Niyojan
Niyojan (भारत में नियोजन)
साधारणत: जब कोई व्यक्ति किसी कार्य को कब करना है ? कैसे करना है ? कहां करना हैं ? और किस रूप में करना है आदि प्रश्नों को विचार करता है तो एक विभिन्न विकल्पों में से किसी एक निर्णय पर पहुचता है उसे ही नियोजन कहते है।
साधारण शब्दो में भविष्य के कार्यों का वर्तमान मे निर्धारण नियोजन हैं।
एम.ई.हर्ले के शब्दों में- योजना का अर्थ है भविष्य में किए जाने वाले काम के बारे में पहले से निर्धारित करना इसमें उद्देश्यों, नीतियो कार्यक्रमों तथा कार्य विधियों का उनके विभिन्न विकल्पों में से चयन करना हैं’’।
नियोजन की विशेषताएं या प्रकृति (Features or nature of planning)
1. निश्चित लक्ष्य का निर्धारण- नियोजन के लिए कुछ निश्चित लक्ष्यों का निर्धारण होना आवश्यक है इसी के आधार पर ही योजनाएं तैयार की जाती है और इससे लक्ष्यों की प्राप्ति में सुगमता होती है।
2. सर्वोत्तम विकल्प का चयन- योजना बनाते समय विभिन्न विकल्पों को तैयार कर उनकी तुलना की जाती हैं, तत्पश्चात् उनमें से श्रेष्ठ का चुनाव कर कार्य हेतु योजनायें एवं नीतियॉं बनार्इ जाती हैं।
3. प्रबंध की प्रारंभिक क्रिया- प्रबंध के लिए विभिन्न कार्यो में से प्रथम प्रक्रिया नियोजन का क्रिया है इसके पश्चात् ही प्रबंध के कार्य प्रारंभ हो सकती है।
4. उद्देश्य का आधार- नियोजन संस्था के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बनाया जाता है उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जिस-जिस कार्यो को करना होता है, उसी के संदर्भ में नियोजन किया जाता है। नियोजन निर्माण का उद्देश्य संस्था के उद्देश्यों की कम से कम लागत एवं अधिकतम सफलता की प्राप्ति के लिए किया जाता है।
5. सर्वव्यापकता- सम्पूर्ण प्रबंन्ध में नियोजन व्याप्त है, प्रबन्ध के प्रत्येक क्षेत्र में नियोजन का अस्तित्व है, प्रत्येक प्रबन्धक को योजनाये बनानी पड़ती है। इसी प्रकार फोरमेन भी अपने स्तर पर योजनायें बनाता है अत: यह सर्वव्यापी है।
6. लोचता- योजना में लोच का गुण अवश्य रहता है, अर्थात आवश्यकतानुसार उसमें परिवर्तन करना पड़ता है, योजनायें जितनी लचीली होंगी, योजना उतनी सफल होती है अत: योजना में लोचता होनी चाहिए।
7. बौद्धिक प्रक्रिया- नियोजन निश्चित रूप से एक बौद्धिक प्रक्रिया है चुंकि विभिन्न विकल्पों में किसी श्रेष्ठ विकल्प का चयन करना होता है जो कि तर्को सिद्धांतो एवं संस्था कि हितो को ध्यान में रखकर निर्णय लिया जाता है।
नियोजन के संदर्भ को कून्ट्ज एवं ओ डोनेल ने भी स्वीकार किया है और इसे एक बौद्धिक प्रक्रिया माना है।
8. निरंतर चलने वाली प्रक्रिया- यह एक निरंतर रूप से चलने वाली प्रक्रिया है जो कि अनेक कार्यो के लिए व्यापार के विकास के साथ-साथ हर कार्यो हर स्तरों निर्माण विकास एवं विस्तार के लिए इसकी आवश्कता होती है अत: यह एक न रूकने वाली सतत् प्रक्रिया है।
9. अन्य
- नियोजन अंतर विभागीय क्रिया है।
- नियोजन से कार्यकुशलता मे वृद्धि होती है।
- नियोजन एक मार्गदर्शक है।
नियोजन का महत्व,आवश्यकता या लाभ
नियोजन_के महत्व एवं लाभ को बिन्दुवार निम्नानुसार स्पष्ट किया जा सकता है-
1. लक्ष्य प्राप्ति में सहायक- नियोजन की शुरूआत लक्ष्य से होती है इन लक्ष्यों को तभी प्राप्त किया जा सकता है जब उपक्रम की समस्त क्रियाएं पूर्व नियोजित हो जिससे कि प्रत्येक कार्य व्यस्थित व सही समय पर पूर्ण किया जा सके।
2. साधनों का सर्वोत्तम उपयोग- नियोजन निर्माण के समय संस्था में प्रयुक्त साधनों के विकल्पो पर विचार करते हुए सर्वोत्तम का प्रयोग किया जाता है जो कि योजना का एक भाग होता है इस प्रकार उत्पादन के प्रभावशाली साधनों का नियोजन के माध्यम से सर्वोत्तम प्रयोग का अवसर प्राप्त होता है।
3. न्यूनतम लागत- नियोजन के माध्यम से चयनित विकल्पों के कारण उत्पादन के लागत मे कमी करने में सहायता प्राप्त होती है। नियोजन के द्वारा अनुपात्दक एव अनावश्यक क्रियाओं को समाप्त करते हुए सीमित साधनों का सदुपयोग करने से लागत मे भी स्वत: कमी आती है।
4. मनोबल में वृद्धि- नियोजन की प्रक्रिया के अंतर्गत विभिन्न विकल्पों में से श्रेष्ठ विकल्पों के चयन से अधिकारी एवं कर्मचारी के मध्य आत्मविश्वास बढ़ता है और वे सफलता पूर्वक संस्था के कार्य को संपादित करते है।
5. निर्णय लेने में सुविधा- नियोजन से प्रबंधको को निर्णय करने मे दिशा प्राप्त होती है लक्ष्य प्राप्ति के लिए कार्य प्रणाली को ध्यान में रखकर तैयार की गयी योजना से लक्ष्य हासिल करने और कार्य योजना संबंधी दिशा-निर्देश तैयार करने में मदद मिलती है।
6. समन्वय एवं नियंत्रण- नियोजन से समन्वय प्राप्त करने और नियंत्रण में मदद मिलती है सही तरीके से तैयार की गयी योजना में कार्यप्रणाली के बारे में निर्देश निहित होते है। इससे समन्वय अधिक प्रभावशाली होता है इससे विचलनों की पहचान करने और सुधारात्मक कार्यवाही करने मे ंसहायता मिलती है।
7. परिवर्तनुसार विकास- लचीली योजनाएं हमेशा संगठन के लिए स्वीकार्य होती हैं दूसरे शब्दों में कहें तो योजना से किसी भी संगठन को बदलती स्थितियों और वातावरण के अनुरूप तालमेल बिठाने में मदद मिलती है।
8. भावी अनिश्चितता में कमी- नियोजन से क्रियाकलापों में अनिश्चितताएं, जोखिम और भ्रामक स्थितियां कम हो जाती हैं योजना के माध्यम से हर किसी को इस बात का पता चलता है कि भविष्य में क्या करना है।
हर किसी को यह पता होता है कि वास्तव में क्या करने की आवश्यकता है इससे एक प्रकार का दिशा-निर्देश प्राप्त होता है परिणामस्वरूप कार्य प्रणाली में गतिशीलता आती है।
9. अन्य
- न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन की प्राप्ति के लिए।
- अभिप्रेरणा का लाभ प्राप्त करने के लिए।
- अधिकारों का भार्रापण हेतु।
- कुशल संप्रेषण हेतु।
- राष्ट्र समाज व शैक्षणिक संस्थानों के लिए भी नियोजन महत्वपूर्ण है।
भारत में नियोजन का इतिहास (History of planning in India)
भारत में आर्थिक नियोजन के विचार के प्रतिपादक या नियोजन की शुरुआत आधुनिक भारत के सुप्रसिद्धि इंजीनियर एम विश्वेश्वरैया (भारत रत्न) द्वारा 1934 में लिखित पुस्तक “Planed Economy For India” से मानी जाती है। इनके द्वारा प्रस्तुत योजना 10 वर्षीय थी। जिसके उद्देश्य निम्न है-
- राष्ट्रीय आय को दुगुना करना।
- औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि करना।
- लघु एवं बडे उद्योगों में सम्मिलित रूप से वृद्धि करना।
- व्यय व आय में संतुलित वृद्धि करना।
यह योजना नियोजित आर्थिक विकास की दृष्टि से भारत की प्रथम योजना थी, जिसके उद्देश्य महत्वपूर्ण थे;लेकिन आर्थिक कठिनाईयों और सरकारी उपेक्षा के कारण साकार रूप नहीं ले सकी।
कांग्रेस योजना (Congress planning)
- 1938 में कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस की पहल पर राष्ट्रीय योजना समिति का गठन
- समिति अध्यक्ष – जवाहर लाल नेहरु
- उद्देश्य – अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों के विकास की ठोस नीति एवं कार्यक्रम तैयार करना। समिति नें रिपोर्ट द्वितीय विश्व युद्ध के कारण 1948 में जारी की।
सुझाव-
- मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाना।
- सहकारी कृषि क्षेत्र का विकास
- लघु व वृहत् उद्योगों का समुचित विकास।
- कृषि क्षेत्र को उचित ऋण की उपलब्धता।
राजनीतिक परिवर्तन के कारण यह योजना सफल नहीं हो पाई।
वर्ष 1944 में बंबई के 8 उद्योगपतियों ने ‘एक संक्षिप्त ज्ञापन भारत के लिए आर्थिक विकास की एक योजना की रूपरेखा तैयार’ (A brief memorandum outline a plan of economic development for India) नामक शीर्षक के अंतर्गत बॉम्बे योजना (Bombay Plan) पेश किया। यह योजना 15 वर्षीय थी जिसके प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैं:राष्ट्रीय आय को तीन गुना करना।
- प्रतिव्यक्ति आय को दो गुना करना।
- औद्योगिक क्षेत्र के उत्पादन को पांच गुना करना।
- शिक्षा को प्राथमिकता देना।
- नागरिकों को 2,600 केलोरी भोजन, 30 गज कपड़ा एवं 100 वर्ग फीट भूमि की न्यूनतम पूर्ति सुनिश्चित करना।
नोटः इस योजना को पूर्णता पूंजीवादी घोषित कर दिया गया जिसके फलस्वरूप यह योजना भी लागू न हो सकी। इस योजना को टाटा-बिड़ला योजना के नाम से भी जाना जाता है।
वर्ष 1944 में ही रूसी योजना से प्रेरणा लेते हुए साम्यवादी (Communism) दल के नेता एम- एन- राय ने ‘जन योजना’ (The Peoples Plan) नामक योजना प्रस्तुत की। यह योजना 10 वर्षीय थी। जिसका प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैः
- 10 वर्ष में जनता की आधारभूत आवश्यकताओं को पूरा करना।
- रोजगार सुविधाओं का विस्तार करना।
नोटः यह योजना पूर्णता साम्यवादी विचारधारा पर आधारित होने के कारण इसे देश के लिए उपयुक्त नहीं समझा गया।
वर्ष 1944 में गांधीजी के आर्थिक विचारों से प्रभावित होकर श्री मन्नारायण द्वारा ‘गांधीवादी योजना’ प्रस्तुत की गई। यह योजना 10 वर्षीय थी जिसका प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैः
- जन समुदाय के जीवन स्तर को ‘निर्धारित न्यूनतम सीमा’ तक लाना।
- प्रत्येक नागरिक को 2,600 कैलोरी युक्त संतुलित भोजन, 120 गज कपड़ा और 100 वर्ग फीट आवासीय भूखंड प्रदान करना।
नोटः यह योजना ‘आत्म अनुशासन’ पर आधारित होने के कारण आव्यवहारिक थी साथ ही वित्तीय संसाधनों के अभाव में उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति करना संभव नहीं था अतः इस योजना को भी क्रियान्वित नहीं किया जा सका।
30 जनवरी, 1950 में ‘जय प्रकाश नारायण’ द्वारा सर्वोदय योजना प्रस्तुत की गई। इस योजना का प्रमुख उद्देश्य इस प्रकार हैः
- शोषण विहीन समाज की स्थापना करना।
- आय एवं सम्पत्ति की असमानता को समाप्त करना
- उद्योगों का संचालन सरकार द्वारा किया जाना।
- भूमि का पुर्नवितरण करना।
- सहकारी खेती का विकास करना।
- विदेशी लाभ अर्जित करने वाले प्रतिष्ठानों पर कठोर नियंत्रण लगाना।
- संपूर्ण राज्य की आय 50% भाग ग्राम पंचायतों द्वारा तथा शेष 50% भाग शासकीय सत्ता द्वारा व्यय किया जाना।
नोटः यह योजना सरकार ने पूर्णरूप से नही अपनाई किन्तु इस योजना के कुछ उद्देश्यों को अपना लिया गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत यह महसूस किया गया कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक नियोजन को अपनाया जाए। अतः जनवरी 1950 में ‘संयुक्त राष्ट्र मंडल’ (Common Wealth Nations) की राष्ट्रीय सरकारों का एक सम्मेलन कोलम्बो में बुलाया गया जिसमें एक ‘सलाहकारी समिति’ (Advisory Committee) बनाई गई।
इस समिति ने 1951 से 1957 तक राष्ट्रमंडल देशों के विकास के लिए कुल 1868 मिलियन पौंड व्यय करने की सिफारिश की।
उपरोक्त सभी योजनाएं किसी न किसी कारणवश मूर्तरूप नहीं ले पाई परन्तु इन योजनाओं ने भारत के लिए नियोजन (Planning) का एक उपयुक्त माहौल तैयार कर दिया था।
जिसके फलस्वरूप भारत में ‘योजना आयोग’(Planning Commission) का गठन 15 मार्च, 1950 को एक गैर-संवैधानिक (Non-constitutional) एवं परामर्शदात्री निकाय के रूप में किया।
कोलंबो योजना
द्वितिय विश्व युद्ध के बाद कई राष्ट्रों की इच्छा की थी युद्ध जनित समस्याओं का समाधान आर्थिक नियोजन के माध्यम से किया जाये।
समाधान अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर किया जाये। इसलिये संयुक्त राष्ट्र संघ का एक सम्मेलन जनवरी 1950 में श्रीलंका की राजधानी कोलंबो में रखा गया।
इसमें भारत सहित 26 देशों ने भाग लिया। इन देशों द्वारा सामूहिक तथा संभावित विकास के लिये एक योजना तैयार की गयी, जिसको “कोलंबो योजना” का नाम दिया गया।
भारत में नियोजन की समस्याएं (Problems of Planning in India)
भारत जैसे विकासशील देशों में आर्थिक नियोजन की प्रक्रिया को सफल बनाने में अनेक कठिनाईयों का सामना करना होता है। इन कठिनाईयों को 3 वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैः
आधारभूत समस्याएं ( Basic problems )
- नियोजन निर्माण की समस्या।
- नियोजन के सफल क्रियान्वयन की समस्या।
- जनसंख्या आधिक्य
- पूंजी की कमी
- तकनीकी ज्ञान की समस्या
नियोजन के निर्माण की समस्याएं (Problems for employment generation)
- प्राथमिकताओं के निर्धारण की समस्या जिसके अंतर्गत यह सुनिश्चित करना कठिन होता है कि कृषि को महत्त्व दे या औद्योगिक क्षेत्र के निवेश पर या उपभोग पर जोर दे।
- पर्याप्त एवं विश्वसनीय आंकड़ों का अभाव।
- नियोजन तकनीक की समस्या, जैसे—श्रम प्रधान तकनीक अपनाए या पूंजी प्रधान तकनीक, संतुलित विकास का रास्ता अपनाए या असंतुलित विकास का।
नियोजन के सफल क्रियान्वयन की समस्या ( Problem of successful execution of employment )
- जन सहयोग का अभाव।
- कुशल प्रशासन का अभाव।
- मुद्रास्फीति की समस्या।
आर्थिक नियोजन की सफलता के लिए आवश्यक तत्व (Necessary Element for Success of Economic Planning)
- सांख्यिकी आंकड़ों की पर्याप्त एवं विश्वसनीय उपलब्धता।
- आर्थिक संगठन जो नियोजन के कार्य को प्रोत्साहन दे।
- शक्तिशाली सरकार एवं कुशल प्रशासनिक मशीनरी।
- निश्चित उद्देश्यों एवं प्राथमिकताओं का होना।
- राजनीतिक स्थायित्व।
- गतिशील सामाजिक दृष्टिकोण।
- व्यापकता अर्थात् अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रें का समावेश नियोजन में होना चाहिए।
- विदेशी सहायता।
- जन सहयोग।
नियोजन के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधन (Necessary Financial Resources for Planning)
- नियोजन की सफलता मुख्य रूप से वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता पर निर्भर करती है। योजना के लिए वित्तीय संसाधनों का संग्रह कई ड्डोतों से हो सकता है। प्रमुख ड्डोत निम्नलिखित हैः
- करारोपण (Taxation)
- सार्वजनिक ऋण (Public Borrowing)
- सार्वजनिक उपक्रमों से बचत (Saving in Public Sector)
- अल्प बचतें (Small Saving)
- विदेशी ऋण एवं सहायता (Foreign Debt and aid)
- घाटे की वित्त व्यवस्था (Deficit Financing)
उपरोक्त सभी वित्तीय ड्डोतों के अपने-अपने गुण, दोष एवं सीमाएं है एक विकासशील देश की आवश्यकताएं इतनी अधिक व्यापक होती है कि कोई भी एक ड्डोत पर्याप्त मात्र में वित्तीय संसाधनों को जुटानों में समर्थ नहीं हो सकता।
ने नियोजन संबंधी वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विभिन्न ड्डोतों का सहारा लिया है। वित्तीय संसाधनों के तीन स्त्रोतों—अधिक करारोपण, अधिक विदेशी सहायता एवं अधिक घाटे की वित्त व्यवस्था ये तीनों न तो जनहित में है और न ही देश हित में उचित है।
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