गरीबी एवं बेरोजगारी – अवधारणा, कारण, प्रकार और निदान
निर्धनता या गरीबी को आमतौर पर न्यूनतम स्तर वाली आय में रहने वालों और कम उपभोग करने वालों के अर्थ में परिभाषित किया जाता है व्यक्तियों या परिवारों द्वारा जो स्वास्थ्य सक्रिय और सभ्य जीवन के लिए न्यूनतम आवश्यकताओं को वहन नहीं कर पाते वह निर्धनता या गरीब कहा जाता है
गरीबी_की अवधारणा (Concept of poverty)
गरीबी_भूख है और उस अवस्था में जुड़ी हुई है निरन्तरता। यानी सतत् भूख की स्थिति का बने रहना। गरीबी है एक उचित रहवास का अभाव, गरीबी है बीमार होने पर स्वास्थ्य सुविधा का लाभ ले पाने में असक्षम होना, विद्यालय न जा पाना और पढ़ न पाना।
गरीबी_है आजीविका के साधनों का अभाव और दिन में दोनों समय भोजन न मिल पाना। छोटे-बच्चों की कुपोषण के कारण होने वाली मौतें गरीबी का वीभत्स प्रमाण है और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में शक्तिहीनता, राजनैतिक व्यवस्था में प्रतिनिधित्व न होना और अवसरों का अभाव गरीबी की परिभाषा का आधार तैयार करते हैं।
मूलत: सामाजिक और राजनैतिक असमानता, आर्थिक असमता का कारण बनती है। जब तक किसी व्यक्ति, परिवार, समूह या समुदाय को व्यवस्था में हिस्सेदारी नहीं मिलती है तब तक वह धीरे-धीरे विपन्नता की दिशा में अग्रसर होता जाता है।
यही वह प्रक्रिया है जिसमें वह शोषण का शिकार होता है, क्षमता का विकास न होने के कारण विकल्पों के चुनाव की व्यवस्था से बाहर हो जाता है, उसके आजीविका के साधन कम होते हैं तो वह सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था में निष्क्रिय हो जाता है और निर्धनता की स्थिति में पहुंच जाता है।
शहरी और कस्बाई क्षेत्रों में बड़ी संख्या में महिलायें और बच्चे कचरा बीनने और कबाड़े का काम करते हैं। यह काम भी न केवल अपने आप में जोखिम भरा और अपमानजनक है बल्कि इस क्षेत्र में कार्य करने वालों का आर्थिक और शारीरिक शोषण भी बहुत होता है।
विकलांग और शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के समक्ष सदैव दोहरा संकट रहा है। जहां एक ओर वे स्वयं आय अर्जन कर पाने में सक्षम नहीं होते हैं वहीं दूसरी ओर परिवार और समाज में उन्हें उपेक्षित रखा जाता है।
कई लोग गरीबी के उस चरम स्तर पर जीवनयापन कर रहे हैं जहां उन्हें खाने में धान का भूसा, रेशम अथवा कपास के फल से बनी रोटी, पेंज, तेन्दुफल, जंगली कंद, पतला दलिया और जंगली वनस्पतियों का उपयोग करना पड़ रहा है।
वर्तमान संदर्भो में गरीबी को आंकना भी एक नई चुनौती है क्योंकि लोक नियंत्रण आधारित संसाधन लगातार कम हो रहे हैं और राज्य व्यवस्था इस विषय को तकनीकी परिभाषा के आधार पर समझना चाहती है।
संसाधनों के मामले में उसका विश्वास केन्द्रीकृत व्यवस्था मंस ज्यादा है इसीलिये उनकी नीतियां मशीनीकृत आधुनिक विकास को बढ़ावा देती हैं, औद्योगिकीकरण उनका प्राथमिक लक्ष्य है, बजट में वे जीवनरक्षक दवाओं के दाम बढ़ा कर विलासिता की वस्तुओं के दाम कम करने में विश्वास रखते हैं, किसी गरीब के पास आंखें रहें न रहें परन्तु घर में रंगीन टीवी की उपलब्धता सुनिश्चित करने में सरकार पूरी तरह से जुटी हुई है।
हमारे सामने हर वर्ष नये आंकड़े और सूचीबद्व लक्ष्य रखे जाते हैं, व्यवस्था में हर चीज को, हर अवस्था को आंकड़ों में मापा जा सकता है, हर जरूरत को प्रतिशत में पूरा किया जा सकता है और इसी के आधार पर गरीबी को भी मापने के मापदण्ड तय किये गये हैं।
ऐसा नहीं है कि गरीबी को मिटाना संभव नहीं है परन्तु वास्तविकता यह है गरीबी को मिटाने की इच्छा कहीं नहीं है। गरीबी का बने रहना समाज की जरूरत है, व्यवस्था की मजबूरी है और सबसे अहम बात यह है कि वह एक मुद्दा है।
प्रो.एम.रीन का उल्लेख करते हुये अमर्त्य सेन लिखते हैं कि ”लोगों को इतना गरीब नहीं होने देना चाहिये कि उनसे घिन आने लगे, या वे समाज को नुकसान पहुंचानें लगें।
इस नजरिये में गरीबों के कष्ट और दुखों का नहीं बल्कि समाज की असुविधाओं और लागतों का महत्व अधिक प्रतीत होता है। गरीबी की समस्या उसी सीमा तक चिंतनीय है जहां तक कि उसके कारण, जो गरीब नहीं हो, उन्हें भी समस्यायें भुगतनी पड़ती है।”
गरीबी के आधार (Basis of poverty)
भारत में गरीबी रेखा को परिभाषित करना हमेशा से ही एक विवादास्पद मुद्दा रहा है, विशेष रूप से 1970 के मध्य में जब पहली बार इस तरह की गरीबी रेखा का निर्माण योजना आयोग द्वारा किया गया था जिसमें ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में क्रमश: एक वयस्क के लिए 2,400 और 2,100 कैलोरी की न्यूनतम दैनिक आवश्यकता को आधार बनाया गया था।
खेतों से जुड़ती गरीबी (Poverty associated with farmland)
पारम्परिक रूप से मध्यप्रदेश का समाज प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि को ही जीवन व्यवस्था का आधार बनाता रहा है। इसी कृषि व्यवस्था के कारण वह विपरीत परिस्थितियों जैसे बाढ़, सूखा या आपातकालीन घटनाओं से जूझने की क्षमता रखता था।
खेती में भी उसका पूरा विश्वास ऐसी फसलों में था जो उनकी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करती थीं जैसे- ज्वार, बाजरा, कौंदो-कुटकी।
विकास से बढ़ता अभाव (Lack of development)
विकास के नाम पर बड़ी परियोजनाओं को शासकीय स्तर पर बड़ी ही तत्परता से लागू किया जा रहा है। इन परियोजनाओं में बांध, ताप विद्युत परियोजनायें, वन्य जीव अभ्यारण्य शामिल हैं जिनके कारण हजारों गांवों को विस्थापन की त्रासदी भोगनी पड़ी और उन्हें अपनी जमीन, घर के साथ-साथ परम्परागत व्यवसाय छोड़ कर नये विकल्पों की तलाश में निकलना पड़ा।
नई नीतियों के अन्तर्गत लघु और कुटीर उद्योग लगातार खत्म होते गये हैं। जिसके कारण गांव और कस्बों के स्तर पर रोजगार की संभावनायें तेजी से घट रही हैं। कई उद्योग और मिलें बहुत तेजी से बंद हो रहे हैं और वहां के श्रमिक संगठित या पंजीकृत नहीं है, ऐसी स्थिति में उनके संकट ज्यादा गंभीर हो जाते हैं।
सामाजिक व्यवस्था और गरीबी (Social order and poverty)
मध्यप्रदेश के चंबल और विन्ध्य क्षेत्र ऐसे हैं जहां सामाजिक भेदभाव अपने चरम पर है। यहां ऊॅंची और नीची जाति के बीच चिंतनीय भेद नजर आता है। इन क्षेत्रों में नीची जाति के लोगों के साथ खान-पान संबंधी व्यवहार नहीं रखा जाता है, न ही उन्हें धार्मिक और सामाजिक समारोह में शामिल होने या स्थलों में जाने की इजाजत होती है।
इन्हीं क्षेत्रों में कई समुदाय गरीबी और सामाजिक उपेक्षा के कारण निम्नस्तरीय पारम्परिक पेशों में संलग्न हैं। यहां जातिगत देह व्यापार, जानवरों की खाल उतारना, सिर पर मैला ढोना जैसे पेशे आज भी न केवल किये जा रहे है बल्कि इन समुदाय के लोगों को सम्मानित पेशों में शामिल होने से रोका जा रहा है।
निर्धनता के प्रकार (Types of poverty)
यह दो प्रकार की होती है—
- सापेक्ष निर्धनता- सापेक्ष निर्धनता से अभिप्राय विभिन्न वर्गों , प्रदेशों और देशों की तुलना में पाई जाने वाली निर्धनता से है
- निरपेक्ष निर्धनता-निरपेक्ष निर्धनता से अभिप्राय किसी देश की आर्थिक अवस्था को ध्यान में रखते हुए निर्धनता के माप से है
निर्धनता रेखा- वह रेखा है जो उस प्रति व्यक्ति औसत मासिक व्यय को प्रकट करती है जिसके द्वारा लोग अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को संतुष्ट करते हैं*
गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा के मायने (Food Safety Matters for the Poor)
भारत में 35 करोड़ लोग गरीबी की रेखा के नीचे रहकर अपना जीवन गुजारते हैं। अपने आप में यह जानना भी जरूरी है कि कौन गरीबी की रेखा के नीचे माना जायेगा।
भारत में गरीबी की परिभाषा तय करने का दायित्व योजना आयोग को सौंपा गया है। योजना आयोग इस बात से सहमत है कि किसी भी व्यक्ति को अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये न्यूनतम रूप से दो वस्तुयें उपलब्ध होनी चाहिए:-
- संतोषजनक पौष्टिक आहार, सामान्चय स्तर का कपड़ा, एक उचित ढंग का मकान और अन्य कुछ सामग्रियां, जो किसी भी परिवार के लिए जरूरी है।
- न्यूनतम शिक्षा, पीने के लिये स्वच्छ पानी और साफ पर्यावरण।
- गरीबी के एक मापदण्ड के रूप में कैलोरी उपयोग (यानी पौष्टिक भोजन की उपलब्धता) को भी स्वीकार किया जाता है।
अभी यह माना जाता है कि किसी भी व्यक्ति को अपने शरीर को औसत रूप से स्वस्थ रखने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में 2410 कैलोरी और शहरी क्षेत्रों में 2070 कैलोरी की न्यूनतम आवश्यकता होती है। इतनी कैलोरी हासिल करने के लिये गांव में एक व्यक्ति पर 324.90 रूपये और शहर में 380.70 रूपये का न्यूनतम व्यय होगा।
गरीबी की रेखा और गरीबी (Poverty line and poverty)
योजना आयोग (अब नीति आयोग) हर वर्ष के लिए समय-समय पर गरीबी रेखा और गरीबी अनुपात का सर्वेक्षण करता है जिसके सांख्यिकी और कार्यक्रम मंत्रालय का राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) बड़े पैमाने पर घरेलू उपभोक्ता व्यय के सैंपल सर्वे लेकर कार्यान्वित करता है।
आम तौर पर इन सर्वेक्षणों को पंचवार्षिक आधार (हर 5 वर्ष में) पर किया जाता है। हालांकि इस श्रृंखला में पिछले पाँच साल का सर्वेक्षण, 2009-10 (एनएसएस का 66वां दौर) में किया गया था। 2009-10 का वर्ष भारत में गंभीर सूखे की वजह से एक सामान्य वर्ष नहीं था,
एनएसएसओ ने 2011-12 में बड़े पैमाने पर एक बार फिर सर्वेक्षण (एनएसएसओ का 68वां दौर) किया। योजना आयोग ने गरीबी की रेखा को गरीबी मापने का एक सूचक माना है और इस सूचक को दो कसौटियों पर परखा जाता है।
- पहली कैलोरी का उपयोग और
- दूसरी कैलोरी पर खर्च होने वाली न्यूनतम आय।
इसे दो अवधारणों में प्रस्तुत किया जाता है:-
गरीबी की रेखा:- आय का वह स्तर जिससे लोग अपने पोषण स्तर को पूरा कर सकें, वह गरीबी की रेखा है।
गरीबी की रेखा के नीचे:- वे लोग जो जीवन की सबसे बुनियादी आवश्यकता अर्थात् रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था नहीं कर सके, गरीबी की रेखा के नीचे माने जाते हैं।
भारत में गरीबी के कारण (Reason of Poverty in India)
भारत में गरीबी का मुख्य कारण बढ़ती जनसंख्या दर है। इससे निरक्षरता, खराब स्वास्थ्य सुविधाएं और वित्तीय संसाधानों की कमी की दर बढ़ती है।
इसके अलावा उच्च जनसंख्या दर से प्रति व्यक्ति आय भी प्रभावित होती है और प्रति व्यक्ति आय घटती है। एक अनुमान के मुताबिक भारत की आबादी सन् 2026 तक 1.5 बिलियन हो सकती है और भारत विश्व का सबसे अधिक आबादी वाला राष्ट्र हो सकता है।
भारत की आबादी जिस रफ्तार से बढ़ रही है उस रफ्तार से भारत की अर्थव्यवस्था नहीं बढ़ रही।इसका नतीजा होगा नौकरियों की कमी।इतनी आबादी के लिए लगभग 20 मिलियन नई नौकरियों की जरुरत होगी।
यदि नौकरियों की संख्या नहीं बढ़ाई गई तो गरीबों की संख्या बढ़ती जाएगी। बुनियादी वस्तुओं की लगातार बढ़ती कीमतें भी गरीबी का एक प्रमुख कारण हैं। गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले व्यक्ति के लिए जीवित रहना ही एक चुनौती है। भारत में गरीबी का एक अन्य कारण जाति व्यवस्था और आय के संसाधनों का असमान वितरण भी है।
इसके अलावा पूरे दिन मेहनत करने वाले अकुशल कारीगरों की आय भी बहुत कम है। असंगठित क्षेत्र की एक सबसे बड़ी समस्या है कि मालिकों को उनके मजदूरों की कम आय और खराब जीवन शैली की कोई परवाह नहीं है। उनकी चिंता सिर्फ लागत में कटौती और अधिक से अधिक लाभ कमाना है।
उपलब्ध नौकरियों की संख्या के मुकाबले नौकरी की तलाश करने वालों की संख्या अधिक होने के कारण अकुशल कारीगरों को कम पैसों में काम करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। सरकार को इन अकुशल कारीगरों के लिए न्यूनतम मजदूरी के मानक बनाने चाहिये।
इसके साथ ही सरकार को यह भी निश्चित करना चाहिये कि इनका पालन ठीक तरह से हो। हर व्यक्ति को स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार है इसलिए भारत से गरीबी को खत्म करना जरुरी है।
निर्धनता के कारण
1-राष्ट्रीय उत्पाद का निम्न स्तर
2-विकास की कम दर
3-कीमतों में वृद्धि
4-जनसंख्या का दबाव
5-बेरोजगारी
6-पूंजी की कमी
7-कुशल श्रम और तकनीकी ज्ञान की कमी
8-उचित औद्योगीकरण का अभाव
9-सामाजिक संस्थाएं
भारत में गरीबी के आर्थिक-सामाजिक-प्राकृतिक कारण (Economic-social-natural causes of poverty in India)
आश्चर्य की बात है कि प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध माना जाने वाला हमारा देश वैश्विक मानदंडों पर गरीब देशों की श्रेणी में आता है। देश की विशाल जनसंख्या देश में गरीबी का संभवतः सबसे बड़ा कारण है, क्योंकि लगातार होने वाली जनसंख्या वृद्धि प्रति व्यक्ति आय को कम करती है।
जितना बड़ा परिवार, उतनी ही कम प्रति व्यक्ति आय। भूमि और सम्पत्ति का असमान वितरण भी गरीबी का एक अन्य कारण है।
इसके अलावा, देश में मौसम की दशाएँ अर्थात् प्रतिकूल जलवायु लोगों के कार्य करने की क्षमता कम करती है और बाढ़, अकाल, भूकंप तथा चक्रवात आदि उत्पादन को बाधित करते हैं।
संयुक्त राष्ट्र की 2015 में जारी सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में सबसे अधिक भूख से पीड़ित लोग भारत में हैं। विगत 10 वर्षों में गरीबी आधी हो गई है, फिर भी 27 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा से नीचे निवास करते हैं, जिनकी आय 1.25 डॉलर प्रतिदिन से कम है।
यहाँ की एक चौथाई जनसंख्या कुपोषण का शिकार है और लगभग एक तिहाई जनसंख्या भूख से पीड़ित है।
भारत के श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी (Women’s participation in the labor force of India)
भारतीय श्रम बल में महिलाओं की कम भागीदारी का एक कारण यहाँ शिक्षा की नामांकन दर में होने वाली वृद्धि है जिसके कारण कई युवा महिलाएँ शिक्षा को प्राथमिकता देती हैं| इसका एक अन्य कारण यह भी है कि भारत में कई महिला कामगार यह सोचती हैं कि काम केवल तभी किया जा सकता है जब उसकी आवश्यकता हो|
वे काम को आर्थिक अवसर नहीं मानती हैं| भारतीय महिलाओं में मुख्यतः गरीब, ग्रामीण और निरक्षर महिलाएँ ही श्रम बल में भागीदारी करती हैं| वास्तव में, धनी घरों की महिलाएँ इसका एक अपवाद हैं क्योंकि उनमें महिलाओं की आय की दर अधिक पाई गई है|
ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में महिलाएँ या तो निरक्षर होती हैं अथवा स्नातक होती हैं| अतः उनके काम करने की सम्भावना अधिक होती है| परन्तु माध्यमिक स्तर की शैक्षणिक विशेषताओं वाली महिलाएँ श्रम बल में भागीदारी नहीं करती हैं|
वस्तुतः एक स्थूल सच्चाई यह है की भारत जैसे पितृसत्तात्मक समाज में महिलाएँ केवल घरेलू कार्य ही करती हैं|
यद्यपि आज पितृसत्तात्मक समाज के दृष्टिकोणों में बदलाव हो रहा है परन्तु इसकी गति अपेक्षाकृत मंद है| भारत का युवा वर्ग पहले की तुलना में महिलाओं के प्रति अधिक उदार बन चुका है| 35 वर्ष तक की आयु वाले आधे से भी कम युवा पुरुष और महिलाएँ यह विश्वास करते हैं कि महिलाओं के लिये विवाहोपरांत कार्य करना उचित है|
भारत में महिलाओं की स्थिति में सुधार आवश्यक है परन्तु इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उनके साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव न हो तथा वे स्वयं को भारतीय समाज से विलग न समझकर इसका ही एक हिस्सा समझें|
उल्लेखनीय है कि भारतीय समाज में आज भी कई ऐसी महिलाएँ हैं जो कुशल होने के बावजूद भी हर क्षेत्र में पिछड़ जाती है| अतः आवश्यकता इस बात की है कि इन महिलाओं को परिवर्तन की मुख्यधारा में लाया जाए और भारत को श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम बनाया जाए|
गरीबी और बेरोज़गारी का संबंध (Relation to poverty and unemployment)
भारत में 2011 में हुई जनगणना के अनुसार, काम खोज रहे लोगों (जिनके पास कोई काम नहीं था) की संख्या 6.07 करोड़ थी, जबकि 5.56 करोड़ लोगों के पास सुनिश्चित काम नहीं था।
इस प्रकार कुल 11.61 करोड़ लोग सुरक्षित और स्थायी रोज़गार की तलाश में थे। यह संख्या वर्ष 2021 में बढ़कर 13.89 करोड़ हो जाने की संभावना है।
वर्ष 2001 से वर्ष 2015 के बीच भारत में 2,34,657 किसानों और खेतिहर श्रमिकों ने आत्महत्या की, क्योंकि न तो उन्हें उत्पाद का उचित मूल्य मिला, न बाजार में संरक्षण मिला और न ही आपदाओं की स्थिति में सम्मानजनक तरीके से राहत मिली।.
राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के अनुसार, भारत में वर्ष 2001 से 2015 के बीच 72,333 लोगों ने गरीबी और बेरोज़गारी के कारण आत्महत्या की। देश में रोज़गार की लोचशीलता में निरंतर कमी आ रही है, जिससे रोज़गार के अवसरों में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो पा रही है।
ऐसे में यह बहुत ज़रूरी हो जाता है कि भारतीय व्यवस्था के अनुरूप कृषि और औद्योगिकीकरण की नीति को प्रोत्साहित किया जाए, जो रोज़गार के अवसरों में वृद्धि करने में निश्चित ही सहायक होगा।
भारत-चीन गरीबी की तुलना (Comparison of India-China poverty)
अब चीन गरीबी पूरी तरह हटाने की योजना बना रहा है। चीन के शीर्ष नीति निर्धारकों में इस बात पर सहमति बनी है कि गरीबी को पूरी तरह तभी दूर किया जा सकता है, जब वर्तमान नीतियों और विकास की रफ्तार को बनाए रखा जाए।
चीन यह मानता है कि गरीबी दूर करने के प्रयासों में बेहद निचले स्तर की गरीबी और लक्षित उपायों की कमी और पैसे की निगरानी में लापरवाही जैसी समस्याएं अब भी बनी हुई हैं। चीन की बड़ी आबादी गरीबी से जूझ रही है।
चीन के महानगरों में करोड़पतियों की संख्या लाखों में है, लेकिन गरीबों की संख्या करोड़ों में है, लेकिन चीन उन देशों में शामिल हैं, जिसने विगत वर्षों में तेज़ी से अपनी गरीबी कम की है।
आज से लगभग चार दशक पूर्व चीन की आर्थिक स्थिति भारत से कमतर थी। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक तब चीन में भारत से 26% अधिक गरीब थे।
1978 के बाद चीन में तेजी से आर्थिक सुधार हुए और 2015 में भारतीयों के मुकाबले चीनी पांच गुना अधिक अमीर हो गए चीन में भूमि सुधार, शिक्षा व्यवस्था में विस्तार और जनसंख्या नियंत्रण के लिये उठाए कदमों ने चीन को दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना दिया।
1978 में जब चीन में आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई थो उसकी प्रति व्यक्ति आय 155 डॉलर थी, जबकि भारत की प्रति व्यक्ति आय 210 डॉलर थी। भारत में आर्थिक सुधारों का सिलसिला 1991 में शुरू हुआ। उस समय चीन में प्रति व्यक्ति आय 331 डॉलर थी, जबकि भारत में प्रति व्यक्ति आय 309 डॉलर थी।
1991 के बाद से भारत में प्रति व्यक्ति आय केवल 5 गुना बढ़ी तो इस दौरान चीन में प्रति व्यक्ति आय में 24 गुना वृद्धि हुई। 2015 में चीन में प्रति व्यक्ति आय 7925 डॉलर और भारत में प्रति व्यक्ति आय 1582 डॉलर थी। चीन की स्थिति भारत से कहीं ज्यादा बेहतर है!
निर्धनता मापन की विभिन्न समितियां (Various committees of poverty measurement)
तत्कालिन योजना आयोग ने सितंबर 1989 में प्रोफेसर डी.टी. लकड़वाला की अध्यक्षता में एक विशेष समूह की नियुक्ति की जिसने प्रति व्यक्ति कैलोरी उपभोग को आधार बनाते हुए ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी प्रति व्यक्ति और शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी प्रति व्यक्ति उपभोग को आधार माना है
भारत में सर्वप्रथम गरीबी का अध्ययन श्री बी एस मिन्हास ने किया और उन्होंने 1956-57 तथा 1967-68 के बीच गांव के निर्धनों के प्रतिशत में कमी होने के संकेत दिए
लोरेंज वक्र- द्वारा किसी देश के लोगों के बीच आई विषमता को मापा जाता है, गिनी गुणांक को इटालियन कोरेडो गिनी ने विकसित किया था
1. लकड़वाला समिति (Lakadavala committee)
समिति ने अपने फार्मूले में शहरी निर्धनता के आकलन के लिए औद्योगिक श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक और ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को आधार बनाया है
2. सुरेंद्र तेंदुलकर समिति (Surendra Tendulkar Committee)
प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के पूर्व अध्यक्ष सुरेंद्र तेंदुलकर की रिपोर्ट गरीबी का आंकड़ा 37.2% प्रतिशत बताती है
देश में निर्धनता अनुपात का आकलन योजना आयोग द्वारा राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के माध्यम से किया जाता था इसके अनुसार 2012 में गरीबी रेखा के नीचे 22% लोग थे
निर्धनों की निरपेक्ष संख्या के मामले में उत्तर प्रदेश का स्थान जहां सबसे ऊपर है वहीं निर्धनता अनुपात के मामले में (कुल जनसंख्या में निर्धन जनसंख्या का प्रतिशत )ओडिशा (46.8%)का स्थान सर्वोच्च है भारत में राज्यों में न्यूनतम निर्धनता जम्मू कश्मीर में है जबकि संपूर्ण भारत में सबसे कम निर्धनता अंडमान निकोबार (0.4%) में है
3. रंगराजन समिति (Rangarajan Committee)
मनमोहन सिंह की सरकार में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के प्रमुख सी. रंगराजन ने गरीबी के आकलन पर तेंदुलकर समिति की कार्यपद्धति की समीक्षा की थी| योजना आयोग ने देशभर में गरीबों की संख्या के संबंध में विवाद पैदा होने के मद्देनजर गरीबी के आकलन के लिए तेंदुलकर समिति की पद्धति की समीक्षा के लिए मई 2012 में तत्कालीन सी. रंगराजन की अध्यक्षता में विशेषज्ञ समूह का गठन किया था।
रंगराजन समिति के अनुसार शहरों में प्रतिदिन ₹45 तक खर्च कर सकने वाले व्यक्ति को ही गरीब की श्रेणी में रखा जाए जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह सीमा ₹32 है औसत माहवार खर्चे के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में ₹972 प्रतिमाह से कम और शहरों में 1407 से कम प्रतिमाह कमाने वालों को गरीब माना जाएगा
रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु ( Main point of report )
- 2009-10 में 38.2 प्रतिशत आबादी गरीब थी जो 2011-12 में घटकर 29.5 प्रतिशत पर आ गई।
- इसके विपरीत तेंदुलकर समिति ने कहा था कि 2009-10 में गरीबों की आबादी 29.8 प्रतिशत थी जो 2011-12 में घटकर 21.9 प्रतिशत रह गई।
- कोई शहरी व्यक्ति यदि एक महीने में 1,407 रुपये (47 रुपये प्रतिदिन) से कम खर्च करता है तो उसे गरीब समझा जाए, जबकि तेंदुलकर समिति के पैमाने में यह राशि प्रति माह 1,000 रुपए (33 रुपये प्रतिदिन) थी।
- ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति माह 972 रुपये (32 रुपये प्रतिदिन) से कम खर्च करने वाले लोगों को गरीबी की श्रेणी में रखा है, जबकि तेंदुलकर समिति ने यह राशि 816 रुपये प्रति माह (27 रुपये प्रतिदिन) निर्धारित की थी।
- 2011-12 में भारत में गरीबों की संख्या 36.3 करोड़ थी, जबकि 2009-10 में यह आंकड़ा 45.4 करोड़ था।
- तेंदुलकर समिति के अनुसार, 2009-10 में देश में गरीबों की संख्या 35.4 करोड़ थी जो 2011-12 में घटकर 26.9 करोड़ रह गई।
- आशा है कि समिति की इस रिपोर्ट से देश में गरीबों की संख्या के बारे में जो संशय बना था वह दूर हो जाएगा।
- विशेषज्ञ समूह को अपनी रिपोर्ट गठन के 7 से 9 माह में देनी थी,इसे कई बार विस्तार दिया गया।
- उल्लेखनीय है कि गरीबी के बारे में व्यक्त अनुमान को लेकर योजना आयोग को तब कड़ी आलोचना झेलनी पड़ी थी जब उसने सितंबर 2011 में सर्वोच्च न्यायालय में दिए एक हलफनामे में यह कहा कि शहरी क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति 32 रुपये और ग्रामीण क्षेत्रों में 26 रुपये प्रति व्यक्ति दैनिक खर्च करने वाला गरीब नहीं है।
- तेंदुलकर पद्धति पर आधारित पिछले वर्ष जुलाई में जारी आयोग के अनुमान के अनुसार देश में गरीबी का अनुपात 2011-12 में घटकर 21.9 प्रतिशत रह गया जो कि 2004-05 में 37.2 प्रतिशत पर था।
बीपीएल जनसंख्या में भारतीय राज्यों की स्थिति
गरीबी
यह बहुत ही दयनीय स्थिति है कि, भारत को एक विकासशील देश भी कहा जाता है और अभी भी यहां गरीबी रेखा से नीचे इतनी बड़ी आबादी रहती है।
Poverty important facts
- सामान्य रूप से भारत में 15 से 59 वर्ष के आयु वर्ग के व्यक्तियों को आर्थिक रुप से सक्रिय माना जाता है
- भारत में बेरोजगारी से संबंधित आंकड़े राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा जारी किए जाते हैं
- वार्षिक रोजगार के आकलन के लिए कार्य दिवसों की मानक संख्या 270 है
- अगर किसी व्यक्ति के पास 35 दिनों से भी कम दिनों का रोजगार वह तो राष्ट्रीय स्तर तक उसे पूर्ण बेरोजगार मान लिया जाता है यदि उसके कार्य दिवस पर 30 दिनों से ज्यादा एवं 135 से कम दिनों का हो तो उसे अर्थ बेरोजगार माना जाता है वह 135 दिनों से ज्यादा दिनों के रोजगार की स्थिति हो तो उसे पूर्ण रोजगार कहा जाएगा