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स्वामी विवेकानंद का दर्शन
” विचार व्यक्तित्व की जननी है,जो आप सोचते हैं बन जाते हैं ”
भारतीय धर्मनिरपेक्षता के आचरण ने अपने निहित दोषों के बावजूद देश को अन्य पड़ोसी देशों से अलग स्वरूप प्रदान किया है। भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा मुस्लिम आबादी वाला देश है। अभूतपूर्व विविधता के बीच लोकतंत्र को सशक्त बनाए रखने की भारत की क्षमता विश्व की उन उन्नत औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं तक के लिये उदाहरण पेश कर सकती है जो पारंपरिक एकल-सांस्कृतिक राष्ट्र की तरह संचालित किये जाते रहे हैं। ( स्वामी विवेकानंद का दर्शन )
भारत के धर्मनिरपेक्ष आदर्शों की जड़ें उसके संविधान में हैं और भारतीय जनता द्वारा प्रख्यापित हैं। भारतीय धर्मनिरपेक्षता ने अपनी अपूर्णता में भी सदैव ‘सर्वधर्म समभाव’ जिसका अर्थ है कि सभी धर्म एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं, पर बल दिया है जहाँ सभी धर्मों के प्रति एकसमान सम्मान का भाव निहित है।
विवेकानंद का प्रारंभिक जीवन
स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 में कलकत्ता के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था जो एक धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। स्वामी विवेकानंद का बचपन का नाम वीरेश्वर रखा गया परन्तु उनको लोग नरेंद्नाथ दत्त ही कहकर बुलाते थे।
उनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था जो कलकत्ता हाईकोर्ट में एक प्रसिद्द वकील थे और वो पाश्चात्य सभ्यता से काफी ज्यादा प्रभावित थे।
इसलिए वो बालक नरेन्द्रनाथ को अंग्रजी पढ़ाई कराकर उनके जैसे ही बनाना चाहते थे और आठ साल की उम्र में ईश्वरचंद्र विद्यासागर मेट्रोपोलिटन संस्थान में उनका दाखिला कराया गया जहां से उन्होंने अपनी पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई शुरू की।
बालक नरेंद्रनाथ बचपन में काफी शरारती और जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे। यानि अगर वो एक बार किसी बात को ठान लेते तो उसे पूरा करके ही मानते। ऐसा ही उनके बचपन का एक किस्सा है-
जब वो छोटे थे तब उनके घर के बाहर एक बड़ा से पेड़ था और एक बार किसी ने उनसे कहा कि उस पेड़ पर कभी मत चढ़ना क्यूंकि उस पेड़ पर एक भूत रहता है।
बालक नरेन्द्रनाथ को यह बात इतनी रहस्यमय लगी की उस दिन उन्होंने पूरी रात उस पेड़ पर बैठ कर ही निकाल दी सिर्फ ये जानने के लिए कि वास्तव में उस पेड़ पर कोई भूत रहता है या नहीं, और वो कैसा दीखता है।
स्वामी विवेकानंद का दर्शन [ संक्षेप में ]
विवेकानंद का जन्म कोलकाता की एक सुविख्यात परिवार में हुआ था उनका प्रारंभिक जीवन बहुत रोचक नहीं था। 1881 में उनकी स्वामी रामकृष्ण परमहंस से मुलाकात हुई जिन्हें विवेकानंद ने अपना दार्शनिक और गुरु माना। 1886 में राम कृष्ण की मृत्यु के बाद उन्होंने लगभग संपूर्ण भारत की यात्रा की सन 1893 में उन्होंने शिकागो में हुए धर्मों के बीच संसद को संबोधित किया वहां से लौटकर कोलकाता के समीप उन्होंने रामकृष्ण आश्रम की स्थापना की 4 जुलाई 1902 में स्वामी विवेकानंद की मृत्यु हो गई।
विवेकानंद का दर्शन
विवेकानंद आध्यात्मवादी हैं क्योंकि वह अंतिम सत्ता को आध्यात्मिक मानते हैं वास्तविक एकमात्र निरपेक्ष बह्म है सत पूर्ण है जो यह सूचित करता है कि इसके यहां विभिन्न अंश भी होंगे। परंतु निरपेक्ष पूर्ण एकता है इसलिए अंशो व संपूर्ण के बीच का भेद पूर्ण समाप्त हो जाता है |
निरपेक्ष ब्रह्म देशकाल और कारणता से परे भी परे हैं अतः इसलिए परिवर्तन रहित है परिवर्तन रहित निरपेक्ष सभी गुणों से रहित निर्धारित तथापि निरपेक्ष की सत चित आनंद के रूप में व्याख्या की जा सकती है। प्रेम आनंद व का मौलिक सार है तत्वमीमांसीय रूप से सत्ता निरपेक्ष ब्रह्म है वही सत्ता धार्मिक दृष्टिकोण से ईश्वर है जो कि सर्व व्याप्त है सब जगह और सभी चीजों में व्याप्त है |
स्वामी विवेकानंद का ईश्वर दर्शन
ईश्वर वैयक्तिक है विवेकानंद के दर्शन में दो धाराएं बहती हैं एक जो अद्वैत वेदांत के समरूप और दूसरी भक्ति मार्ग के ईश्वरवाद की याद दिलाती है!
वह जो प्रधान रूप से वास्तविक है वही भक्ति व पूजा का विषय है ईश्वर की पूर्ण ए स्वीकृति असंभव है क्योंकि ईश्वर को विश्व और आत्मा के आधार को वह सहायक के रूप में पूर्ण कल्पित किया गया है विवेकानंद की शिक्षाओं में ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करने के निम्नलिखित है
1. प्रारूप संबंधी तर्क :- विश्व की व्यापकता संगति और महत्ता हमें यह मानने को विवश करती है कि इस ब्रह्मांड का एक शिल्पकार एक बुद्धिमान चित्रकार अवश्य होगा।
2. कारणमूलक तर्क :- इस ब्रह्मांड में प्रत्येक वस्तु कारण एवं कार्य के रूप में है यह कारणात्मक श्रंखला एक अंतिम कारण की ओर ले जाती है जो कारण हीन कारण निरपेक्ष सत ईश्वर है।
3. एकता संबंधी तर्क :- इस ब्रह्मांड में सभी वस्तुओं में एक अनिवार्य एकता दिखाई पड़ती है जो वस्तुएं एक दूसरे से अत्यंत भिन्न दिखाई पड़ती हैं वह भी वास्तविक में मूल्य तय है एक वह समान है एकता संबंधी यह तथ्य सभी वस्तुओं में निहित सर्वश्रेष्ठ एकरूपता के सिद्धांत को प्रकट करता है जो कि ईश्वर है।
4. प्रेम संबंधित तर्क :-
प्रेम की वस्तु में स्वयं को खोजने से ही प्रेम सन्निहित है प्रेम की क्रिया में मैं और तू का भेद मिट जाता है निष्कर्ष यह है कि सभी वस्तुओं के पीछे एक ही वास्तविकता है प्रेम का सर्वोच्च सिद्धांत ईश्वर है।
5. वेदों की प्रामाणिकता से संबंधित तर्क :- क्योंकि हम ईश्वर को जानने और समझने में समर्थ नहीं हुए हैं हम स्वयं को वेदों की प्रामाणिकता पर आधारित कर सकते हैं सत्ता एवं वास्तविकता की दृष्टि से केवल ईश्वर ही प्रथम है परंतु हमारे समिति ज्ञान की दृष्टि से वेद पूर्वर्ती प्रतीत होते हैं और ईश्वर की शिक्षा देने में हम केवल उन्हीं की प्रमाणिकता पर निर्भर हो सकते हैं।
6. सादृश्यमूलक तर्क :- वह एक सुंदर चित्र का समानुपात करते हैं जो व्यक्ति चित्र को उसे खरीदने और बेचने की दृष्टि से ही , वही उसका आनंद उठा सकता है उसी प्रकार यह संपूर्ण ब्रह्मांड ईश्वर का चित्र है जिसका आनंद मनुष्य तभी उठा सकता है जब उसकी सारी इच्छाएं नष्ट हो जाएं।
7. अवधारणा की आवश्यकता संबंधी तर्क :- ईश्वर की अवधारणा अनेक धारणा धाराओं पर आवश्यक है यह आवश्यकता है कि क्योंकि ईश्वर सत्य है और सत्य आवश्यक है इसी प्रकार ईश्वर आवश्यक है क्योंकि ईश्वर स्वतंत्रता है मानव स्वतंत्रता का तथ्य निरपेक्ष स्वतंत्रता के आदर्श को जो कि दैवीय स्वतंत्रता है पूर्वकल्पित करता है पुण ईश्वर आवश्यक है क्योंकि अस्तित्व के भाव में ही ईश्वर सम्मिलित है।
8. अंतर्ज्ञान संबंधी तर्क :- यदि मानव कठोर धार्मिक अनुशासन और ज्ञान के मार्ग पर चलने को तैयार हो तो प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर को प्रत्यक्ष अंतर्ज्ञान द्वारा अनुभव करने की क्षमता है वैदिक तर्कों की आवश्यकता तभी होती है जब तक कि प्रत्यक्ष दृष्टि की क्षमता विकसित ने कर ली जाए।
स्वामी विवेकानंद का जगत दर्शन
जगत ईश्वर की रचना है,जोकि रचयिता की सीमित रूप में अभिव्यक्ति है। काल दिक् और कारणता में ढलने से निरपेक्ष ब्रह्मांड में अभिव्यक्त हो गया है।
निश्चित रूप से यह व्याख्या दर्शाती है कि निरपेक्ष में कभी काल दिख वह कारणता का अस्तित्व नहीं था क्योंकि निरपेक्ष सभी परिवर्तनों से परे है। देश काल और कारणता का तत्वमीमांसीय वास्तविकता नहीं है बल्कि आकार है जिनके द्वारा ईश्वर अपनी रचना को संभव बना पाता है।
यद्यपि आकार एक तत्वमीमांसीय वास्तविकता नहीं है यह ने तो वास्तविक है न असत्य।
यह आकार समुंदर की लहरों के समान है लहरें समुद्र के समान हैं फिर भी भिन्न हैं उसी प्रकार जगत लहरों के समान ही सत्य है विवेकानंद के अनुसार शंकर के जगत् मिथ्या का अर्थ मात्र भ्रम नहीं है
बल्कि वह है जिसकी स्वयं में कोई वास्तविकता नहीं है और नहीं कोई नित्य मूल्य है इसका अर्थ है वह जो नित्य परिवर्तनशील है रचनाकाल रहित है ईश्वर नित्य रूप से रचना कर रहा है रचना और विकास साथ साथ होते हैं।
काली मां के अनन्य भक्त स्वामी विवेकानंद ने आगे चलकर अद्वैत वेदांत के आधार पर सारे जगत को आत्म-रूप बताया और कहा कि “आत्मा को हम देख नहीं सकते किंतु अनुभव कर सकते हैं. यह आत्मा जगत के सर्वांश में व्याप्त है. सारे जगत का जन्म उसी से होता है, फिर वह उसी में विलीन हो जाता है.
स्वामी विवेकानंद का माया दर्शन
माया रचिता की शक्ति है यह परिवर्तन का सिद्धांत है जिसके द्वारा रचना संभव होती है परंतु अद्वैत वेदांत के अनुसार माया भ्रम उत्पन्न करने की शक्ति है यह वह दिव्य शक्ति है जिसमें मनुष्य को इस प्रकार भ्रमित करने की क्षमता है कि वह विश्व को सत्य मानता है।
विवेकानंद इस बात को स्वीकार नहीं करते हैं उनके अनुसार माया ब्रह्मांड में स्पष्ट रूप में दिखने वाले विरोधात्मक तथ्यों को प्रदर्शित करती है। उदाहरण के लिए जहां शुभ है वहा अशुभ है।
जहां जीवन है वहां मृत्यु है आदि आदि।
अंतः सभी विरोध समाप्त हो जाएंगे और इसीलिए माया को भी हटाना होगा परंतु हटाने की यह क्रिया जिसे हटाया जा रहा है उसे पूरी तरह समाप्त करती या नकारती नहीं है |
यहां तक कि जब माया पीछे हटती है या प्रवृत्ति होती है तो यही दर्शाती है कि पूरे समय वह स्वयं ब्रह्म के ही संपर्क में थी उसके द्वारा हटने पर भी इसके द्वारा अभी तक निभाई गई विभिन्न भूमिकाएं इससे अलग नहीं होती। माया ने तो सत् न ही असत्, बल्कि निरपेक्ष सत् और असत् के बीच कुछ है |
स्वामी विवेकानंद का मानव दर्शन
विवेकानंद के दर्शन में मनुष्य का जो चित्र बढ़ता है वह शारीरिक और आध्यात्मिक का व्यवस्थित तंत्र है। मनुष्य अन्य जानवरों से शारीरिक रूप से श्रेष्ठ है क्योंकि उसका शारीरिक स्वरूप अधिक व्यवस्थित है और एक श्रेष्ठ तर एकता को दिखाता है।
मनुष्य के शारीरिक स्वरूप की यह अनन्यता उसके व्यक्ति में विद्वान आध्यात्मिकता के ही कारण है। आत्मन का वास्तविक स्वरूप ब्राह्मण से तादात्म्य में है। यह दोनों मूल रूप में एक ही हैं और उनमें भेद केवल आभासी है
सामान्यतः हमें इस भेद का ज्ञान नहीं होता परंतु कुछ विशेष अनुभव और अनुभूति या इसे इंगित करती हैं इसका सबसे साधारण उदाहरण यह अनुभव है कि एक व्यक्ति में इस प्रकार के तादात्म्यकरण की क्षमता विद्वान है।
स्वामी विवेकानंद ने मानव जीवन की विभिन्न समस्याओं पर गहन चिंतन किया था। उनके चिंतन के क्षेत्र धर्म, दर्शन, सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था, शिक्षा प्रणाली, महिलाओं की स्थिति और राष्ट्र का सम्मान आदि थे। विभिन्न समस्याओं पर उनके विचारों ने राष्ट्र को एक नई दिशा दी है। उनके अनुसार शिक्षा आंतरिक आत्म की खोज का जरिया है।
शिक्षा मानव जीवन की इस सच्चाई को महसूस करने का माध्यम है कि हम सभी एक ही भगवान के अंश हैं। वह शिक्षा के माध्यम से व्यक्तित्व के व्यापक विकास में विश्वास करते थे। उनका मानना था कि पूर्णता पहले से ही मनुष्य में निहित है।
शिक्षा उसी की अभिव्यक्ति है। दूसरे शब्दों में कहें तो सब ज्ञान मनुष्य में पहले से निहित हैं। कोई ज्ञान बाहर से उसमें नहीं आता। शिक्षा मनुष्य तो इससे परिचित कराती है और इसको उभरती है। वह कहते थे कि शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य जीवन-निर्माण, मानव-निर्माण, चरित्र-निर्माण होना चाहिए।
विवेकानंद का शिक्षा दर्शन
स्वामी जी के शिक्षा-विषयक विचारों का मूल उपनिषदों में है। वहां अपरा-विद्या और परा-विद्या की बात कही गई है। साधारणतया अपरा और परा विद्याओं को क्रमश: निम्न श्रेणी और उच्च श्रेणी का मान लिया जाता है।
यद्यपि इस मान्यता को पूरी तरह अस्वीकृत नहीं किया जा सकता, फिर भी यह दोनों मिल कर ही शिक्षा को सर्वांगीण बनाते है; एक के बिना दूसरी अधूरी, अपर्याप्त है। मुण्डक उपनिषद् के एक प्रसंग
ग में जहाँ दोनों के अन्तर को स्पष्ट किया गया है, वहीँ दोनों को ही ‘जानने योग्य’ बताया गया है:
“द्वे विद्ये वेदितव्ये ….परा चैवापरा च …. तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदो:
अथर्ववेद: शिक्षाकल्पोव्याकरण निरुक्त छन्दो ज्योतिषमिति, अथ परा यया तदक्षरं अधिगम्यते”।।
अर्थात् दो विद्याएं जानने योग्य हैं। परा और अपरा। इनमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष अपरा विद्या हैं। और परा वह है जिसके द्वारा अविनाशी तत्व का बोध होता है”। दूसरे शब्दों में, अपरा विद्या भौतिक-विद्या है और परा विद्या अध्यात्म-विद्या।
गीता में इसी भौतिक-विद्या को ‘क्षेत्र-ज्ञान’ और अध्यात्म-विद्या को ‘क्षेत्रज्ञ-ज्ञान’ कहा गया और श्रीकृष्ण कहते हैं कि दोनों का ज्ञान ही पूर्ण ज्ञान है – ‘क्षेत्र क्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम’।
1. उपनिषद् के उपरोक्त मंत्रों की व्याख्या करते हुए डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने अपरा विद्या के संबंध में कहा है कि वह भी एक विद्या है, भ्रम अथवा मिथ्याज्ञान नहीं। इसके द्वारा भी परमात्मा तत्व को जानने में आंशिक रूप से सहायता मिलती है।
2. ऐसी ही समन्वित-एकीकृत-शिक्षा पर स्वामी जी बल देते हैं। वे अध्यात्म-ज्ञान के साथ भौतिक, व्यावहारिक, ज्ञान को भी आवश्यक मानते हैं। स्वामी जी चाहते थे कि वे अपने देश में संन्यासियों का एक ऐसा संगठन खड़ा करें जो वहां के लोगों को औद्योगिक-शिक्षा का लाभ प्रदान कर सके ताकि देशवासियों की वर्तमान अवस्था में सुधार हो सके।
3.ईसाई मिशनरियों के भारत में धर्म प्रचार के संबंध में उन्होंने कहा था, “अच्छा हो यदि अमेरिका के लोग भारत में धार्मिक-प्रशिक्षण देने के लिए मिशनरी भेजने के स्थान पर किसी ऐसे व्यक्ति को भेजें जो उन्हें औद्योगिक शिक्षा दे सके”।
4. वे रामकृष्ण-मठ के ही एक भाग में आधुनिक शिक्षा का एक ऐसा केंद्र स्थापित करना चाहते थे जिसमें व्याकरण, दर्शन-शास्त्र, विज्ञान, साहित्य अलंकार-शास्त्र, श्रुतियों, भक्ति-शास्त्र तथा अंग्रेजी शिक्षा दी जा सके ताकि पाठ्यक्रम की समाप्ति पर छात्र चाहें तो अपने घर लौटकर गृहस्थ जीवन व्यतीत कर सके और चाहें तो मठ के सम्मानित संन्यासियों की अनुमति से संन्यास जीवन अपना सके।
विवेकानंद का स्वतंत्रता और कर्म दर्शन
मानव का वास्तविक स्वभाव स्वतंत्रता है यही आत्मा के सार का निर्माण करती है यह कहना कि स्वतंत्रता का संबंध आत्मा से है उचित नहीं है क्योंकि आत्मा स्वयं स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता का अर्थ सभी प्रकार के नियंत्रण कार्य तत्वों का अभाव नहीं है यह अर्थ पूरी तरह निर्धारण नहीं है बल्कि इसका अर्थ आत्म नियंत्रण है जिसमें स्वतंत्र करता किसी अन्य चीज से नहीं बल्कि स्वयं से ही नियंत्रित होता है।
इस प्रकार स्वतंत्रता और कर एक दूसरे से असंगत नहीं हैं कर मनुष्य के स्वभाव को निर्धारित करता है परंतु यह मनुष्य का कर्म है व्यक्ति के अपने कर्म भी भविष्य के फल की भूमिका तैयार करते हैं दूसरी और कर्म मानव स्वतंत्रता का विरोधी नहीं है ऐसा इसलिए है क्योंकि व्यक्ति के अपने कर्म ही अंततः फलित होते हैं अपने अच्छे कर्मों से व्यक्ति अपने अज्ञान और दुःख पर विजय पा सकता है यह दर्शाता है कि मनुष्य मूलतः स्वतंत्र है।
स्वामी विवेकानंद काअमरता दर्शन
विवेकानंद यह मानते हैं कि आत्मा की अमरता का यथार्थ और वैज्ञानिक विवरण दे पाना संभव नहीं है। तथापि इस अवधारणा को एक ब्राह्मण कर इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती क्योंकि कोई भी अवधारणा पीढ़ी दर पीढ़ी भ्रमित नहीं कर सकती।
वास्तव में आत्मा मृत्यु की अवस्थिति है यह अवस्थी पुनर्जन्म और अंत है अमरता की अनुभूति का रूप धारण करती है वास्तविक अमरता तभी प्राप्त हो सकती है जबकि जन्म और पुनर्जन्म का चक्र समाप्त हो जाए अमरता के लिए कुछ तर्क इस प्रकार हैं :-
1. आत्मा की सरलता :- आत्मा अमर है क्योंकि वह सरल है सरलता जटिलता का अभाव है जो नाशवान है वह निश्चित ही कुछ जटिल होता है।
2. अनंत शक्ति :- मानव में अनंत क्षमता है मनुष्य में सामने आने वाली प्रत्येक घटना के परे जाने की क्षमता विद्यमान है |
3. मोक्ष की उत्कंठा :- हमारी मृत्यु से मोक्ष की इच्छा अमरता का एक प्रतीक है क्योंकि हमारी वास्तविक इच्छाओं का एक वास्तविक विषय होता है यह दर्शाता है कि अमरता के लिए हमारी इच्छा ही अमरता का प्रमाण है।
स्वामी विवेकानंद का मोक्ष और उसके साधन
हिंदुत्व की महत्वपूर्ण अवधारणाओं में से एक मुक्ति यानी मोक्ष की अवधारणा है योगाभ्यास से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है अनेक लोगों में से विवेकानंद ने यह चार योग बताए हैं कर्म योग, भक्ति योग, ज्ञान योग, और राजयोग
1. कर्म योग :- कर्म किसी के दबाव में आकर नहीं किया जाता बल्कि कर्तव्य की भावना से किया जाता है एक कर्म योगी एक स्वतंत्र कर्ता के रूप में सभी स्वार्थों से रहित होकर काम करता है। ऐसा कार्य ज्ञान की ओर ले जाता है जिससे मोक्ष प्राप्त होता है।
2. भक्ति योग :- प्रेम मैं ईश्वर के लिए की गई एक वास्तविक खोज है इसमें ईश्वर प्रेम बढ़ता है और परा भक्ति या सर्वोच्च व्यक्ति का रूप ग्रहण करता है जिसमें सभी स्वरूप और धार्मिक क्रियाकलाप समाप्त हो जाते हैं भक्ति योग में व्यक्ति अपनी भावनाओं और इच्छाओं पर नियंत्रण करता है। और आत्मा को ईश्वर की ओर ले जाने वाले मार्ग पर निरंतर आगे की ओर लेकर जाता है।
3. ज्ञान योग
ज्ञान योग तत्व मीमांसा के अर्थ को व्याख्यायित करता है और मनुष्य को यह बताता है कि वह वस्तुतः देवीय है ज्ञान योग में शरीर की सारी शक्ति ज्ञान की दिशा में लगाई जा सकती हैं। धीरे-धीरे यह ध्यान और प्रगाढ़ बन जाता है और व्यक्ति पूर्ण ध्यान अथवा समाधि की दशा को प्राप्त कर सकता है। इस अवस्था में आत्मा और ब्रह्म के बीच का भेद समाप्त हो जाता है यही पूर्ण एकता की अवस्था है।
4. राज योग :- राजयोग निम्न आत्मन की उच्च आत्मन से होने वाले रहस्य आत्मक एकता को अनुभव करने की एक विधि है। यह मन की गतिविधियों को रोकता है और मन की गतिविधियों के रुकने से ही लगा और बंधन समाप्त हो जाते हैं यह क्वेश्चन निश्चित परा सामान्य शक्तियों को उत्पन्न करता है जिसकी मोक्ष प्राप्त करने के लिए इच्छुक से उपेक्षा करनी चाहिए।
स्वामी विवेकानंद का शिकागो भाषण एवं यात्राएँ:
स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण मठ, रामकृष्ण मिशन और वेदांत सोसाइटी की नींव रखी। उन्होंने 31 मई 1893 में अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्मसम्मेलन में भारत की और से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था।
उस समय वहा पर कई धर्मो की धार्मिक पुस्तकें एक के ऊपर एक रखी हुई थी और उनमे सबसे नीचे भागवत गीता रखी हुई थी। ये देखकर सभा में मौजूद कुछ लोग हिन्दू धर्म का मजाक बनाने लगे और हिन्दू धर्म ग्रंथों को तुच्छ कहने लगे।
तो स्वामी विवेकानंद ने यह कहकर सबका मुँह बंद कर दिया कि “जिसे आप सब तुच्छ समझ रहे है असल में उसमें इतनी ताकत कि वो अकेला ग्रन्थ इन सभी धर्म ग्रंथो का बोझ उठाने की क्षमता रखता है।”
उस समय पश्चिमी सभ्यता के लोग भारत जैसे औपनिवेशिक (पराधीन) देशों को हेय दृष्टि से देखते थे। इसलिए ज्यादातर लोगो की कोशिश थी स्वामी विवेकानंद को उस धर्म सम्मेलन में बोलने का मौका ही न मिले।
परन्तु एक अमरीकी प्रोफेसर की मदद से उन्हें धर्मसभा में बोलने का मौका मिल गया परन्तु वहां उन्हें सिर्फ दो मिनट ही बोलने का मौका दिया गया था और तब उन्होंने अपने उस ऐतिहासिक भाषण की शुरुआत “मेरे अमरीकी भाइयों और बहनों“ सम्बोधन के साथ शुरू की।
उनके इस उद्बोधन ने वहा उपस्थित सभी लोगो का दिल जीत लिया था और इसके बाद अमरीका में उनका जोरदार स्वागत किया गया। उस भाषण से उन्हें पूरी दुनिया में काफी प्रसिद्धि मिली और वहाँ उनके भक्तों का एक बहुत बड़ा समुदाय बन गया।
स्वामी विवेकानंद ने 25 वर्ष की उम्र में ही गेरुआ वस्त्र धारण कर लिए थे और इसके बाद उन्होंने पैदल ही सम्पूर्ण भारत की यात्राएं की
गांधी, नेहरू पर प्रभाव: विवेकानंद ने आधुनिक भारत के निर्माताओं पर भी महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला जिन्होंने बाद में द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को चुनौती दी। इन नेताओं में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस शामिल थे।
महात्मा गांधी द्वारा सामाजिक रूप से शोषित लोगों को ‘हरिजन’ शब्द से संबोधित किये जाने के वर्षों पहले ही स्वामी विवेकानंद ने ‘दरिद्र नारायण’ शब्द का प्रयोग किया था जिसका आशय था कि ‘गरीबों की सेवा ही ईश्वर की सेवा है।‘ वस्तुतः महात्मा गांधी ने यह स्वीकार भी किया था कि भारत के प्रति उनका प्रेम विवेकानंद को पढ़ने के बाद हज़ार गुना बढ़ गया। स्वामी विवेकानंद के इन्हीं नवीन विचारों और प्रेरक आह्वानों के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हुए उनके जन्मदिवस को ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ घोषित किया गया।
राष्ट्रवाद: आधुनिक काल में पश्चिमी विश्व में राष्ट्रवाद की अवधारणा का विकास हुआ लेकिन स्वामी विवेकानंद का राष्ट्रवाद प्रमुख रूप से भारतीय अध्यात्म एवं नैतिकता से संबद्ध है। भारतीय संस्कृति के प्रमुख घटक मानववाद एवं सार्वभौमिकतावाद विवेकानंद के राष्ट्रवाद की आधारशिला माने जा सकते हैं।
पश्चिमी राष्ट्रवाद के विपरीत विवेकानंद का राष्ट्रवाद भारतीय धर्म पर आधारित है जो भारतीय लोगों का जीवन रस है। उनके लेखों और उद्धरणों से यह इंगित होता है कि भारत माता एकमात्र देवी हैं जिनकी प्रार्थना देश के सभी लोगों को सहृदय से करनी चाहिये।
युवाओं के लिये प्रेरणा: स्वामी विवेकानंद का मानना है कि किसी भी राष्ट्र का युवा जागरूक और अपने उद्देश्य के प्रति समर्पित हो, तो वह देश किसी भी लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। युवाओं को सफलता के लिये समर्पण भाव को बढ़ाना होगा तथा भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिये तैयार रहना होगा, विवेकानंद युवाओं को आध्यात्मिक बल के साथ-साथ शारीरिक बल में वृद्धि करने के लिये भी प्रेरित करते हैं।
युवाओं के लिये प्रेरणास्रोत के रूप में विवेकानंद के जन्मदिवस, 12 जनवरी को भारत में राष्ट्रीय युवा दिवस तथा राष्ट्रीय युवा सप्ताह मनाया जाता है। राष्ट्रीय युवा सप्ताह के एक हिस्से के रूप में भारत सरकार प्रत्येक वर्ष राष्ट्रीय युवा महोत्सव का आयोजन करती है और इस महोत्सव का उद्देश्य राष्ट्रीय एकीकरण, सांप्रदायिक सौहार्द्र तथा भाईचारे में वृद्धि करना है।
Q.स्वामी विवेकानंद कौन सा ध्यान करते थे?
प्रस्तावना श्रीरामकृष्ण के शब्दों में स्वामी विवेकानन्द ‘ध्यानसिद्ध’ थे। इन ‘ध्यानसिद्ध’ महर्षि की गहन आध्यात्मिकता आध्यात्मिक अनुभूतियों के स्वयं उन्हीं के द्वारा किये गये विशद वर्णन के आधार पर ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ नामक यह पुस्तक पाठकों को प्रस्तुत करते हमें प्रसन्नता हो रही है।
Q.स्वामी विवेकानंद पहली बार श्री रामकृष्ण परमहंस से कब मिले?
नवंबर 1881 में आया ऐतिहासिक दिवस
नवंबर 1881 में आखिरकार वो दिन भी आया जब धरती पर उतरे इन दोनों देवदूतों की मुलाकात हुई. सुरेन्द्रनाथ मित्रा के घर जब रामकृष्ण परमहंस आए तो भजन गाने के लिए विवेकानंद को बुलाया गया.
Q.स्वामी विवेकानंद ने कृष्ण मिशन की स्थापना कब की?
रामकृष्ण मिशन की स्थापना १ मई सन् १८९७ को रामकृष्ण परमहंस के परम् शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने की। इसका मुख्यालय कोलकाता के निकट बेलुड़ में है। इस मिशन की स्थापना के केंद्र में वेदान्त दर्शन का प्रचार-प्रसार है। रामकृष्ण मिशन दूसरों की सेवा और परोपकार को कर्म योग मानता है जो कि हिन्दू धर्म का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है।
Q स्वामी विवेकानंद ने किसकी स्थापना की?
स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण मठ, रामकृष्ण मिशन और वेदांत सोसाइटी की नींव रखी. 1893 में अमेरिका के शिकागो में हुए विश्व धार्मिक सम्मेलन में उन्होंने भारत और हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व किया था.
Q.स्वामी विवेकानंद का बचपन का नाम क्या था?
भारत को आध्यात्म से जोड़ने वाले महापुरुष स्वामी विवेकानंद जी का जन्म आज ही के दिन 12 जनवरी सन् 1863 को कोलकाता में हुआ था. उनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था और उनके पिता पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे.
निष्कर्ष
स्वामी विवेकानंद का जन्म 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुआ लेकिन उनके विचार और जीवन दर्शन आज के दौर में अत्यधिक प्रासंगिक हैं। विवेकानंद जैसे महापुरुष मृत्यु के बाद भी जीवित रहते हैं और अमर हो जाते हैं तथा सदियों तक अपने विचारों और शिक्षा से लोगों को प्रेरित करते रहते हैं।
मौजूदा समय में विश्व संरक्षणवाद एवं कट्टरवाद की ओर बढ़ रहा है जिससे भारत भी अछूता नहीं है, विवेकानंद का राष्ट्रवाद न सिर्फ अंतर्राष्ट्रीयवाद बल्कि मानववाद की भी प्रेरणा देता है। इसके साथ ही विवेकानंद की धर्म की अवधारणा लोगों को जोड़ने के लिये अत्यंत उपयोगी है,
क्योंकि यह अवधारणा भारतीय संस्कृति के प्राण तत्त्व सर्वधर्म समभाव पर ज़ोर देती है। यदि विश्व सर्वधर्म समभाव का अनुकरण करे तो विश्व की दो-तिहाई समस्याओं और हिंसा को रोका जा सकता है।
भारत की एक बड़ी संख्या अभी भी गरीबी में जीवन जीने के लिये मजबूर है तथा वंचित समुदायों की समस्याएँ अभी भी वैसी ही बनी हुई हैं यदि विवेकानंद की दरिद्रनारायण की संकल्पना को साकार किया जाए तो असमानता, गरीबी, गैर-बराबरी, अस्पृश्यता आदि से बिना बल प्रयोग किये ही निपटा जा सकता है तथा एक आदर्श समाज की संकल्पना को साकार किया जा सकता है।
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