मीरा बाई एवं दादू दयाल
दादूदयाल जन्म 1544 ई.
मृत्यु: 1603 ई.)
दादूदयाल मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत थे. इनका जन्म विक्रम संवत् 1601 में फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को अहमदाबाद में हुआ था.
हिन्दी के भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख सन्त कवि थे। इन्होंने एक निर्गुणवादी संप्रदाय की स्थापना की, जो ‘दादू पंथ’ के नाम से ज्ञात है। दादू दयाल अहमदाबाद के एक धुनिया के पुत्र और मुग़ल सम्राट् अकबर के समकालीन थे।
उन्होंने अपना अधिकांश जीवन राजपूताना में व्यतीत किया एवं हिन्दू और इस्लाम धर्म में समन्वय स्थापित करने के लिए अनेक पदों की रचना की। उनके अनुयायी न तो मूर्तियों की पूजा करते हैं और न कोई विशेष प्रकार की वेशभूषा धारण करते हैं। वे सिर्फ़ राम-नाम जपते हैं और शांतिमय जीवन में विश्वास करते हैं.
कविता के रूप में संकलित इनके ग्रन्थ दादूवानी तथा दादूदयाल जी रा दुहा कहे जाते हैं। इनके प्रमुख सिद्धान्त मूर्तिपुजा का विरोध, हिन्दू मुस्लिम एकता, शव को न जलाना व दफनाना तथा उसे जंगली जानवरों के लिए खुला छोड़ देना, निर्गुण ब्रह्मा उपासक है।
दादूजी के शव को भी भराणा नामक स्थान पर खुला छोड़ दिया गया था। गुरू को बहुत अधिक महत्व देते हैं। तीर्थ यात्राओं को ढकोसला मानते हैं। सत्संग को अलख दरीबा कहते है।
उपदेश की भाषा सधुक्कड़ी। वृद्धानंद जी इनके गुरु थे, साधु विवाह नही करते बच्चों को गोद लेते हैं। इन्हें राजस्थान का कबीर कहते हैं।
फतेहपुर सिकरी में अकबर से भेट के बाद आप भक्ति का प्रसार प्रसार करने लगे. राजस्थान में ये नारायणा में रहने लगे.
दादू जी की शिष्य परंपरा में 152 प्रमुख शिष्य हुए हैं । इनमें से 52 शिष्यों ने भिन्न-भिन्न स्थानों पर दादूद्वारों की स्थापना की तथा दादू पंथ के 52 स्तंभ कहलाए। दादू जी के शिष्यों में सुंदर दास जी एवं रज्जब जी सर्वाधिक प्रसिद्ध हुए।
इनके अनुसार ब्रह्मा से ओकार की उत्पति और ओंकार से पांच तत्वों की उत्पति हुई. माया के कारण ही आत्मा और परमात्मा के मध्य भेद होता है. दादूदयाल ने ईश्वर प्राप्ति के लिए गुरु को अत्यंत आवश्यक बताया.
अच्छी संगति, ईश्वर का स्मरण, अहंकार का त्याग, संयम एवं निर्भीक उपासना ही सच्चे साधन है. दादूदयाल ने विभिन्न प्रकार के सामाजिक आडम्बर, पाखंड एवं सामाजिक भेदभाव का खंडन किया. जीवन में सादगी, सफलता और निश्छलता पर विशेष बल दिया. सरल भाषा एवं विचारों के आधार पर दादू को राजस्थान का कबीर भी कहा जाता है
उसके बाद वे फतेहपुर सीकरी भी गए जहाँ पर बादशाह अकबर ने पूर्ण भक्ति व भावना से दादू जी के दर्शन कर उनके सत्संग व उपदेश ग्रहण करने के इच्छा प्रकट की तथा लगातार 40 दिनों तक दादूजी से सत्संग करते हुए उपदेश ग्रहण किया।
उसके बाद दादूजी महाराज नरेना ( जिला जयपुर ) पधारे और उन्होंने इस नगर को साधना, विश्राम तथा धाम के लिए चुना और यहाँ एक खेजडे के वृक्ष के नीचे विराजमान हुये यहीं पर उन्होंने ब्रह्मधाम “दादूद्वारा” की स्थापना की
ब्रह्मलीन होने के लिए निर्धारित दिन ( जयेष्ट कृष्ण अष्टमी सम्वत 1660 ) के शुभ समय में श्री दादूजी ने एकांत में ध्यानमग्न होते हुए “सत्यराम” शब्द का उच्चारण कर इस संसार से ब्रहम्लोक को प्रस्थान किया। श्री दादू दयाल जी महाराज के द्वारा स्थापित *“दादू पंथ” व “दादू पीठ” आज भी मानव मात्र की सेवा में लीन है इनके जन्म-दिन और मृत्यु के दिन वहाँ पर हर साल मेला लगता है।
दादू पंथ की 5 शाखाएं है –
- खालसा
- विरक्त
- उतरादे
- खाकी
- नागा
Sundar Das Ji ( सुंदर दास जी )
सुंदर दास जी का जन्म 1596 ईस्वी में दौसा के खंडेलवाल वैश्य परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम चोखा जी ( परमानंद ) माता का नाम सती देवी था इन्होंने दादू दयाल जी से दीक्षा लेकर दादू पंथ का प्रचार प्रसार किया तथा कई रचनाएं लिखि।
इन के प्रमुख ग्रंथ – सुंदर विलास, सुंदरदसार सुंदर ग्रंथावली एवं ज्ञान समुद्र है। सुंदर दास जी की मृत्यु सांगानेर में हुई। इन्होंने दादू पंथ में नागा मत का प्रवर्तन किया।
Sant Rajjab Ji ( संत रज्जब जी )
संत रज्जब जी का जन्म 1600 ई. में सांगानेर में हुआ ऐसा माना जाता है कि जब रज्जब जी दूल्हा बनकर विवाह करने जा रहे थे , तभी मार्ग में उन्होंने दादू जी के उपदेश सुने इन उद्देश्यों से वह इतने प्रभावित हुए कि जीवन भर दूल्हे के वेश में रहकर दादू पंथ का प्रचार किया।
इनकी प्रधान पीठ सांगानेर में है रज्जब वाणी एवं सर्वंगी इनके प्रमुख ग्रंथ है। इन्होंने सांगानेर में ही अपनी देह त्यागी थी।
Meera bai ( मीरा बाई )
संत शिरोमणि अनन्या कृष्ण भक्त मीरा बाई का जन्म बाजोली गांव वर्तमान नागौर जिले में डेगाना के निकट 1498 में हुआ ! उनके बचपन का नाम पेमल था कुछ इतिहासकार मीरा का जन्म स्थान कुडकी (पामानली) ते हैं
मीरा के पिता राव रतन सिंह माता वीर कंवरी थी ! डॉक्टर जयसिंह नीरज के अनुसार मीरा का बाल्यकाल कुड़की गांव (वर्तमान में पाली जिले के जैतारण तहसील )तथा मेड़ता में बीता ! कुड़की गांव रतन सिंह की जागीर थी ! मीरा के पिता मेड़ता के जागीरदार थे!
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर गोपीनाथ शर्मा मीरा का जन्म कुड़की में हुआ मानते हैं! यह गांव पाली जिले में जोधपुर पुष्कर मार्ग पर स्थित है ,
वर्तमान में यहां पर एक लघु दुर्ग मीरा गढ़ एवं मीराबाई के बाल्यकाल से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण स्थान मिलते हैं! मीरा के दादा दुदा जी वैष्णव धर्म के उपासक थे! उन्होंने मेड़ता में चारभुजा नाथ का मंदिर बनवाया ! मीरा के जीवन वृत्त का लेख मीरा की पदावलीओ एवं भजनों के अलावा प्रिय दास कृत ‘भक्तमाल’ एवं ‘मेड़तिया री ख्यात’ तथा कर्नल जेम्स टॉड के इतिहास परक साहित्य में मिलता है!
मीरा का विवाह 1516 ईस्वी में मेवाड़ के महाराणा सांगा के जेष्ट पुत्र राजकुमार भोजराज के साथ हुआ! लेकिन विवाह के 7 वर्ष बाद जी भोजराज का स्वर्गवास हो गया! मीरा के लिए राणा सांगा ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग में कुंभ श्याम मंदिर के पास ‘कुंवरपदे’ का महल भी बनवाया!
मीरा ने कृष्ण को पति के रूप में मानकर आराधना की ! मीराबाई के गुरु संत रैदास चमार जाति के थे! कहा जाता है कि चैतन्य महाप्रभु के शिष्य जीव गोस्वामी मीराबाई से प्रभावित थे तथा मीरा उनसे प्रभावित थी ! मीराबाई ने सगुण भक्ति मार्ग अपनाया !
- मीरा को राजस्थान की राधा कहा जाता है !
- मीरा ने कृष्ण भक्ति में सैकड़ों भजनों की रचना वज्र मिश्रित राजस्थानी भाषा में की
- वर्तमान में मीरा दासी संप्रदाय के लोगों की संख्या नगण्य है!
ऐसा माना जाता है कि अपने जीवन के अंतिम समय में मीराबाई मेवाड़ से मेड़ता एवं वृंदावन तथा वहां से द्वारिका चली गई तथा अंत में डाकोर ( गुजरात ) के रणछोड़ राय की मूर्ति में विलीन हो गई! मीरा के पदों को हरजस कहा जाता है!
रामस्नेही संप्रदाय , चरण दासी संप्रदाय ,दादूपंथी एवं जैन ग्रंथों में यह हरजस संकलित है!
मीरा की प्रमुख रचनाएं-
पदावली, नरसी जी रो मायरो (रत्ना खाती के सहयोग से रचित) राग गोविंद, राग सोरठ एवं सत्यभामा जी नू रूसणों है
मीरा बाई की रचनाएं
मीरा बाई ने चार ग्रंथों की रचना की-
नरसी का मायरा
गीत गोविंद टीका
राग गोविंद
राग सोरठ के पद
इसके अलावा मीराबाई के गीतों का संकलन “मीरांबाई की पदावली’ नामक ग्रन्थ में किया गया है।
मीरा द्वारा लिखे गए ग्रन्थ और सोरठो की भाषा मारवाड़ी थी
नरसी जी का मायरा ( Narsee Ji’s Mayra )
नरसी जी गरीब ब्राह्मण थे । मायरा भरना नामुमकिन था। उलटे मायरे में उच्च कुलीन वर्ग के लोगों के स्थान पर 15-16 वैष्णव भक्तों की टोली के साथ अंजार नगर पहुच गए थे, जो उनकी बेटी का ससुराल था।
उनकी कम “औकात” के चलते उनके तरह तरह के अपमान किये गए। पर सब कुछ उन्होंने भगवान के चरणों में चढ़ा दिया। सब सहा। पर भगवान से नहीं सहा गया। उनका मायरा श्री कृष्ण ने ही एक सेठ बनके भरा।
और समधी श्रीरंग जी द्वारा जो मायरा सूची बनाई गई थी, उससे कही ज्यादा भर दिया जो की राजा महाराजाओं से भी बढ़ के था। अर्थात श्रीरंग जी के स्तर से कहीं ऊपर था।
समधी(श्रीरंग जी) का परिवार अवाक होकर उस सेठ को देख रहा था। सोचता था- ये कौन है? कहा से आया है? और नरसी की मदद क्यों की? नरसी से इसका क्या रिश्ता है?
आखिर श्रीरंग जी ने उन सेठ (सांवरिया सेठ, श्री कृष्ण) से आखिर पूछ ही लिया “कृपा करके बताएँ आप नरसी जी के कौन लगते हैं?
नरसी जी आपके कौन लगते हैं?” इस प्रश्न के उत्तर में उस सेठ ने जो उत्तर दिया वो बताना ही इस प्रसंग का केंद्र बिंदु था। इस उत्तर को सुन कर आंखे सजल हो उठती हैं।
सांवलिया सेठ ने उत्तर में कहा “ये जो नरसी जी हैं ना, मैं इनका गुलाम हूँ। ये जब, जैसा चाहते हैं वैसा ही करता हूँ। जब बुलाते हैं हाज़िर हो जाता हूँ। इनका हर कार्य करने को तत्पर रहता हूँ।” उत्तर सुनकर समस्त समधी परिवार हक्का बक्का रह गया।
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