राजस्थान के दुर्ग
राजस्थान के राजपूतों के नगरों और प्रासदों का निर्माण पहाडि़यों में हुआ, क्योकि वहां शुत्रओं के विरूद्ध प्राकृतिक सुरक्षा के साधन थे शुक्रनीति में दुर्गो की नौ श्रेणियों का वर्णन किया गया।
- एरण दूर्ग- खाई, कांटों तथा कठोर पत्थरों से युक्त जहां पहुंचना कठिन हो जैसे – रणथम्भौर दुर्ग।
- पारिख दूर्ग- जिसके चारों ओर खाई हो जैसे -लोहगढ़/भरतपुर दुर्ग।
- पारिध दूर्ग- ईट, पत्थरों से निर्मित मजबूत परकोटा -युक्त जैसे -चित्तौड़गढ दुर्ग
- वन/ओरण दूर्ग- चारों ओर वन से ढ़का हुआ जैसे- सिवाणा दुर्ग।
- धान्वन दूर्ग- जो चारों ओर रेत के ऊंचे टीलों से घिरा हो जैसे-जैसलमेर ।
- जल/ओदक- पानी से घिरा हुआ जैसे – गागरोन दुर्ग
- गिरी दूर्ग- एकांत में पहाड़ी पर हो तथा जल संचय प्रबंध हो जैसे-दुर्ग, कुम्भलगढ़
- सैन्य दूर्ग- जिसकी व्यूह रचना चतुर वीरों के होने से अभेद्य हो यह दुर्ग माना जाता हैं
- सहाय दूर्ग- सदा साथ देने वाले बंधुजन जिसमें हो।
राजस्थान के 6 किलों को जून 2013 में UNESCO विश्व धरोहर की सूची में शामिल किया गया है।
- जयपुर का आमेर किला
- चित्तौड़गढ़ किला
- कुंभलगढ़ किला
- रणथंभौर किला
- गागरौन किला
- जैसलमेर किला
इनको याद करने की ट्रिक
R – रणथम्भौर(सवाई माधोपुर)
A – आमेर(जयपुर)
S – सोनारगढ़(जैसलमेर)
C – चित्तौड़गढ़(चित्तोड़गढ़)
G – गागरोण ( झालावाड़)
K – कुम्भलगढ़(राजसमंद)
चितौड़ का किला ( Chittorgarh fort )
राजस्थान का गौरव, गढ़ो में सिरमौर वीरता एवं शौर्य की क्रीड़ास्थली तथा त्याग व बलिदान का पावन तीर्थ चितौरगढ़ दुर्ग गम्भीरी ओर बेड़च नदियों के संगम स्थल के समीप अरावली पर्वतमाला के एक विशाल पर्वत शिखर पर बना हुआ है जिसे मौर्य राजा चित्रांग (चित्रांगद) ने बनवाया था अपने नाम पर चित्रकोट रखा था, उसी का अपभ्रंश चितौड़ है
गुहिल वंशिय बापा रावल ने मौर्य शासक मान मौर्य ( मान मोरी ) से 734 ई. में यह दुर्ग जीता
चितोड़ के किले का वास्तविक नाम चित्रकूट है आचार्य चाणक्य द्वारा बताई गयी चार कोटियों तथा आचार्य शुक्र द्वारा बताई गयी नो दुर्ग कोटियों में से केवल एक कोटि “धन्व दुर्ग” को छोड़कर चितौड़गढ़ को सभी कोटियों में रखा जा सकता है।
इसी कारण राजस्थान में कहावत कही जाती है कि “गढ़ तो गढ़ चितौड़गढ़, बाकी सब गड़ैया।
यह 1810 फीट ऊँचे पठार पर निर्मित है तथा इसका क्षेत्रफल 28 वर्ग कि.मी. है एवं दुर्ग की परिधि लगभग 13 कि.मी. है। राजस्थान के किलों में क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा चितौड का किला है। यह दुर्ग 616 मीटर ऊंचे एक पहाड़ पर स्थित है जिसे मेसा का पठार कहते हैं
दिल्ली से मालवा और गुजरात जाने वाले मार्ग पर अवस्थित होने के कारण प्राचीन और मध्यकाल में इस किले का विशेष सामरिक महत्व था
इस दुर्ग तक पहुंचने के लिए एक घुमावदार रास्ते में से चढ़ाई करनी पड़ती है इसमें सात अभेद्य प्रवेश द्वार है इसका मुख्य व पहला प्रवेश द्वार पाटन पोल है । इसके बाद क्रमशः भैरवपोल, हनुमानपोल, गणेशपोल, जोडलापोल, लक्ष्मण पोल व राम पोल है
व्हेल मछली के आकार में बना यह दुर्ग राजस्थान का सबसे बड़ा लिविंग फोर्ट है इस दुर्ग में राणा कुम्भा ने माडु के सुल्तान महमूद खिलजी पर विजय पर विजय स्तंभ का निर्माण कराया
इसके पार्श्व में प्रतापगढ़ के रावत बाघसिंह का स्मारक बना है जो चित्तौड़ के दूसरे साके के समय बहादुर शाह की सेना से जूझते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे
विजय स्तंभ ( Victory column )- इसमें नौ मंजिल है जो नवविधियो की प्रतीक है । यह लगभग 120 फ़ीट ऊंचाई का है । इसका निर्माण 1440 ई. में प्रारंभ हुआ तथा सन 1448 ई. में बनकर तैयार हुआ । इस स्तंभ को “पौराणिक हिन्दू मूर्तिकला का अनुपम खजाना” या “भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोश” कहा जाता है । इस स्तंभ को विष्णु स्तभ भी कहते है ।
इसके वास्तुकार जैता तथा उसके पुत्र नापा ,पोमा व पुंजा आदि थे 2013 में इस दुर्ग को “यूनेस्को की विश्व विरासत” स्थलों में शामिल किया गया है विजय स्तभ को कर्नल जेम्स टॉड ने ‘रोम के टार्जन’ की उपमा दी है
किले में रत्नेश्वर तालाब, कुंभ सागर तालाब, हाथी कुंड, भीमलत नामक बड़ा तालाब, महाराणा उदय सिंह की झाली रानी द्वारा निर्मित झालीबाव, चित्रांग मोरी तालाब, जल आपूर्ति के मुख्य स्रोत थे।
दुर्ग के अन्य प्रमुख ऐतिहासिक स्थलों में कंवर पदा के खंडहर तोफखाना भामाशाह की हवेली सलूंबर और रामपुरा व अन्य संस्थानों की हवेलियां तोफखाना हिंदू अहाडा के महल इत्यादि प्रमुख है।
वँहा विद्यमान फतह प्रकाश महल को म्यूजियम या संग्रहालय के रूप में विकसित किया गया है जिसमे अनेक कलात्मक देव प्रतिमाएं, अलंकृत पाषाण स्तम्भ तथा और भी बहुत सारी पूरा सामग्री संग्रहित है।
चितौड़गढ़ दुर्ग ( Chittaur fort ) में इतिहास तीन प्रसिद्ध शाके हुए है
1. सन 1303 में अलाउदीन खिलजी व चितोड़ के राणा रतनसिंह के मध्य युद्ध | इस साके में रानी पद्मिनी ने जौहर किया तथा राणा रतनसिंह व सैंकड़ो रणबांकुरो के साथ वीर गोरा व बादल वीरगति को प्राप्त हुए | खिलजी ने दुर्ग अपने पुत्र खिज्रखा को सौंपकर उसका नाम खिज्राबाद रख दिया | यह राज्य का दूसरा साका माना जाता है। पहला साका रणथंभौर दुर्ग का हैं [ 1301 ई.
2. सन 1534 में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह तथा अल्पवय महाराणा विक्रमादित्य के मध्य युद्ध हुआ, जिसमे देवलिया प्रतापगढ़ के वीर रावत बाघसिंह वीरगति को प्राप्त हुए । हाडी रानी कर्मवती ओर अन्य वीरांगनाओ ने जोहर किया । इसी युद्ध के पूर्व रानी कर्मवती ने हुमायु को राखी भेजकर सहायता मांगी थी
3. सन 1567 में मुगल बादशाह अकबर व राणा उदयसिंह के मध्य युद्ध, जिसमे वीर जयमल पत्ता व कल्ला राठौड़ वीरगति को प्राप्त हुए
Amer Fort ( आमेर दुर्ग )
यह गिरी श्रेणी का दुर्ग है। इसका निर्माण 1150 ई. में दुल्हराय कच्छवाह ने करवाया। यह किला मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है।
- शीला माता का मंदिर
- सुहाग मंदिर
- जगत सिरोमणि मंदिर
प्रमुख महल
- श्शीश महल
- दीवान-ए-खाश
- दीवान-ए-आम
विशेष- हैबर आमेर के महलों की सुंदरता के बारे में लिखता है कि ” मैने क्रेमलिन में जो कुछ देखा है और अलब्रह्राा के बारे में जो कुछ सुना है उससे भी बढ़कर ये महल है।”
मावठा तालाब और दिलारान का बाग उसके सौंदर्य को द्विगुणित कर देते है। दीवान-ए-आम’का निर्माण मिर्जा राजा जय सिंह द्वारा किया गया
भटनेर दूर्ग
भटनेर का प्राचीन दुर्ग हनुमानगढ़ में स्थित है मरुस्थल से गिरा होने के कारण भटनेर के किले को शास्त्रों मे वर्णित धान्वन दुर्ग की श्रेणी में रख सकते हैं
जनश्रुति के अनुसार इस प्राचीन दुर्ग का निर्माण भाटी राजा भूपत ने तीसरी शताब्दी के अंतिम चरण में करवाया था ,घघर नदी के मुहाने पर बने इस दुर्ग को सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है
भटनेर पर 1001 ईस्वी में महमूद गजनबी ने तथा 1398 ईस्वी में तैमूर ने आक्रमण किया था तैमूर ने अपनी आत्मकथा तुजुक ए तैमूर में इस दुर्ग की प्रशंसा की है लिखा है कि मैंने इतना मजबूत और सुरक्षित किला पूरे हिंदुस्तान में नहीं देखा
भटनेर पर अधिकार करने के लिए भाटियों और जोहियों दीर्घ काल तक संघर्ष चला अंततः बीकानेर महाराजा सूरतसिंह ने 1805 ईसवी में जाब्ता खाँ भट्टी से भटनेर छीन लिया । इस दिन मंगलवार था और क्योंकि मंगलवार का दिन हनुमान जी का दिन माना जाता है इसलिए इसका नाम हनुमानगढ़ रखा तथा दुर्ग में एक हनुमान जी के मंदिर का निर्माण भी करवाया
तारागढ़ दुर्ग
उपनाम- अजयमेरू , गढ़ बीठली राजस्थान का जिब्राल्टर पूर्व का दूसरा जिब्राल्टर
स्थान- अजमेर बीठली पहाड़ी पर
अजयपाल के द्वारा निर्माण करवाया गया, दारा शिकोह ने यहीं आश्रय लिया था, मीरान साहब की दरगाह स्थित है, महाराणा रायमल के पुत्र पृथ्वीराज सिसोदिया द्वारा अपनी पत्नी ताराबाई के नाम पर इसका नाम तारागढ़ रखा
अकबर का किला ( Akbar Fort )
अजमेर में स्थित इस किले का निर्माण मुगल बादशाह अकबर द्वारा 1570ई. में करवाया गया था 1576 ईसवी के हल्दीघाटी के युद्ध की रणनीति अकबर ने इसी किले में बनाई थी
मैग्जीन या अकबर का किला, अजमेर – अकबर का किला अजमेर नगर के मध्य स्थित है जिसे मैग्जीन या अकबर का दौलत खाना भी कहते हैं। मुस्लिम दुर्ग निर्माण पद्धति से बनाया हुआ यह एकमात्र दुर्ग राजस्थान में है
इस दूर्ग का निर्माण 1571-72 में किया गया था 1908 से राजपूताना अजायबघर इसी किले में चलता है इस किले के झरोखे में बैठकर जहांगीर न्याय करता था 1616 ईसवी में इंग्लैंड के सम्राट जेम्स प्रथम का राजदूत सर टाँमस रो इसी किले में जहाँगीर से मिला था।
हवामहल ( Hawa Mahal )
- स्थिति= जयपुर
- निर्माता = सवाई प्रताप सिंह
- वास्तूकार= लालचंद उस्ताद
हवामहल का निर्माण सवाई प्रताप सिंह ने 1799 ईस्वी में करवाया था, जिसका वास्तूकार लाल चन्द था। हवामहल में 152 खिड़कियां व छज्जे है। ये एक 5 मंजिला इमारत है, जिसका आकार कृष्ण भगवान के मुकुट के समान प्रतीत होता है।
5 मंजिलो के नाम
- शरद मन्दिर
- रतन मन्दिर
- विचित्र मन्दिर
- प्रकाश मन्दिर
- हवा मन्दिर
निर्माण शैली
- मुगल- राजपुत मिश्रित शैली
- पत्थर = लाल व गुलाबी/बलुआ पत्थर
ये बिना नींव की इमारत है हवामहल के निर्माण का उद्देश्य रानियो द्वारा शहर को व रैलियों को देखने हेतु ।
सिवाणा दुर्ग ( Shivana fort )
बाड़मेर में स्थित छपन का पहाड़ नामक पर्वतीय क्षेत्र में स्थित सिवाना का दुर्ग इतिहास प्रसिद्ध है इसे “अणखलो सिवाणो” दुर्ग भी कहते हैं।बाड़मेर जिले के सिवाना कस्बे में स्थित सिवाना दुर्ग की स्थापना 954 ईसवी में परमार वंश के वीरनारायण ने की थी।
यह एक ऊंची हल्देश्वर की पहाड़ी पर बसा हुआ है। इसका प्रारंभिक नाम कम्थान था । यह राजस्थान के दुर्गों में वर्तमान में सबसे पुराना दुर्ग है।इस पर कुमट नामक झाड़ी बहुतायत में मिलती थी, जिससे इसे ‘कुमट दुर्ग’ भी कहते हैं।
प्राचीन काल में इस तक पहुंचने का मार्ग अत्यंत दुर्गम था। अलाउद्दीन खिलजी के काल में यह दुर्ग जालौर के राजा कान्हड़देव के भतीजे सातल देव के अधिकार में था।
जब अलाउद्दीन जालोर पर आक्रमण करने के लिए रवाना हुआ, तो सातल देव ने उसका का मार्ग रोका और कहलवाया कि जालौर पर आक्रमण बाद में करना, पहले सिवाना से निपट।
इस पर विवश होकर अलाउद्दीन खिलजी ने सिवाना का रुख किया, काफी परिश्रम एवं विपुल समय की बर्बादी के बाद ही अलाउद्दीन खिलजी इस दुर्ग पर अधिकार कर पाया। राव मालदेव ने गिरी सुमेल युद्ध (1540 ईस्वी) के बाद सेना द्वारा पीछा किए जाने पर सिवाना दुर्ग में आश्रय लिया था।
फचंद्रसेन ने मुगलों(अकबर) से युद्ध भी सिवाना को केंद्र बनाकर किया। जोधपुर के राठौड़ नरेशों के लिए भी यह दुर्ग विपत्ति काल में शरण स्थली के रूप में काम आता था। दुर्ग में कल्ला रायमलोत का थडा, महाराजा अजीतसिंह का दरवाजा, कोट, हल्देश्वर महादेव का मंदिर आदि दर्शनीय है।
1308 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने सिवाणा दुर्ग को जीतकर उसका नाम “खैराबाद” रख दिया। इसमे दो साका हुए—प्रथम साका 1308 ई. में सातलदेव व अलाउद्दीन के संघर्ष के दौरान एवं द्वितीय साका वीर कल्ला रायमलोत व अकबर के संघर्ष के दौरान हुआ।
लोहागढ़ ( lohagarh fort )
भरतपुर नगर के दक्षिणी हिस्से में स्थित लोहागढ़ 1733 ईस्वी में जाट राजा सूरजमल द्वारा अपने पिता के समय बनवाया गया था। पूरा दुर्ग पत्थर की पक्की प्राचीर से घिरा हुआ है। इस प्राचीर के बाहर 100 फुट चौड़ी और 60 फुट गहरी खाई है।
इस खाई के बाहर मिट्टी की एक ऊंची प्राचीर हैं। इस प्रकार यह दोहरी प्राचीर से घिरा हुआ है। कहा जाता है कि अहमद शाह अब्दाली और जनरल लेक जैसे आक्रमणकारी भी इस दुर्ग में प्रवेश नहीं कर सके।
दुर्ग में प्रवेश करने के लिए इसके चारों ओर की खाई पर दो पुल बनाए गए हैं। इन पुलों के ऊपर गोपालगढ़ की तरफ से बना हुआ दरवाजा अष्ट धातुओं के मिश्रण से निर्मित है।
यह दरवाजा महाराजा जवाहर सिंह 1765 ईस्वी में मुगलों के शाही खजाने की लूट के समय लाल किले से उतार कर लाया था ।
जनसश्रुति है कि यह अष्टधातु द्वार पहले चित्तौड़गढ़ दुर्ग में लगा हुआ था, जिसे अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली ले गया था। दक्षिण की ओर बना हुआ दरवाजा लोहिया दरवाजा कहलाता है। 1733 ई. में जिस स्थान पर किले की नींव रखी गई थी वहां खेमकरण जाट की कच्ची गढ़ी थी जो चौबुर्जा कह रही थी।
इस दुर्ग में निर्माण कार्य राजा जसवंत सिंह(1853- 93 ई.) के काल तक चलता रहा। किले के चारों ओर की खाई में मोती झील से सुजान गंगा नहर द्वारा पानी लाया जाता था। यहां 8 बुर्जो में से सबसे प्रमुख जवाहर बुर्ज है जो महाराजा जवाहर सिंह की दिल्ली फतह के स्मारक के रूप में बनाया गया था।
फतेह बुर्ज अंग्रेजों पर फतह के स्मारक के रूप में 1806 ईसवी में बनवाया गया था। किले की अन्य बुर्जो में गोकला बुर्ज, कालिका बुर्ज, बागरवाली बुर्ज, तथा नवल सिंह बुर्ज उल्लेखनीय है। यह दुर्ग मैदानी दुर्गों की श्रेणी में विश्व का पहले नंबर का दुर्ग है।
कमरा खास महल में विशाल दरबारों का आयोजन होता था। भरतपुर दुर्ग पर सबसे जोरदार आक्रमण अंग्रेजों ने 1805 ईसवी में किया।भरतपुर के शासक रणजीत सिंह ने अंग्रेजों के शत्रु जशवंतराव होल्कर को अपने यहां शरण दी, जिससे उसे अंग्रेजों का कोपभाजन बनाना पड़ा।
अंग्रेज सेनापति लेक 1805 ईसवी की जनवरी से लेकर अप्रैल माह तक 5 बार भरतपुर दुर्ग पर जोरदार हमले किए गए। ब्रिटिश तोपो ने जो गोले बरसाए वे या तो मिट्टी की बाह्य प्राचीर में धँस गए। उनकी लाख कोशिश के बावजूद भी किले का पतन नहीं हो सका । फलतः अंग्रेजों को संधि करनी पड़ी।
17 मार्च 1948 को मत्स्य संघ का उद्घाटन समारोह भी इसी महल में हुआ था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद दीर्घ की अनेक इमारतों में सरकारी कार्यालय खुल गए हैं।
कुम्भलगढ़ दुर्ग ( Kumbhalgarh Fort )
अरावली की तेरह चोटियों से घिरा, जरगा पहाडी पर (1148 मी.) ऊंचाई पर निर्मित गिरी श्रेणी का दुर्ग है। इस दुर्ग का निर्माण महाराणा कुम्भा ने वि. संवत् 1505 ई. में अपनी पत्नी कुम्भलदेवी की स्मृति में बनवाया। इस दुर्ग का निर्माण कुम्भा के प्रमुख शिल्पी मण्डन की व देखरेख में हुआ। दुर्ग का निर्माण कार्य पूर्ण होने पर महाराणा कुम्भा ने सिक्के डलवाये जिन पर दुर्ग और उसका नाम अंकित था
उदयपुर से 7० किमी दूर समुद्र तल से 1087 मीटर ऊँचा और 30 किमी व्यास में फैला दुर्ग मेवाड़ के यशश्वी महाराणा कुम्भा की सूझबूझ व प्रतिभा का अनुपम स्मारक है
इस दुर्ग को मेवाड़ की आंख कहते है। इस किले की ऊंचाई के बारे में अतृल फजल ने लिखा है कि ” यह इतनी बुलन्दी पर बना हुआ है कि नीचे से देखने पर सिर से पगड़ी गिर जाती है।”
कर्नल टाॅड ने इस दुर्ग की तुलना “एस्टुकन” से की है। इस दुर्ग के चारों और 36 कि.मी. लम्बी दीवार बनी हुई है। दीवार की चैड़ाई इतनी है कि चार घुडसवार एक साथ अन्दर जा सकते है। इस लिए इसे ‘भारत की महान दीवार’ भी कहा जाता है।
दुर्ग के अन्य नाम – कुम्भलमेर कुम्भलमेरू, कुंभपुर मच्छेद और माहोर।
कुम्भलगढ दुर्ग के भीतर एक लघु दुर्ग भी स्थित है, जिसे कटारगढ़ कहते है, जो महाराणा कुम्भा का निवास स्थान रहा है। महाराणा कुम्भा की हत्या उनके ज्येष्ठ राजकुमार ऊदा (उदयकरण) न इसी दुर्ग में की। इस दुर्ग में ‘झाली रानी का मालिका’ स्थित है।
महाराणा प्रताप की जन्म स्थली कुम्भलगढ़ एक तरह से मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी रहा है। महाराणा कुम्भा से लेकर महाराणा राज सिंह के समय तक मेवाड़ पर हुए आक्रमणों के समय राजपरिवार इसी दुर्ग में रहा। यहीं पर पृथ्वीराज और महाराणा सांगा का बचपन बीता था।
महाराणा उदय सिंह को भी पन्ना धाय ने इसी दुर्ग में छिपा कर पालन पोषण किया था। उदयसिंह का राज्यभिषेक तथा वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप का जन्म कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ है। हल्दी घाटी के युद्ध के बाद महाराणा प्रताप भी काफी समय तक इसी दुर्ग में रहे।
इस दुर्ग के बनने के बाद ही इस पर आक्रमण शुरू हो गए लेकिन एक बार को छोड़ कर ये दुर्ग प्राय: अजेय ही रहा है कुल मिलाकर दुर्ग ऐतिहासिक विरासत की शान और शूरवीरों की तीर्थ स्थली रहा है। माड गायक इस दुर्ग की प्रशंसा में अक्सर गीत गाते हैं
बयाना दुर्ग भरतपुर ( Bayana Durg )
यह दुर्ग गिरी श्रेणी का दुर्ग है। इस दुर्ग का निर्माण विजयपाल सिंह यादव न करवाया।
अन्य नाम- शोणितपुर, बाणपुर, श्रीपुर एवं श्रीपथ है।
अपनी दुर्भेद्यता के कारण बादशाह दुग व विजय मंदिर गढ भी कहलाता है।
दर्शनिय स्थल
- भीमलाट- विष्णुवर्घन द्वारा लाल पत्थर से बनवाया गया स्तम्भ
- विजयस्तम्भ- समुद्र गुप्त द्वारा
नहारगढ़ का किला ( Naharagarh Fort )
जयपुर में अरावली पर्वतमाला की पहाड़ी पर अवस्थित नाहरगढ़ के किले का निर्माण सवाई जयसिंह ने 1734 ईस्वी में मराठा आक्रमणों से बचाव के लिए करवाया था। यह भव्य और सुदृढ़ दुर्ग जयपुर के मुकुट के समान है । इसे “सुदर्शन गढ़’ भी कहते हैं।
इस किले का नाहरगढ़ नाम नाहर सिंह भोमिया के नाम पर पड़ा है। ऐसी मान्यता है कि नारगढ़ के निर्माण के समय जुझार नाहरसिंह ने किले के निर्माण में विघ्न उपस्थित किया
तब तांत्रिक रत्नाकार पुंडरीक ने नहारसिंह बाबा को अन्यत्र जाने के लिए राजी कर दिया, और उनका स्थान “अंबागढ़” के निकट एक चोबुर्जी गड़ी में स्थापित कर दिया। जहां आज भी लोग देवता के रूप में पूजे जाते हैं।
नाहरगढ़ के अधिकांश भव्य राजप्रसादों का निर्माण जयपुर के महाराजा सवाई रामसिंह द्वितीय तथा उनके बाद सवाई माधो सिंह ने अपनी नौ पासवानों के नाम पर एक जैसे नौ महलों का निर्माण करवाया।
जिनके नाम सूरज प्रकाश, खुशहाल प्रकाश, जवहार प्रकाश, ललित प्रकाश, आनंद प्रकाश, लक्ष्मी प्रकाश, चांद प्रकाश, फूल प्रकाश, और बसंत प्रकाश, है।जो कदाचित इन्ही पासवानों के नाम पर है।
इन महलों के स्थापत्य की प्रमुख विशेषता उनकी एकरूपता, रंगों का संयोजन तथा ऋतु के अनुसार इनमे हवा और रोशनी की व्यवस्था है। अब यह दुर्ग राजस्थान पर्यटन विभाग के अधीन है।
मेहरानगढ़ दुर्ग ( Mehrangarh fort )
उपनाम :- चिन्तामणि, मिरिगढ़, मेहरानगढ़, मयूरध्वज गढ़
जोधपुर में स्थिति गिरीदुर्ग है निर्माता राव जोधा द्वारा 13 मई 1459 ईसवी में निर्मित अपनी विशालता के कारण यह किला मेहरानगढ़ कहलाता है । लाल पत्थरों से निर्मित जोधपुर का मयूर आकृति का होने के कारण इसे मयूरध्वज गढ़ या मोरध्वज गढ़ भी कहते हैं ।
इस दुर्ग की पहाड़ी प्रसिद्ध योगी चिङियानाथ के नाम पर चिड़िया टूंक कहलाती थी। मेहरानगढ़ किले के प्रवेश द्वारों मे लोहापोल, जयपोल, फतेहपोल प्रमुख है। लोहापोल का निर्माण राव मालदेव ने करवाया। जयपोल का निर्माण महाराजा मानसिंह ने करवाया। इसमे लगे लोहे के विशाल किवाड़ो को उदावत ठाकुर अमरसिंह अहमदाबाद से लाये थे।
रुडयार्ड किपलिंग ने कहा था कि “यह मानव निर्मित नही बल्कि फ़रिस्तो द्वारा बनाया लगता है
1544 ईस्वी में शेरशाह सूरी ने इस पर अधिकार कर लिया परंतु 1545 ईसवी में पुनः मालदेव का अधिकार हो गया । 1564 ईस्वी में अकबर ने इस दुर्ग पर अधिकार कर लिया। 1678 में औरंगजेब ने अधिकार कर लिया और 1707 में तक अपने अधिकार में रखा ।
इस दुर्ग में मोती महल ,फूल महल, तख्त विलास, अजीत विलास , मानसिंह पुस्तक प्रकाश पुस्तकालय, सिणगार चौकी चोखेलाल महल इत्यादि प्रमुख है। मेहरानगढ़ किले के दौलतखाने के आंगन मे महाराजा बख्तसिंह द्वारा बनवाई गई संगमरमर की श्रृंगार चौकी है।
राव जोधा ने चामुंडा माता का मंदिर बनवाया जहां 2008 में मेहरानगढ़ दुखांतिका घटना घटित हुई । महाराजा अभय सिंह द्वारा बनवाए गये आनंद धन जी एवं मुरली मनोहर मंदिर स्थित है।
जयगढ़ दुर्ग ( Jaigarh Fort )
जयपुर में स्थित गिरी दुर्ग का निर्माण मानसिंह प्रथम द्वारा करवाया गया लेकिन जगदीश गहलोत और गोपीनाथ शर्मा के अनुसार इस दुर्ग का निर्माता मिर्जा राजा जयसिंह था । जय गढ़ राजस्थान का एकमात्र दुर्ग है जिस पर कभी कोई बाह्य आक्रमण नहीं हुआ ।
रियासतकाल में किले के भीतर राजनीतिक कैदियों को रखने व खजाना रखने के काम लिया जाता था । जयबाण नामक एशिया की सबसे बड़ी तोप यहीं पर स्थित है। समूचे भारत में यही एक दुर्ग है जहाँ तोप ढालने का संयंत्र लगा है।
भैंस रोड गढ़ ( Bhansrood fort )
चित्तौड़ जिले में स्थित जल दुर्ग चंबल और बामणी नदियों के संगम स्थल पर बना हुआ है। निर्माण भैंसा शाह नमक व्यापारी व रोडा चारण ने मिलकर करवाया। इस दुर्ग को राजस्थान का वेल्लोर कहा जाता है।
जूनागढ़ किला ( Junagadh Fort )
बीकानेर में स्थित स्थल दुर्ग निर्माता बीकानेर के शासक रायसिंह । यह किला लाल पत्थरों से बना है।रायसेन ने जूनागढ़ की सूरजपोल पर राय प्रशस्ति उत्कीर्ण करवाई।
जिसका रचयिता जेइता था। जूनागढ़ दुर्ग में रायसिंह का चौबारा ,फूल महल ,चंद्र महल, गज मंदिर, अनूप महल ,रतन निवास ,कर्ण महल, दलेल निवास, सरदार निवास,सूरत निवास इत्यादि प्रमुख भवन है। राय सिंह ने जयमल और पत्ता की पाषाण मूर्तियां इसी दुर्ग पर लगाई
गागरोन का किला ( Gagaron Fort )
झालावाड़ में आहु और कालीसिंध नदियों के संगम स्थल ‘सामेलजी’ के निकट यह उत्कृष्ट जल दुर्ग डोड (परमार) राजपूतो द्वारा निर्मित करवाया गया था । इन्ही के नाम पर इसे डोडगढ़ या धुलगढ़ कहते है । इसे कालीसिंध व आहू ने तीन तरफ से घेर रखा हैं एक सुरंग के द्रारा नदी का पानी दुर्ग के भीतर पहुंचाया गया हैं
खींची राजवंश के संस्थापक देवनसिंह ने 12वी शताब्दी में इसे डोड शासक बिजलदेव से जीतकर इसका नाम गागरोन रखा । ‘ चौहानों कुल कल्पद्रुम ‘के अनुसार गागरोण के खींची राजंवश का संस्थापक देवनसिंह (उर्फ धारु) था।
यह दुर्ग मुकुन्दरा की पहाड़ी पर बना हुआ है । सन 1303 में दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने इस पर आक्रमण किया था परंतु वँहा के शासक जैत्रसिंह को हरा नही पाया ।
दुर्ग में प्रमुख दर्शनीय स्थल
- भगवान मधुसूदन का मंन्दिर जो राव दुर्जनसाल हाडा ने बनवाया।
- कोटा रियासत के सिक्का ढालने के लिए निर्मित टकसाल ।
- रामानंद के शिष्य संत पीपाजी की छतरी जंहा प्रतिवर्ष उनकी पुण्यतिथि पर मेला भरता है ।
- सूफी संत हमीदुद्दीन चिश्ती की समाधि जो “मीठेशाह की दरगाह” के नाम से प्रसिद्ध है ।
- कोटा के झाला जालिमसिंह द्वारा निर्मित विशाल परकोटा ‘जलिमकोट’ ।
गागरोण खींची राजवंश में जेतसिंह की तीन पीढ़ी बाद पीपाराव शासक हुए जो दिल्ली सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के समकालीन थे ।वे समस्त राज-पाट त्यागकर संत रामानंद के शिष्य बन गए तथा भगवत भक्ति में लीन हो गए ।दुर्ग के निकट ही उनकी छतरी बनी हुई है ।
दुर्ग के प्रमुख साके
- 1423 ई. में मांडू के सुल्तान होशंगशाह व भोज के पुत्र अचलदास खींची के मध्य हुआ युद्ध जिसमे अचलदास वीरगति को प्राप्त हुए व अचलदास की रानी उमादे सहित दुर्ग की सभी ललनाओं ने जोहर किया ।प्रसिद्ध कवि शिवदास गाडण ने अपनी काव्यकृति”अचलदास खींची री वचनिका” में इस युद्व का विशद वर्णन किया है ।
- सन 1444 ई. में मांडू के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम व अचलदास खींची के पुत्र पाल्हणसी के मध्य युद्व हुआ । विजयी सुल्तान ने दुर्ग में एक और कोट का निर्माण करवाया व दुर्ग का नाम “मुस्तफाबाद” रखा ।
इस पृथ्वीराज ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ –वेलि क्रिसन रुक्मिणी री गागरोण मे रहकर लिखा
_जालोर दुर्ग_
अन्य नाम :-
सोनलगढ़, कनकाचल, सुवर्णगिरि
- सुवर्ण- गिरी पहाड़ी पर स्थित है।
- डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार प्रतिहार नरेश नागभट्ट प्रथम ने इस दुर्ग का निर्माण करवाया था।
आधुनिक इतिहासकार मानते है कि इस किले का निर्माण परमार राजपूतों ने आरंभ किया था। इसका निर्माण परिहारों के काल मे आंरभ हो गया था जालौर का दुर्ग दिल्ली से गुजरात जाने वाले मार्ग पर.स्थित हैं
इस दुर्ग की 13 वर्ष तक घेराबंदी चली जिसे खिलजी तोड़ नही सका । बाद मे 1311 ई.मे बीक नामक दहिया राजपूत की गद्दारी से किले का पतन हुआ इस दुर्ग का प्रसिद्ध साका वर्ष 1311-12 में हुआ ।
जिसमें जालोर के पराक्रमी शासक वीर कान्हड़देव सोनगरा ओर उसके पुत्र वीरमदेव अलाउदीन खिलजी के साथ जालौर दुर्ग में युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुये तथा 1311-12 ई.के लगभग खिलजी ने जालौर पर अधिकार किया।
इस युद्ध का वर्णन कवि पद्मनाभ द्वारा रचित ग्रंथ कान्हड़दे प्रबंध तथा वीरमदेव सोनगरा री बात में किया गया है। जालोर दुर्गापनी सुदृढ़ता के कारण संकटकाल में जहाँ मारवाड़ के राजाओं का आश्रय स्थल रहा वही उसमे राजकीय कोष भी रखा जाता रहा ।
जैन मंदिरो मे पाशर्वनाथ का मंदिर सबसे बडा़ एवं भव्य हैं सन्त मलिक शाह की दरगाह, तथा दुर्ग में स्थित परमार कालीन कीर्ति स्तम्भ ,जैन धर्मावलंबियों की आस्था का केंद्र प्रसिद्ध स्वर्णगिरि मन्दिर, तोपखाना आदि जालौर दुर्ग के प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल है
आंदौलन के समय कई नेताओं को इस किले मे नजरबंद किया गया मथुरादास माथुर , गणेशीलाल व्यास ,फतहराज जोशी एवं तुलसीदास राठी आदि
किले के भीतर बनी तोपखाना मस्जिद, जो पूर्व मे परमार शासक भोज द्रारा निर्मित संस्कृत पाठशाला थी, बहुत आकर्षक हैं।
रणथम्भोर दुर्ग ( Ranthambore Fort )
रणथम्भोर का दुर्ग सवाईमाधोपुर से लगभग 9 किलोमीटर दूर अरावली पर्वत मालाओं से घिरा हुआ एक पार्वत्य दुर्ग एवं वन दुर्ग हैं इसका दुर्ग के तीनो और पहाडों में प्राकृतिक खाई बनी है जो इस किले की सुरक्षा को मजबूत कर अजेय बनाती है। निर्माण आठवीं शताब्दी मे अजमेर के चौहान शासको द्रारा करवाया गया था।
एक मान्यता के अनुसार इसका निर्माण रणथान देव चौहान ने करवाया था। यह दुर्ग विषम आकर वाली सात पहाड़ियों से घिरा हुआ है।
अबुल फजल ने लिखा है ‘ अन्य सब दुर्ग नंगे हैं, जबकि यह दुर्ग बख्तरबंद हैं’।
बीच -बीच मे गहरी खाइयां और नाले हैं। रणथम्भौर दुर्ग उंचे गिरी शिखर पर बना हुआ है। इसमे नौलखा दरवाजा (प्रवेश द्रार ), हाथी पोल, गणेश पोल, सूरज पोल, और त्रिपोलिया (अंधेरी दरवाजा) को पार करके दुर्ग मे पहुचा जाता हैं।
इसके पास से एक सुरंग महलो तक गयी हैं दुर्ग परिसर मे हम्हीर महल , रानी महल, हम्मीर की कचहरी ,सुपारी महल ,बादल महल, जौरा-भौरा, 32 खम्भों की छतरी, जोगीमहल तथा भारत प्रसिद्ध गणेश मंदिर स्थित हैं।
1192 में तहराइन के युद्ध में मुहम्मद गौरी से हारने के बाद दिल्ली की सत्ता पर पृथ्वीराज चौहान का अंत हो गया और उनके पुत्र गोविन्द राज ने रणथंभोर को अपनी राजधानी बनाया।
गोविन्द राज के अलावा वाल्हण देव, प्रहलादन, वीरनारायण, वाग्भट्ट, नाहर देव, जैमेत्र सिंह, हम्मीरदेव, महाराणा कुम्भा, राणा सांगा, शेरशाह सुरी, अल्लाऊदीन खिलजी, राव सुरजन हाड़ा और मुगलों के अलावा आमेर के राजाओं आदि का समय-समय पर नियंत्रण रहा
लेकिन इस दुर्ग की सबसे ज्यादा ख्याति हम्मीर देव (1282-1301) के शासन काल में रही। हम्मीरदेव का 19 वर्षो का शासन इस दुर्ग का स्वर्णिम युग था। हम्मीर देव चौहान ने 17 युद्ध किए जिनमे 13 युद्धो में उसे विजय प्राप्त हुई। करीब एक शताब्दी तक ये दुर्ग चितौड़ के महराणाओ के अधिकार में भी रहा। खानवा युद्ध में घायल राणा सांगा को इलाज के लिए इसी दुर्ग में लाया गया था
वह सन् 1301 मे अलाउद्दीन से युद्ध करते हुए शराणगत धर्म के लिए बलिदान हुआ
दुर्ग पर आक्रमण
- मुहम्मद गौरी व चौहानो के मध्य इस दुर्ग की प्रभुसत्ता के लिये 1209 में युद्ध हुआ।
- इसके बाद 1226 में इल्तुतमीश ने,
- 1236 में रजिया सुल्तान ने,
- 1248-58 में बलबन ने,
- 1290-1292 में जलालुद्दीन खिल्जी ने,
- 1301 में अलाऊद्दीन खिलजी ने,
- 1325 में फ़िरोजशाह तुगलक ने,
- 1489 में मालवा के मुहम्म्द खिलजी ने,
- 1529 में महाराणा कुम्भा ने,
- 1530 में गुजरात के बहादुर शाह ने,
- 1543 में शेरशाह सुरी ने आक्रमण किये।
- 1569 में इस दुर्ग पर अकबर ने आक्रमण कर आमेर के राजाओं के माध्यम से तत्कालीन शासक राव सुरजन हाड़ा से सन्धि कर ली।
पोकरण दुर्ग जैसलमेर ( Pokarna fort )
पोकरण मे लाल पत्थरों से निर्मित इस दुर्ग का निर्माण सन् 1550 मे राव मालदेव ने करवाया था। किले मे मंगल निवास,संग्रहालय, तोपें, द्रारा, बुर्जियां, तथा सुरक्षात्मक दीवार देखने लायक हैं।
सोनागढ़ (धान्वन दुर्ग), जैसलमेर
इसे सोनागढ़ तथा सोनारगढ़ भी कहते हैं। इसका निर्माण 1155 ई.मे रावल जैसल भाटी ने करवाया था। उसके पुत्र व उतराधिकारी शालिवाहन दि्तीय ने जैसलमेर दुर्ग का अधिकांश निर्माण पूर्ण करवाया। यह दुर्ग त्रिकूटाकृति का है तथा इसकी उँचाई 250 फीट हैं।
इस दुर्ग के चारो ओर विशाल मरुस्थल फैला हुआ है इस कारण यह _दुर्ग ‘ धान्वनदुर्ग ( मरु _दुर्ग )’ की श्रेणी मे आता है। कहावत प्रचलित हैं कि यहां पत्थर के पैर , लोहे का शरी और काठ घोड़े पर सवार होकर ही पहुंचा जा सकता हैं।
यह गहरे पीले रंग के बडे़ -बडे़ पत्थरों से निर्मित है जो बिना चूने के एक के ऊपर एक पत्थर रखकर बनाया गया है। जो इसके स्थापत्य की विशिष्टता हैं। जब सुबह-शाम को सूरज की रोशनी पड़ती हैं तो वह वाकई सोने के समान चमकता है।
_दुर्ग तक पहुंचने के लिए अक्षय पोल.,सूरजपोल,गणेश पोल व हवा पोल को पार करना होता है। _दुर्ग मे कई महल, एवं आवासीय भवन बने हुए हैं।दुर्ग मे स्थिति लक्ष्मीनारायण मंदिर दर्शनीय है। इसे 1437 ई मे महारावल वैरीसाल के शासन काल मे बनाया गया था।
इस मंदिर मे स्थापित लक्ष्मीनाथ की मूर्ति मेड़ता से लायी गयी थी। यहां ‘ ढा़ई साके ‘ हुए। राव लूणकरण के समय (1550ई.)मे यहां ‘अर्द्धसाका ‘ हुआ।।
दर्ग के भव्य महलों मे महारावल अखैसिंह द्रारा निर्मित सर्वोत्तम विलास (शीशमहल ),मूलराज द्रितीय के बनाये हुए रंगमहल और मोतीलाल महल भव्य जालियों और झरोखो तथा पुष्पतलाओं के सजीव ओर सुन्दर अलंकरण के कारण दर्शनीय हैं।
गज विलास और जवाहर विलास महल पत्थर के बारीक काम और जालियों की कटाई के लिए प्रसिद्ध हैं। बादल महल अपने प्राकृतिक परिवेश के लिए उल्लेखनीय हैं। जैसल कुआं किले के भीतर पेयजल का प्राचीन स्रोत हैं।
जैसलमेर _दुर्ग के भीतर बने प्राचीन एवं भव्य जैन मंदिर तो कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। पार्श्वनाथ, संभवनाथ और ऋषभदेव मंदिर अपने शिल्प के कारण आबू के दिलवाड़ा जैन मंदिरों से प्रतिस्पर्धा करते मालूम होते है। इसकी कदाचित विशेषता इसमे हस्तलिखित ग्रंथो का एक दुर्लभ भण्डार हैं।
अनेक ग्रंथ ताड़पत्रों पर लिखे और हस्तलिखित सबसे बडा़ संग्रह जैन आचार्य जिनभद्सूरी के नाम पर ‘ जिनभ्रद सूरी ग्रंथ.भण्डार’ कहलाता हैं।
वर्तमान मे राजस्थान मे दो _दुर्ग ही ऐसे ही है जिनमे बडी़ सख्यां मे लोग निवास करते (लिविंग फोर्ट)हैं उनमे एक चितौड़ का _दुर्ग तथा दूसरा जैसलमेर का दुर्ग दूर से देखने पर यह किला पहाड़ी पर लंगर डाले एक जहाज का आभास कराता हैं।
दर्ग के चारो ओर घघरानुमा परकोटा बना हुआ हैं, जिसे ‘कमरकोट’ तथा ‘ पाडा’ कहा जाता हैं 99 बुर्जो वाला यह किला मरुभूमि का महत्वपूर्ण किला हैं।