदिर का निर्माण सवाई जगतसिंह ने करवाया था।
सवाई जगतसिंह ने 1807 ई में गिंगोली नामक युद्ध में जोधपुर के शासक मानसिंह की सेना को पराजित किया
यह युद्ध मेवाड की रानी कृष्णाकुमारी को लेकर लड़ा गया।
सवाई रामसिंह द्वितीय
जयपुर राज्य के सामाजिक परिवर्तनों के लिए रामसिंह को याद किया जाता है
सवाई रामसिंह से पूर्व 1813-35 के बीच जयपुर का एक कमजोर शासक सवाई जयसिंह तृतीय का शासनकाल रहा
लेकिन प्रशासन पर एजेन्ट टु गर्वनर जनरल का आधिपत्य होने के कारण जयसिंह तृतीय की कोई विशेष उपलब्धि नही रही।
1835 ई. जब रामसिंह जयपुर के सिंहासन पर बैठे तब वे नाबालिग थे
अतः ब्रिटिश सकार की ओर से कौंसिल बनाई गई, जिसके द्वारा जयपुर का शासन क्रियान्वित किया गया
रामसिंह के शासनकाल में ही 1844 ई. में एक अंग्रेज अधिकारी जॉन लुडलो को जयपुर का प्रशासक बनाया गया
इसी के शासन काल में समस्त सामाजिक परिवर्तन हुए,
मानव के क्रय-विक्रय एवं सती प्रथा पर रोक इसी के प्रयासों से लगी।
सवाई रामसिंह द्वितीय के शसनकाल में ही भारत में 1857 की क्रांति घटित हुई,
इस क्रांति का प्रभाव राजपूताने के अनेक राज्यों में देखा गया
सवाई रामसिंह ने भी 1857 की क्रांति में अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश सरकार का सहयोग किया
जिसके कारण ब्रिटिश सरकार रामसिंह द्वितीय को कोटपुतली का परगना जागीर के रूप में प्रदान किया तथा
सितार–ए–हिन्द की उपाधि से सम्मानित किया गया।
सवाई रामसिंह द्वितीय के शासनकाल में ब्रिटेन के राजकुमार एडवर्ड पंचम के आगमन के समय जयपुर शहर को 1868 ई. में गुलाबी रंग से रंगवाया गया
जिसके कारण इसे गुलाबी शहर (पिंकसिटी) के नाम से जाना गया।
रामसिंह द्वितीय के शासनकाल में जयपुर के लिए पिंक सिटी शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग
ब्रिटिश पत्रकार स्टेनलेरीड ने अपनी पुस्तक रॉयल टूर टू इण्डिया किया
भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक सी.वी रमन ने जयपुर को रंगश्री द्वीप की संज्ञा प्रदान की।
सवाई रामसिंह द्वितीय के शासनकाल में ही वैल्स के राजकुमार जॉन अल्बर्ट जयपुर की यात्रा की
1876 ई. में इन्हीं के द्वारा जयपुर के अल्बर्ट हॉल की नीवं रखी गई,
अल्बर्ट हॉल का वास्तुकार सर जैकफ था इस इमारत के अलावा रामनिवास बाग, महाराजा कॉलेज, संस्कृत कॉलेज
हुनरी मदरसा (राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट) का निर्माण हुआ।
हुनरी मदरसा में रामसिंह द्वितीय ने कला को संरक्षण प्रदान करने के लिए अनेक कुशल कारीगरों को सरंक्षण दिया।
सवाई माधोसिंह द्वितीय
1880 ई. में सवाई रामसिंह द्वितीय की मृत्यु के पश्चात इसका पुत्र माधोसिंह द्वितीय का शासन 1880-1922 तक रहा
माधोसिंह द्वितीय के शासन काल में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक पं. मदन मोहन मालवीय का आगमन जयपुर में हुआ
माधोंसंह द्वितीय ने इनके आगमन पर इनका भव्य स्वागत किया
बनारस हिन्दू विश्वद्यिालय के लिए 5 लाख रूपए प्रदान किए।
राजपूताना में सर्वप्रथम पोस्टकार्ड एवं डाक टिकटों का प्रचलन 1904 में जयपुर रियासत में ही हुआ।
भारत की आजादी के समय तथा राजस्थान के एकीकरण के समय (30 मार्च,1949) जयपुर के शासक मानसिंह द्वितीय थे।
मानिंसंह द्वितीय के शासन काल में ही जयपुर के आधुनिक निर्माता के रूप में मिर्जा स्माइल को याद किया जाता है,
जो महाराजा मानसिंह द्वितीय के शासनकाल में प्रधानमंत्री थे।
कच्छवाह वंश कच्छवाह वंश कच्छवाह वंश कच्छवाह वंश