Constitutional development of india भारत का संवैधानिक विकास
Constitutional development of india
ब्रिटिश संसद द्वारा पारित अधिनियम 1858 का अधिनियम मुख्य लेख :-
भारत सरकार अधिनियम- 1858 इस अधिनियम के पारित होने के कुछ महत्त्वपूर्ण कारण थे। भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम, जो 1857 ई. में हुआ था, ने भारत में कम्पनी शासन के दोषों के प्रति ब्रिटिश जनमानस का ध्यान आकृष्ट किया।
इसी समय ब्रिटेन में सम्पन्न हुए आम चुनावों के बाद पामस्टर्न प्रधानमंत्री बने, इन्होंने तत्काल कम्पनी के भारत पर शासन करने के अधिकार को लेकर ब्रिटिश क्राउन के अधीन करने का निर्णय लिया। उस कम्पनी के अध्यक्ष ‘रोस मेगल्स’ एवं ‘जॉन स्टुअर्ट मिले’ ने इस निर्णय की आलोचना की।
अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ-:
1.ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन समाप्त कर शासन की ज़िम्मेदारी ब्रिटिश क्राउन को सौंप दी गयी। भारत का गवर्नर-जनरल अब ‘भारत का वायसराय’ कहा जाने लगा।
2.’बोर्ड ऑफ़ डाइरेक्टर्स’ एवं ‘बोर्ड ऑफ़ कन्ट्रोल’ के समस्त अधिकार ‘भारत सचिव’ को सौंपदिये गये। भारत संचिव ब्रिटिश मंत्रिमण्डल का एक सदस्य होता था, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यीय ‘भारतीय परिषद’ का गठन किया गया था, जिसमें 7 सदस्यों की नियुक्ति ‘कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स’ एवं शेष 8 की नियुक्ति ब्रिटिश सरकार करती थी। इन सदस्यों में आधे से अधिक केलिए यह शर्त थी कि वे भारत में कम से कम 10 वर्ष तक रह चुके हों।
3. भारत सचिव व उसकी कौंसिल का खर्च भारतीय राजकोष से दिया जायगा। संभावित जनपद सेवा मे नियुक्तियाँ खुली प्रतियोगिता के द्वारा की जाने लगी, जिसके लिए राज्य सचिव ने जनपद आयुक्तों की सहायता से निगम बनाए।
1861 का भारतीय परिषद अधिनियम मुख्य लेख :-
भारतीय परिषद अधिनियम- 1861- 1858 ई. का अधिनियम अपनी कसौटी पर पूर्णतः खरा नहीं उतरा, परिणाम स्वरूप 3 वर्ष बाद1861ई.में ब्रिटिश संसद ने ‘भारतीय परिषद अधिनियम’ पारित किया।
यह पहला ऐसा अधिनियम था, जिसमें ‘विभागीय प्रणाली’ एवं ‘मंत्रिमण्डलीय प्रणाली’ की नींव रखी गयी। पहली बार विधि निर्माण कार्य में भारतीयों का सहयोग लेने का प्रयास किया गया।
अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ-:
1. वायसरायकी परिषद में एक सदस्य और बढ़ा कर सदस्यों की संख्या 5 कर दी गयी। 5वाँ सदस्य विधि विशेषज्ञ होता था।
2. क़ानून निर्माण के लिए वायसराय की काउन्सिल में कम से कम 6 एवं अधिकतम 12 अतिरिक्त सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार वायसराय को दिया गया।
इन सदस्यों का कार्यकाल 2 वर्ष का होता था। गैर सरकारी सदस्यों में कुछ उच्च श्रेणी के थे, पर भरतीय सदस्यों की नियुक्ति के प्रति वायसराय बाध्य नहीं था, किन्तु व्यवहार में कुछ गैर सरकारी सदस्य ‘उच्च श्रेणी के भारतीय’ थे। इस परिषद का कार्य क्षेत्र क़ानून निर्माण तक ही सीमित था।
3.इस अधिनियम की व्यवस्था के अनुसार बम्बई एवं मद्रास प्रान्तों को विधि निर्माण एवं उनमें संशोधन का अधिकार पुनः प्रदान कर दिया गया, किन्तु इनके द्वारा निर्मित क़ानून तभी वैध माने जाते थे, जब उन्हें वायसराय वैध ठहराता था।
4.वायसराय को प्रान्तों में विधान परिषद की स्थापना का अधिकार तथा लेफ़्टीनेन्ट गवर्नर की नियुक्ति का अधिकार प्राप्त हो गया।
भारत शासन अधिनियम 1935
इस अधिनियम के द्वारा भारत मे पहली बार संघात्मक सरकार की स्थापना की गई। इसके द्वारा एक अखिल भारतीय संघ की स्थापना की जानी थी जिसमे 11 ब्रिटिश प्रान्त 6 चीफ कमिश्नरों के क्षेत्र एवम देशी रियासते शामिल होनी थी परंतु देशी रियासतों के लिए यह ऐच्छिक था।
इस अखिल भारतीय संघ में प्रान्तों का शामिल होना अनिवार्य था। यह अखिल भारतीय संघ तभी अस्तित्व में आ सकता था जब सभी देशी रियासतों की कुल जनसंख्या की कम से कम आधी जनसंख्या वाली देशी रियासतों के शासक , जिन्हें संघीय विधान मंडल के उच्च सदन में देशी रियासतों के लिए निर्धारित 104 स्थानों में से कम से कम 52 प्रतिनिधि भेजने का अधिकार हो, संघ में शामिल होना स्वीकार कर ले।
उपरोक्त शर्ते पूरी न होने के कारण प्रस्तावित संघ कभी अस्तित्व में नही आया।
1935 के एक्ट द्वारा प्रान्तों में द्वेध शासन समाप्त करके केंद्र में द्वेध स्थापित किया गया। केंद्र के प्रशासन के विषय को दो भागों में विभाजित किये गए
- हस्तांतरित
- रक्षित
रक्षित विषयो में प्रतिरक्षा विदेश मामले धार्मिक मामले व कबायती क्षेत्र शामिल थे। शेष सभी विषय हस्तांतित थे। आपातकाल में गवर्नर जनरल सम्पूर्ण शासन की बागडोर अपने हाथो में ले सकता था। इस अधिनियम के द्वारा प्रांतीय स्वायत्तता की स्थापना की गई।
1935 के अधिनयम पर भारतीय पर भारतीय नेताओ के विचार
- “यह अनेक ब्रेकों वाली इंजन रहित गाड़ी के समान है” जवाहर लाल नेहरू
- “यह दासता का आज्ञा पत्र है” जवाहर लाल नेहरू
- “नया संविधान द्वेध शासन से भी बुरा है” – राजगोपालाचारी
- “1935 की योजना पुर्ण रूप से सडी हुई, मौलिक रूप से खराब और पूर्णत अस्वीकृति के योग्य थी” मोहम्मद अली जिन्ना
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