राजस्थान के इतिहास – सिक्के
भारतीय इतिहास सिंधु घाटी सभ्यता और वैदिक सभ्यता में सिक्कों का व्यापार वस्तु विनिमय पर आधारित था। भारत में सर्वप्रथम सिक्कों का प्रचलन 2500 वर्ष पूर्व हुआ। यह मुद्राएं खुदाई के दौरान खंडित अवस्था में प्राप्त हुई है। अतः इन्हें आहत मुद्राएं कहा जाता है। इन पर विशेष चिन्ह बने हुए हैं। अतः इन्हें पंचमार्क_सिक्के भी कहते हैं।
प्राचीन इतिहास लेखन में मुद्राओं या सिक्कों से बड़ी सहायता मिली है यह सोने चांदी तांबे और मिश्रित धातुओं के हैं इन पर अनेक प्रकार के चिन्ह-त्रिशूल हाथी, घोड़े, चँवर, वृष -देवी देवताओं की आकृति सूर्य चंद्र नक्षत्र आदि खुले रहते हैं तिथि- कर्म शिल्प कौशल, आर्थिक स्थिति, राजाओं के नाम तथा उनकी धार्मिक अभिरुचि आदि पर प्रकाश डालते हैं। सिक्कों की उपलब्धता राज्य की सीमा निर्धारित करती हैं राजस्थान के विभिन्न भागों में मालव, शिवि, यौधेय,आदि जनपदों के सिक्के मिलते हैं
चांदी के प्राचीनतम सिक्कों को पंचमार्क या आहत_सिक्के कहा जाता है जेम्स प्रिंसेप ने इन सिक्कों को पंच मार्क कहा इन सिक्कों के लिए चांदी अथवा तांबे का इस्तेमाल होता है स्वर्ण के पंचमार्क सिक्के अभी तक नहीं मिले हैं
राजस्थान में रेढ के उत्खनन से 3075 चाँदी के पंच मार्क_सिक्के मिले यह सिक्के भारत के प्राचीनतम_सिक्के इन पर विशेष प्रकार के चिन्ह टंकित हैं और कोई लेख नहीं, 10वीं और 11वीं शताब्दी में प्रचलिंत सिक्को पर गधे के समान आकृति का अंकन मिलता हैं इन्हें गधिया_सिक्के कहा जाता है मुगल शासन काल में जयपुर में जयपुर में झाडशाही, जोधपुर में विजयशाही सिक्कों का प्रचलन हुआ ब्रिटिश शासनकाल में अंग्रेजों ने अपने शासन के नाम से चांदी के सिक्के ढलवाए
सबसे पुराने लेख वाले सिक्के संभवतः विक्रम संवत् पूर्व की तीसरी शताब्दी के हैं। इस प्रकार के सिक्के भी मध्यमिका से ही प्राप्त हुए हैं। यहीं से यूनानी राजा मिनेंडर के द्रम्म_सिक्के भी मिले हैं। हूणों द्वारा प्रचलित किये गये चाँदी और ताँबे के ‘गधिये’ सिक्के आहाड़ आदि कई स्थानों में पाये जाते हैं।
राजा गुहिल के चाँदी के सिक्कों का एक बड़ा संग्रह आगरा से प्राप्त हुआ है। इन सिक्कों पर ‘गुहिलपति’ लिखा हुआ है, जिससे यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि यह किस गुहिल राजा के सिक्के हैं। शील (शीलादित्य) का एक ताँबे का सिक्का तथा उसके उत्तराधिकारी बापा (कालाभोज) की सोने की मोहरें मिली हैं।
खुम्मान प्रथम तथा महाराणा मोकल तक के राजाओं का कोई सिक्का प्राप्त नहीं हो पाया है। महाराणा कुंभा के तीन प्रकार के ताँबे के सिक्के पाये गये हैं। उनके चाँदी के_सिक्के भी चलते थे।
सिक्कों के अध्ययन को न्यूमिस्मेटिक्स (मुद्राशास्त्र )कहते हैं। फदिया_सिक्के चौहानों के हास काल से लेकर 1540 ईसवी तक चलने वाली राजस्थान कि स्वतंत्र मुद्रा शैली, मेवाड़ में उदयपुरी, भिलाड़ी, चितोड़ी, एवं एलची तथा जोधपुर में विजशाही मुगल प्रभाव वाले सिक्के प्रचलित थे।
टकसालों की स्थापना
जब महाराणा अमरसिंह प्रथम ने बादशाह जहाँगीर के साथ सन्धि कर ली, तब मेवाड़ के टकसाल बंद करा दिये गये। मुग़ल बादशाहों के अधीनस्थ राज्यों में उन्हीं के द्वारा चलाया गया सिक्का चलाने का प्रचलन था। उसी प्रकार जब बादशाह अकबर ने चित्तौड़ पर कब्जा किया, तब यहाँ अपने नाम से ही _सिक्के चलवाए व आवश्यकतानुसार टकसालें भी खोलीं। इस प्रकार जहाँगीर तथा उसके बाद के शासकों के समय बाहरी टकसालों से बने हुए उन्हीं के _सिक्के यहाँ चलते रहे। इन सिक्कों का नाम पुराने बहीखातों में ‘सिक्का एलची’ मिलता है
मुहम्मदशाह और उनके बाद वाले बादशाहों के समय में राजपूताना के भिन्न-भिन्न राज्यों ने बादशाह के नाम वाले सिक्कों के लिए शाही आज्ञा से अपने-अपने यहाँ टकसालें स्थापित कीं।
विभिन्न प्रकार के सिक्के ( Different types of coins )
मेवाड़ में भी चित्तौड़, भीलवाड़ा तथा उदयपुर में टकसालों की स्थापना हुई। इन टकसालों में बने _सिक्के क्रमशः चित्तौड़ी, भीलवाड़ी तथा उदयपुरी कहलाते थे। इन सिक्कों पर बादशाह शाहआलम द्वितीय का लेख होता था। इन रुपयों का चलन होने पर धीरे-धीरे एलची_सिक्के बंद होते गये और पहले के लेन-देन में तीन एलची सिक्कों के बदले चार चित्तोड़ी, उदयपुरी आदि सिक्के दिये जाने का प्रावधान किया गया।
ब्रिटिश सरकार के साथ अहदनामा होने के कारण महाराणा स्वरूप सिंह ने अपने नाम का रुपया चलाया, जिसको ‘सरुपसाही’ कहा जाता था। इन सिक्कों पर देवनागरी लिपि में एक तरफ़ ‘चित्रकूट उदयपुर’ तथा दूसरी तरफ़ ‘दोस्ति लंघन’ अर्थात ‘ब्रिटिश सरकार से मित्रता’, लिखा होता था। सरुपसाही सिक्कों में अठन्नी, चवन्नी, दुअन्नी व अन्नी भी बनती थी।
महाराणा भीम सिंह ने अपनी बहन चंद्रकुंवर बाई के स्मरण में ‘चांदोड़ी’_सिक्के चलवाये थे, जो रुपया, अठन्नी व चवन्नी में आते थे। पहले तो उन पर फ़ारसी भाषा के अक्षर थे, लेकिन बाद में महाराणा ने उन पर बेल-बूटों के चिह्न बनवाये। ये सिक्के अभी तक दान-पुण्य या विवाह आदि के अवसर पर देने के काम में आते हैं।
इनके अतिरिक्त भी मेवाड़ में कई अन्य तरह के ताँबे के _सिक्के प्रचलन में रहे थे, जिसमें उदयपुरी (ढ़ीगला), त्रिशूलिया, भींडरिया, नाथद्वारिया आदि प्रसिद्ध हैं। ये सभी भिन्न-भिन्न तोल और मोटाई के होते थे। उन पर त्रिशूल, वृक्ष आदि के चिह्न या अस्पष्ट फ़ारसी अक्षर बने भी दिखाई देते हैं।
राजस्थान में विभिन्न रियासतों में प्रचलित
राजपूताना में प्रचलित सिक्कों की विस्तृत अध्ययन हेतु 1893 विलियम विल्फ्रेड द्वारा द करेंसी ऑफ द हिंदू स्टेट्स ऑफ राजस्थान पुस्तक की।
- गधिया:- राजपूताना क्षेत्र में 10-11 वीं शताब्दी में प्रचलित_सिक्के
- गधे के विशेष चिन्ह- चाँदी के सिक्के।(गुर्जर-प्रतिहार क्षेत्र में प्रचलित।)
- अलवर- रावशाही,अखैशाही
- कोटा – मदनशाही,गुमानशाही
- जयपुर – झाड़शाही,मोहम्मदशाही
- जैसलमेर – अखैशाही,डोडिया,मुहम्मदशाही
- जोधपुर – विजयशाही,भीमशाही,तख्तशाही
- झालावाड- मदनशाही
- धौलपुर- तमंचाशाही
- प्रतापगढ़ – सालिमशाही
- बाँसवाड़ा – लक्ष्मणशाही,सालिमशाही
- बीकानेर – गजशाही,आलमशाही
- बूँदी- रामशाही,चेहराशाही,पुराना रूपया,ग्यारह सनातन
- मेवाड़- चाँदोड़ी,ढींगाल,स्वरूपशाही,शाहआलमी
- भरतपुर – शाह आलमी
- करौली – माणकशाही
सीकर के गुरारा से लगभग 2744 सिक्के प्राप्त हुए हैं इनमें लगभग 61 सीको पर मानव आकृतियां निर्मित है भारत में लेख वाले_सिक्के हिंद यवन शासको ने चलाएं आहड के _सिक्के 6 तांबे के सिक्के प्राप्त हुए हैं जिनमें से एक चौकोर है 5 गोल है यहां से कुछ सिले भी प्राप्त हुई है
टोंक के सिक्के यहां पर 3075 चांदी के पंच मार्कसिक्के मिले हैं का वजन 32 रत्ती है मालवगढ़ के सिक्के इन सिक्कों पर मालवाना अंकित है योद्धासिक्के राजस्थान के उत्तर पश्चिमी भाग में मिले हैं इन पर यौध्दैयाना वहुधाना अंकित है नगर मुद्राएं टोंक जिले में उनियारा के निकट नगर अथवा कर कोर्ट नगर में लगभग 6000 तांबे के सिक्के प्राप्त हुए हैं इन पर मालव सरदारों के नाम उत्कीर्ण है
रंगमहल सभ्यता के सिक्के हनुमानगढ़ जिले में स्थित सभ्यता से लगभग 105 सिक्के मिले हैं (मुरन्डा ) बैराठ सभ्यता के _सिक्के जयपुर में स्थित बैराठ से कुल 36 सिक्के प्राप्त हुए हैं यह संभव है शासक मिनेंडर के हैं
सांभर से प्राप्त सिक्के सांभर से लगभग 200 मुद्राएं प्राप्त हुई है 6 मुद्रा चांदी की पंच मार्क है 6 तांबे की है गुप्तकालीन सिक्के राजस्थान में गुप्त कालीन सर्वाधिक सिक्के भरतपुर के बयाना के पास नगला खेल गांव से मिले हैं जिनकी संख्या लगभग 1800 है यह संभव है चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के हैं
गुर्जर प्रतिहारों के सिक्के इन पर महा आदिवराह उत्कीर्ण है चौहान शासकों के सिक्के इन्हें दिनार या रूपक कहा जाता था अजय राज की रानी सोमलेखा द्वारा चांदी के सिक्के चलाए गए
मेवाड़ के सिक्के मेवाड़ के सिक्कों को रूपक और तांबे के कर्सापण कहलाते थे मेवाड़ क्षेत्र में सर्वाधिक गधिया मुद्राएं चलती थी गधे का प्रतिबिंब उत्कीर्ण था मुगल साम्राज्य मध्ययुग में अकबर ने राजस्थान में “सिक्का ए एलची” जारी किया। अकबर के आमेर से अच्छे संबंध थे। अतः वहां सर्वप्रथम टकसाल खोलने की अनुमति प्रदान की गई।
स्वरूप सिंह ने स्वरुप शाही सिक्के चलाए जिसके एक और चित्रकूट और दूसरी और दोस्ती लंगना अंकित था मारवाड़ के सिक्के इन्हें पंच मार्कंड आ जाता है इनको आगे चलकर गदिया मुद्रा कहा गया अंग्रेजो के समय जारी मुद्राओ में कलदार (चांदी) सर्वाधिक प्रसिद्ध है।
राजस्थान की रियासतों ने निम्नलिखित सिक्के जारी किए -:
- आमिर रियासत- कछवाह वंश -झाड़ शाही सिक्के
- मेवाड़ रियासत- सिसोदिया वंश -चांदौड़ी (स्वर्ण) सिक्के
- मारवाड़ सियासत- राठौड़ वंश – विजय शाही सिक्के
- मारवाड़(गजसिंह) राठौड़- राठौड़ वंश – गदिया/फदिया सिक्के
गुप्तकालीन सिक्के ( Guptakalin Coins) :-
राजस्थान मे बुन्दावली का टीबा(जयपुर), बयाना( भरतपुर), ग्राम-मोरोली (जयपुर), नलियासर (सांभर), रैढ.(टोंक), अहेडा.(अजमेर) तथा सायला (सुखपुरा), देवली (टोंक) से गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्राएं मिली हैं 1948 ई.मे बयाना (भरतपुर) से गुप्त शासकों की सवधिक ‘स्वर्ण मुद्राएं मिली है जिनकी संख्या लगभग 2000 (1921) हैं गोपीनाथ शर्मा के अनुसार इन सिक्कों की संख्या 1800 है । जिनमें चन्द्रगुप्त प्रथम के 10, समुदृगुप्त के 173, काचगुप्त के 15, चन्द्रगुप्त द्वितीय के 961, कुमारगुप्त प्रथम के 623 तथा स्कन्दगुप्त का 1 सिक्का एवं 5 खंडित सिक्के मिले है। इनमे सवाधिक सिक्के चन्द्रगुप्त द्रितीय विक्रमादित्य के हैं।
ग्राम सायला से मिली 13 स्वर्ण मुद्राएं समुद्रगुप्त (350 से 375)ई. की है।ये सिक्के ध्वज शैली के हैं।इनके अग्रभाग पर समुद्रगुप्त बायें हाथ मे ध्वज लिए खडा़ हैं।राजा के बायें हाथ के नीचे लम्बवत् ‘ समुद्र’ अथवा ‘ समुद्रगुप्त’ ब्राह्मी लिपी मे खुदा हुआ हैं।सिक्के के अग्रभाग पर ही ‘समर- शतवितत विजयो जित – रिपुरजितों दिवं जयति’ (सवँत्र विजयी राजा जिसने सैकड़ों युद्धों मे सफलता प्राप्त की और शत्रु को पराजित किया, स्वर्ग श्री प्राप्त करता हैं) ब्राह्मी लिपि मे अंकित हैं। इनके पृष्ठ भाग पर सिंहासनासीन लक्ष्मी का चित्र हैं।इसी प्रकार की ‘ध्वज शैली’ के सिक्के यहां से काचगुप्त के भी मिले हैं।
चन्द्रगुप्त द्रितीय व्रिकमादित्य के ‘छत्रशैली’ के स्वणँ सिक्कों के अग्रभाग मे आहुति देता हुआ राजा खडा़ हैं।उसके बायें हाथ मे तलवार की मूंठ हैं।राजा के पीछे एक बोना सेवक राजा के सिर पर छत्र लिए हुए खडा़ हैं।व्रिकमादित्य के यहां से ‘धनुर्धर शैली’ प्रकार के भी सिक्के मिले हैं इन सिक्कों से यह प्रमाणित होता हैं कि टोंक क्षेत्र के आस- पास का क्षेत्र भी गुप्त साम्राज्य का एक अविभाज्य अंग रहा हैं।
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