पाषाण काल से राजपूतों की उत्पत्ति तक का इतिहास
पुरातात्त्विक संस्कृतियां Archaeological cultures
इतिहास को प्रागैतिहासिक काल, आद्दंऐतिहास काल एवं ऐतिहासिक काल मे बांटा जाता हैं प्रागैतिहासिक काल से तात्पर्य हैं कि उस समय के मानव के इतिहास के बारे मे कोई लिखित सामग्री नहीं मिली बल्कि पुरातात्विक सामग्रियों के आधार पर ही उसके इतिहास (संस्कृति) के बारे मे अनुमान लगाया जाता हैं
पाषाण काल से
एसी सभ्यता एवं संस्कृतियों को पुरातात्विक सभ्यता/संस्कृति या प्रागैतिहासिक काल कहते हैं जब मानव लेखन कला से तो परिचित हो गया लेकिन उसे अभी तक पढा़ नही जा सका हैं, तो उसे आद्दंऐतिहासिक कालीन सभ्यता/संस्कृति कहते हैं, जैसे- सिन्धुघाटी सभ्यता।
जब से मानव के बारे मे पठन योग्य (लिखित) सामग्री मिलना शुरू हो जाती हैं तो उसे ऐतिहासिक काल कहते हैं, जैसे- वैदिक काल। यहां हम इन तीनों कालो का राजस्थान के सन्दर्भ मे अध्ययन था
पुरापाषाण काल ( Palaeolithic Period )
राजस्थान में पाषाण युग के ‘आदि मानव’ द्वारा प्रयुक्त डेढ़ लाख वर्ष पूर्व के पाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं। अनुसन्धान से राजस्थान में पाषाणकालीन तीन प्रकार की संस्कृतियाँ थी-
- प्रारंभिक पाषाण काल ( Early stone age )
- मध्य पाषाण काल ( Middle Stone Age )
- उत्तर पाषाण काल ( Paleolithic )
प्रारंभिक पाषाण काल ( Early stone age ) –
इसका काल आज से लगभग 1.5 लाख से 50000 वर्ष पूर्व तक का माना जाता है। यह राजस्थान में मानव संस्कृति का वह उषाकाल था जिसमें संस्कृति के सूर्य का उदय प्रारंभ हुआ था। अनुसन्धान से पता चलता है कि इस समय का मानव यायावर था।
उसके भोज्य पदार्थ के रूप में जंगली कंद-मूल फल तथा हिरन, शूकर, भेड़, बकरी आदि पशु थे। इस युग के उपकरणों की सर्वप्रथम खोज आज से लगभग 95 वर्ष पूर्व श्री सी. ए. हैकर ने जयपुर व इन्दरगढ़में की थी। उन्होंने वहां अश्म पत्थर से निर्मित हस्त-कुल्हाड़ी (हैण्ड एक्स) खोजे थे जो कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में उपलब्ध है।
इसके कुछ ही समय के उपरांत श्री सेटनकार को झालावाड जिले में इस काल के कुछ और उपकरण प्राप्त हुए थे। इसके बाद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग, नई दिल्ली, डेक्कन कॉलेज पूना तथा राजस्थान के पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग द्वारा प्रारंभिक पाषाण काल के सम्बन्ध में अनुसन्धान कार्य किये हैं।
इन अनुसंधानों से प्रारंभिक पाषाण काल के मानव द्वारा प्रयुक्त ‘हस्त-कुल्हाड़ी (हैण्ड एक्स), क्लीवर तथा चौपर’ नाम के उपकरणों के बारे में पता चलता है।
हस्त-कुल्हाड़ी ( Hand Axe )- यह 10 सेमी से 20 सेमी तक लंबा, नोकदार, एक ओर गोल व चौड़ा तथा दूसरी ओर नुकीला व तेज किनारे वाला औजार होता है। इसका उपयोग जमीन से खोद कर कंद-मूल निकालने, शिकार को काटने तथा खाल उतारने के लिए होता था।
क्लीवर ( Cleaver )– यह एक आयताकार औजार होता है जो लगभग 10 सेमी से 20 सेमी तक लंबा तथा 5 से 10 सेमी चौड़ा होता है। इसका एक किनारा कुल्हाड़ी की भांति सीधा व तेज धारदार होता है तथा दूसरा किनारा गोल, सीधा व त्रिकोण होता है।
चौपर – यह एक गोल औजार होता है जिसके एक ओर अर्धचंद्राकार धार होती है तथा इसका दूसरा किनारा मोटा व गोल होता है जो हाथ में पकड़ने के लिए प्रयुक्त होता है।
प्रसार- प्रारंभिक पाषाण काल की संस्कृति का प्रसार राजस्थान की अनेक प्रमुख व सहायक नदियों के किनारों पर अजमेर, अलवर, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़, जयपुर, झालावाड़, जोधपुर, जालौर, पाली, टौंक आदि स्थानों पर होने के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
इसका विशेषतः प्रसार चम्बल तथा बनास नदी के किनारे अधिक हुआ था। चित्तौड़ क्षेत्र में इतनी अधिक मात्रा में प्रारंभिक पाषाण काल के औजार मिले है जिनसे अनुमान लगता है कि उस युग में यहाँ पाषाण हथियारों का कोई कारखाना रहा होगा।
पूर्वी राजस्थान में भानगढ़ तथा ढिगारिया और विराटनगर में ‘हैण्ड-एक्स संस्कृति’ का पता चलता है। पश्चिमी राजस्थान में लूनी नदी के किनारे तथा जालौर जिले में रेत के टीलों में पाषाणकालीन उपकरणों की खोज हुई है।
विराटनगर में कुछ प्राकृतिक गुफाओं तथा शैलाश्रय की खोज हुई है जिनमें प्रारंभिक पाषाण काल से ले कर उत्तर पाषाण काल तक की सामग्री प्राप्त हुई है। इनमें चित्रों का अभाव है किन्तु भरतपुर जिले के ‘दर’ नामक स्थान से कुछ चित्रित शैलाश्रय खोजे गए हैं जिनमें मानवाकृति, व्याघ्र, बारहसिंघा तथा सूर्य आदि के चित्रांकन प्रमुख है।
मध्य पाषाण काल ( Middle Stone Age )
राजस्थान में मध्य पाषाण युग का प्रारंभ लगभग 50000 वर्ष पूर्व होना माना जाता है। यह संस्कृति प्रारंभिक पाषाण काल की संस्कृति से कुछ अधिक विकसित थी किन्तु इस समय तक मानव को न तो पशुपालन का ज्ञान था और न ही खेती बाड़ी का, इसलिए यह कहा जा सकता है कि यह संस्कृति संगठित सामाजिक जीवन से अभी भी दूर थी।
इस काल में छोटे, हलके तथा कुशलतापूर्वक बनाये गए उपकरण प्राप्त हुए हैं, जिनमें ‘स्क्रेपर तथा पॉइंट’ विशेष उल्लेखनीय है। ये उपकरण नुकीले होते थे तथा तीर अथवा भाले की नोक का काम देते थे।
स्क्रेपर – यह 3 सेमी से 10 सेमी लम्बा आयताकार तथा गोल औजार होता है। इसके एक अथवा दोनों किनारों पर धार होती थी और एक किनारा पकड़ने के काम आता था।
पॉइंट- यह त्रिभुजाकार स्क्रेपर के बराबर लम्बा तथा चौड़ा उपकरण था जिसे ‘नोक’ या ‘अस्त्राग्र’ के नाम से भी जाना जाता था। ये उपकरण चित्तौड़ की बेड़च नदी की घाटियों में, लूनी व उसकी सहायक नदियों की घाटियों में तथा विराटनगर से भी प्राप्त हुए हैं।
उत्तर पाषाण काल ( Paleolithic )
राजस्थान में उत्तर पाषाण युग का सूत्रपात आज से लगभग 10000 वर्ष पूर्व हुआ था। इस युग में उपकरणों का आकार मध्य पाषाण काल के उपकरणों से भी छोटा तथा कौशल से भरपूर हो गया था। इस काल में उपकरणों को लकड़ी तथा हड्डियों की लम्बी नलियों में गोंद से चिपका कर प्रयोग किया जाना प्रारंभ हो गया था।
इस काल के उपकरण उदयपुर के बागोर तथा मारवाड़ के तिलवाड़ानामक स्थानों से उत्खनन में प्राप्त हुए हैं। उत्तर पाषाण काल के उपकरणों व अन्य जानकारी की दृष्टि से राजस्थान का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि भारत के अन्य क्षेत्रों से इतनी अधिक मात्रा उत्तर पाषाण कालीन उत्खनन नहीं हुआ है तथा उपकरण प्राप्त नहीं हुए हैं।
सिंधु सभ्यता का अवसान ( End of Indus Civilization )
कारण – विद्वान
- आर्यो का आक्रमण- मार्टिमर व्हीलर
- बाढ़- एम. आर. साहनी
- जलवायु परिवर्तन- ओरेल स्टीन, अमलानंद घोष
- पारिस्थितिकी असंतुलन- फेयर सर्विस
- प्रशासनिक शिथिलता- जॉन मार्शल
- प्राकृतिक आपदा- कैनेडी
- सिंधु नदी का मार्ग परिवर्तन- लैम्ब्रिक
प्राचीन सभ्यताए ( Ancient civilizations )
पाषाण स्थल ( Stone Age )
- बागौर-भीलवाड़ा
- बिलाड़ा-जोधपुर
- दर-भरतपुर
- जायल-नागौर
- ड़ीडवाना-नागौर
- तिपटिया-कोटा
- नगरी-चित्तौड़
- गरदड़ा-बूँदी
- डाडाथोरा-बीकानेर
- तिलवाड़ा-बाड़मेर
ताम्र पाषाण काल ( Copper stone age )
- आहड़-उदयपुर
- बालाथल-उदयपुर
- गणेश्वर-सीकर
- पूगल-बीकानेर
- कुराड़ा-नागौर
- गिलूंड-उदयपुर
- मलाह-भरतपुर
- बूढ़ा पुष्कर-अजमेर
- एलाना-जालौर
लौहयुगीन स्थल ( Iron Age )
- रैढ़- टोंक
- विराटनगर- जयपुर
- ईसवाल- उदयपुर
- चक-84- श्रीगंगानगर
- नगर- टोंक
कालीबंगा की सभ्यता ( Kalibanga )
स्थान- हनुमानगढ़ सरस्वती या घग्गर नदी के किनारे
इस सभ्यता का विकास घग्घर नदी के किनारे हुआ सरस्वती नदी का वर्णन ऋग्वेद में किया गया है, कालीबंगा का शाब्दिक अर्थ है- काली चूड़ियॉं
कालीबंगा में पूर्व हड़प्पा कालीन हड़प्पाकालीन तथा उत्तर हड़प्पा कालीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं, काली चूड़ियों के अवशेष के कारण इसे कालीबंगा कहा जाता है इसमें दो स्थान मिले हैं पहला भाग का समय 2400 से 2250 ईसा पूर्व का है तथा दूसरा भाग 2200 से 1700 ईसा पूर्व का है
इस स्थान का पता 1952 में ए एन घोष ने लगाया था 1961-62 में बी के थापर तथा बीबी लाल है जे वी जोशी ने इसकी खुदाई की थी स्वतंत्र भारत का पहला स्थान जिसकी खुदाई स्वतंत्रता के बाद की गई
सभ्यता के उत्खनन में हड़प्पा सभ्यता तथा हड़प्पा समकालीन सभ्यता के अवशेष मिले है। कालीबंगा सभ्यता मे उत्खनन मे हल से जुते खेत के निशान मिले है।
यहां से सात अग्नि वैदिकाए मिली हैं इस सभ्यता मे उत्खनन मे जले हुए चावल के साक्ष्य मिले है। इस सभ्यता से उत्खनन मे सूती वस्त्र के साक्ष्य मिले है जो कपास उत्पादन के प्रतीक है इस सभ्यता के उत्खनन से मिली अधिकांश वस्तुएं कॉंसे की बनी हुई है जो इस सभ्यता के कॉंस्ययुगीन होने का प्रतीक है।
इस सभ्यता से नगर तीन चरणों में विकसित होने के प्रमाण मिले है।
इस सभ्यता में पक्की ईटों के बने दुर्ग के अवशेष मिले है।इस सभ्यता में नगर के भवन कच्ची ईटों से बने हुए मिले है
कालीबंगा सभ्यता में हवन कुण्ड के साक्ष्य मिले है।
यज्ञ की वेदियॉं जो इस सभ्यता में यज्ञीय परम्परा बली प्रथा का प्रतीक है।
आहड ( Ahar )
- उदयपुर में स्थित
- उत्खनन- रतनचन्द्र अग्रवाल, एच.डी साकलिया
- प्राचीन नाम-ताम्रवती नगरी
- आहड बेडच (बनास की सहायक नदी) के किनारे पनपी
- अन्य नाम-ताम्रवती नगरी, आघाटपुर(आघाट दुर्ग), धूलकोट(स्थानीय नाम)
यहां के निवासी शवों को आभूषण सहित गाड़ते थे। यहां से तांबा गलाने की भट्टी मिली है। खुदाई में अनाज रखने के बर्तन मृदभांड बिगड़े हुए मिले जिन्हें यहां की बोलचाल की भाषा में गोरे व कोठे कहा जाता था। यह एक ताम्र युगीन सभ्यता है।
पशुपालन इनकी अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार था , यहां पर यूनान की तांबे की 6 मुद्राएं मिली हैं जिस पर अपोलो देवता का चित्र अंकित है यहां टेराकोटा वृषभ आकृति मिली हैं जिन्हें बनासियन बुल कहा गया है
इसे मृतक टीले की सभ्यता भी कहा जाता है। साक्ष्य मिले- तंदूरी चुल्हे के,तांबे की कुल्हाडीयाँ
आहड़ सभ्यता के लोग कृषि से परिचित थे वे अन्न को पका कर खाते थे (गेहूँ, ज्वार, चावल) बैल व मातृदेवी की मृण मूर्ति प्राप्त हुई है।
बागोर सभ्यता ( Baghor civilization )
यह स्थल राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में कोठरी नदी के तट पर स्थित हैं। इस सभ्यता का उत्खनन 1967 से 1969 के मध्य वीरेंद्र नाथ मिश्र के द्वारा किया गया इस मध्यपाषाण कालीन स्थल से पशुपालन के प्राचीनतम प्रमाण मिले हैं।
बागोर सभ्यता को ‘आदिम जाति का संग्रहालय’ कहा गया है। यहाँ पर उत्खनन का कार्य महासतियों के टिले पर किया गया है।
गिलूंड ( Gilond )
राजसमन्द जिले में बनास नदी के तट से कुछ दूरी पर स्थित गिलूंड की खुदवायी में ताम्रयुगीन एवं बाद कि सभ्यताओं के अवशेष मिले है।यह स्थल आहार सभ्यता स्थल से 30 किलोमीटर दूरी पर स्थित है।
यहाँ पर भी आहड़ युगीन सभयता का प्रसार था।यहाँ चुने के प्लास्टर एवं कच्ची ईंटो का प्रयोग होता था।गिलूंड में काले व लाल रंग के मृद भांड मिले है।इस स्थल पर 100×80 फ़ीट विशाल आकार के विशाल भवन के अवशेष मिले है।जो ईंटो का बना हुआ है, आहार में इस प्रकार क भवनों अवशेष नही मीले है
लाछूरा ( Lachhura )
भीलवाड़ा जिले के आशिंद तहसील के गांव लाछूरा में हनुमान नाले के पास भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग(ASI) द्वारा 1998 में श्री बी.आर.मीना के निर्देशन में उत्खनन कार्य सम्पन्न करवाया गया।
उत्खनन में प्राप्त अवशेषों में यहाँ 7 वी सदी ई.पूर्व से लेकर दूसरी सदी (700B. C. से 2000A. D.) तक कि सभ्यताओं के प्रमाण मिले हैं।ये सभी अवशेष चार कालो में वर्गीकृत किये गए है यहाँ सुंगकालीन तीखे किनारे वाले प्याले आदि मील है।
बैराठ सभ्यता ( Bairath civilization )
विराटनगर (जयपुर), बाणगंगा नदी के किनारे
प्राचीन मत्स्य जनपद की राजधानी
पांडवों द्वारा अज्ञातवास गुजारने का साक्ष्य
तीन पहाड़ियाँ
- सर्वाधिक उत्खनन (गणेश डूंगरी)
- भीमडूँगरी
- मोती डूंगरी
विशाल गोल बौद्ध मंदिर का साक्ष्य
बीजक पहाड़ियाँ से अशोक के सबसे बड़े लघु शिलालेख आबू शिलालेख का साक्ष्य।
वर्तमान में कोलकाता में संग्रहालय
36 मुद्राओं का साक्ष्य।
यूनानी शासक मिनांडर की स्वर्ण मुद्राओं की साक्ष्य।
उत्खनन दयाराम साहनी 1936 में किया गया।
खोज कैप्टन बर्ट ने की।
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