अभिवृद्धि और विकास का सिद्धान्त
विकास सभी के लिए समान है विकास सामान्य से विशिष्ट की ओर होता है विकास सत्तत् होता है विकास कि गति भिन्न होती है विकास समग्रता से विभेदीकरण की ओर होता है विकास मे सहसंबन्ध होते है
बाल- विकास के सिद्धांत-
- सतत विकास का सिद्धांत-हरलोक(विकास निरन्तर चलता रहता है। गर्भाधान से मर्रतु तक)
- अंगों की गति में भिनता का सिद्धांत-सिर का विकास पहले ,हाथ पैर का अंत मे।
- अवस्थाओ में गति की भिन्नता का सिद्धांत-शेश्वावस्था व किशोरावस्था में तीव्र होता है
- वंशानुक्रम व वातावरण की अंत: किर्या का सिद्धांत-विकास= वंशानुक्रम x वातावरण
बालक के विकास पर विद्यालय का योगदान
स्कूल शब्द स्कोला से बना है जिसका अर्थ अवकाश। यूनान में विद्यालयों में पहले खेलकूद आदि पर बल दिया जाता था कालांतर में यह विद्यालय विद्यालय के केंद्र बन
टी.एफ.लीच- वाद विवाद या वार्ता के स्थान जहां एथेंस के युवक अपने अवकाश के समय को खेलकूद व्यवसाय और युद्ध कौशल में प्रशिक्षण में बिताते थे। धीरे धीरे दर्शन और उच्च कक्षाओं के स्कूलों में बदल गए एकेडमी की सुंदर उद्यानों में व्यतीत किए जाने वाले अवकाश के माध्यम से विद्यालयों का विकास हुआ।
जॉन ड्यूवी- विद्यालय एक ऐसा वातावरण है जहां जीवन की कुछ गुणों और विशेष प्रकार की क्रियाओं तथा व्यवसाइयों की शिक्षा इस उद्देश्य से दी जाती है कि बालक का विकास वांछित दिशा में हो।
वृद्धि और विकास के सिद्धांत
1. निरन्तराता का सिद्धांत (Principles of Continuous Development) –शारीरिक और मानसिक विकास धीरे – धीरे और निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। पर वृद्धि एक निश्चित अवस्था (आयु) तक होती है ।
2.जीवन के आरंभिक वर्षों में तीव्र गति – जैसा की देख गया है, विकास लगातार होता रहता है , परन्तु वृद्धि की दर एक जैसी हमेशा नही रहती। शुरूआती तीन वर्षों में वृद्धि और विकास दोनों तीव्र गति से होते हैं । उसके बाद वर्षों मे वृद्धि की गति धीमी पड़ जाती है, परन्तु विकास की गति निरन्तर चलती रहती है ।
3.विकास साधारण से विशेष की ओर अग्रसर – बच्चा आरंभ में साधारण बातें सीखता है, पर बाद में वह विशेष बातें सीखने लगता है । इसी प्रकार आरंभ में बालक आपने सम्पूर्ण अंग को और फिर बाद में भागों को चलाना सीखता है । अतः जब बालक के शरीक वृद्धि होती है तो वह विशेष प्रतिक्रियाएँ करना सीख जाता है । उदाहरण के तौर पर बालक पहले पूरे हाथ को, फिर उगलिंयो को एक साथ चलाना सीखता है ।
4.वैयक्तिक भिन्नताओ का सिद्धांत ( Principle of Individual difference ) – मनोवैज्ञानिक ने वैयक्तिक भिन्नताओ के सिद्धांत का व्यापक विश्लेषण किया गया परिणाम स्वरुप इस विश्लेषण मे पाया गया कि विभिन-विभिन आयु वर्गो में बलकों के व्यवहारों में अन्तर पाया जाता हैं और यह भी देख गया जुड़ावा बच्चों में भी वैयक्तिक भिन्नताओ को देख गया । इस प्रकार से कहा जा सकता है कि सभी बच्चों में वृद्धि तथा विकास में एकरूपता दिखाई नही देती ।
5.वंशानुक्रम और वातावरण के संयुक्त परिणाम का सिद्धांत – देखा गया है वंशानुक्रम और वातावरण बालक के ऊपर अपना अत्यधिक प्रभाव देता हैं जो कि विकास और वृद्धि की प्रक्रिया को अत्यधिक प्रभावित करती है । इसमें से किसी की भी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए । इस प्रकार से हम बच्चे के वातावरण में आवश्यक सुधार कर के बालक के विकास करने की प्रक्रिया मे सुधार लाया जा सकता है ।
6.परिपक्वता अधिगम का सिद्धांत (Principle of maturation and losing ) – बालक के वृद्धि और विकास की प्रक्रिया में परिपक्वता का विशेष महत्व होता है । जिस से परिपक्वता और वृद्धि और विकास दोनों प्रभावित होते हैं । देखा गया है बालक किसी भी कार्य को करने में परिपक्वता को ग्रहण कर लेता है इसी परिपक्वता के करण बालक अन्य कार्यो को आसानी से कर पता है।
7.एकीकरण का सिद्धांत (Principles of integration) – इस सिद्धांत के अनुसार बच्चा पहले सम्पूर्ण अंग को, फिर बाद मे विशिष्ट भागों का प्रयोग कर पाता है या अंगों को चलान सीखता है , फिर उन भागो एकीकरण करना सीखता है । उदाहरण – देखा जाता है बच्चा पहले अपने पूरे हाथ को हिलाता डुलता है, फिर उसके बाद वह हाथ और उँगलियों को हिलाने का प्रयास करता है ।
8.विकास की भविष्यवाणी का सिद्धांत (Principal of development direction) – अब तक के सिद्धांतों द्वारा यह पाता चलता है कि बालक की वृद्धि तथा विकास को ध्यान मे रखते हुए बालक के भविष्य की भविष्यवाणी की जा सकती है ।
9.विकास की दिशा का सिद्धांत (Principles of development direction ) – इस सिद्धांत के अनुसार वृद्धि और विकास की दिशा निश्चित है जो पहले सिर से प्रौढ़ आकार और फिर टांगें सबसे बाद में विकसित होती है। आगे भ्रूण ( Embryo) के विकास में यह सिद्धांत बहुत स्पष्ट रूप से है ।
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