राजकोषीय नीतियाँ
राजकोषीय नीतियाँ
Fiscal Policy Economics
राजकोषीय नीति का संबंध राजस्व से है, जो कि सार्वजनिक आय, सार्वजनिक व्यय एवं सार्वजनिक ऋण से संबंधित है। मंदी के समय घाटे का बजट वांछित होता है, जबकि स्फीतिक दशाओं में आधिक्य बजट अपनाया जाना चाहिए। मंदी के समय आर्थिक क्रियाओं को गति देने के लिए समुद्दीपन व्ययअपनाया जाना चाहिए ।
मौद्रिक एवं राजकोषीय नीति या वस्तुतः प्रतिस्पर्धी न होकर पूरक है ,जिनके उचित समन्वय द्वारा ही पूर्ण रोजगार आर्थिक स्थायित्व के उद्देश्य प्राप्त किए जा सकते हैं क्षतिपूरक राजकोषीय नीति का आशय ऐसी नीति से है, जिसमें कर एवं व्यय में समायोजन करके अर्थव्यवस्था की मुद्रा स्फीति एवं मुद्रा संकुचन के दुष्परिणामों से बचाया जा सके
कीन्स और लर्नर राजकोषीय नीति को सक्रिय एवं प्रभावी मानते हैं और मौद्रिक नीति को अप्रभावी और निष्क्रिय। राजकोषीय नीति अर्थव्यवस्था की संवृद्धि निष्पादन को सुधारना तथा लोगों को सामाजिक न्याय प्रदान करने से है।
यह राजकोषीय नीति सरकार के सार्वजनिक व्यय, सार्वजनिक आय ,सार्वजनिक ऋण तथा उसके प्रबंधन से संबंधित है राजकोषीय नीति के द्वारा सरकार अर्थव्यवस्था में रोजगार ,राष्ट्रीय उत्पादन, आंतरिक एवं बाह्य आर्थिक स्थिति इत्यादि उद्देश्यों को प्राप्त करती है
राजकोषीय नीति अर्थव्यवस्था की संवृद्धि को दो प्रकार से प्रभावित करती है, विकास के लिए साधनों का एकत्रण करना तथा दूसरा साधनोंके आवंटन द्वारा कार्यकुशलता में सुधार करना।
अर्थनीति के सन्दर्भ में, सरकार के राजस्व संग्रह (करा रोपण) तथा व्यय के समुचित नियमन द्वारा अर्थव्यवस्था को वांछित दिशा देना राजकोषीय नीति(fiscal policy) कहलाता है। अतः राजकोषीय नीति के दो मुख्य औजार हैं -कर स्तर एवं ढांचे में परिवर्तन तथा विभिन्न मदों में सरकार द्वारा व्ययमें परिवर्तन।
राष्ट्रीय स्तर पर सोच समझ कर ऐसे उपाय करना जो अर्थव्यवस्था और उसके क्षेत्रों की कार्यकारी प्रणाली और विकास पर प्रभाव डालते है।
भारत की राजकोषीय नीति: उद्येश्य और प्रभाव ( India’s fiscal policy: entrepreneurship and impact )
राजकोषीय नीति का अर्थ है- स्थिरीकरण या विकास के लिए सरकार द्वारा कराधान और सार्वजनिक व्यय का उपयोग है।
कुलबर्सटॉन के अनुसार, “राजकोषीय नीति का अर्थ सरकारी कार्रवाई द्वारा इसकी प्राप्तियों और व्यय को प्रभावित करना है जिसे आमतौर पर सरकार की प्राप्तियों के रूप में मापा जाता है, यह अधिशेष या घाटे के रूप में होती है।
सरकार सार्वजनिक व्यय और करों के द्वारा व्यक्तिगत आय के स्तर और सम्पूर्ण आय को भी प्रभावित कर सकती है राजकोषीय नीति, आर्थिक आंकड़ों और प्रभावों मौद्रिक नीति को भी प्रभावित करती है।
जब सरकार अपने खर्च की तुलना में अधिक आय प्राप्त करती है तो इसे अधिशेष के रूप में जाना जाता है। जब सरकार अपनी आमदनी से ज्यादा खर्च करती है तो इसे घाटे की स्थिति कहा जाता है। इस अतिरिक्त व्यय को पूरा करने के लिए सरकार, घरेलू या विदेशी स्रोतों से उधार लेती है, बांड जारी करती है और नयी मुद्रा को भी प्रिंट करती है
एक व्यापक परिदृश्य में देखा जाए तो पैसे का अत्यधिक मुद्रण, अर्थव्यस्था में मुद्रास्फीति को बढ़ाने में मदद करता है। यदि सरकार विदेशों से ज्यादा मात्रा में उधार लेती है, तो यह देश को एक ऋण संकट की ओर ले जाता है। ज्यादा मात्र में विदेशों से उधार लेने से देश के विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव बढ़ता है, और देश का भुगतान संतुलन बिगड़ सकता है
अतः राजकोषीय नीति एक दुधारी तलवार है, जिसे बहुत ही सावधानी से चलाने की जरूरत है।
भारत में राजकोषीय नीति का मुख्य उद्देश्य ( Objective of the fiscal policy in India ) :-
किसी भी देश की राजकोषीय नीति का मुख्य उद्देश्य सैद्धान्तिक रूप से, क्रियात्मक वित्त प्रबन्धन (Functional Finance Managemnat)तथा कार्यशील वित्त प्रबन्धन की व्यवस्था करना है।दूसरे शब्दों में आर्थिक विकास के लिए आवश्यक एवं पर्याप्त मात्रा में धन की व्यवस्था करना राजकोषीय नीति का मुख्य कार्य है।
द्यपि राजकोषीय नीति के उद्देश्य किसी राष्ट्र विकास के लिए उसकी परिस्थितियों, विकास सम्बन्धी आवश्यकताओं और विकास की अवस्था के आधार पर निर्धारित किये जाते है फिर भी सामान्य दृष्टि से अल्प-विकसित एवं विकासशील देशों की राजकोषीय नीतिके प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित कहे जा सकते हैं
राजकोषीय नीति के सामान्य उद्देश्यों नीचे दिए गए हैं :-
- पूर्ण रोजगार की स्थिति को बनाए रखना।
- मूल्य स्तर को स्थिर रखना।
- अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को स्थिर रखना।
- भुगतान संतुलन को संतुलित बनाए रखना।
- अविकसित देशों के आर्थिक विकास को बढ़ावा देना।
भारत की राजकोषीय नीति के हमेशा दो उद्देश्य रहे हैं— अर्थव्यवस्था के विकास के प्रदर्शन में सुधार करना और लोगों के लिए सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना है।
राजकोषीय उतरदायित्व और बजटीय प्रबंधन अधिनियम 2003 ( Fiscal responsibility )
यह अधिनियम सन 2000 में संसद में प्रस्तुत किया गया। लोकसभा में पारित तिथि 7 मई 2003 हुआ, 5 जुलाई 2004 लागू किया गया
महत्वपूर्ण पक्ष –
- इसमे राजस्व घाटे व राजकोषीय घाटे को चरणबद्ध तरीके से इस प्रकार कम करना था कि 2008 – 09 में राजकोषीय घाटा 3 % के स्तर पर तथा राजस्व घाटा 0% स्तर पर लाया जाये।
- इसका उद्देश्य वित्तीय अनुशासन को संस्थागत रूप देना, वित्तीय घाटे को कम करना व लघु आर्थिक प्रबंधन को बढ़ावा देने के साथ ही बैलेंस और पेमेंट को व्यवस्थित करना है।
महत्वपूर्ण तथ्य ( Important facts )
- अतीत में एफआरबीएम अधिनियम की उपयोगियता अत्यधिक सार्वजनिक खर्च निरोधक, राजस्व घाटा को समाप्त करने और राजकोषीय घाटे को कम करने का एक उपाय के रूप में देखी गयी थी।
- एफआरबीएम अधिनियम का इतिहास मिश्रित रहा है जिसके द्वारा अतीत में सफलताएं और विफलताएं दोनों हासिल हुई हैं।
- वर्तमान में सरकार ने इस अधिनियम की समीक्षा करने और इसमें सुधार करने हेतु एक पैनल का गठन करने का प्रस्ताव दिया है जो सुझाव भी प्रदान करेगा।2003 में इसके गठन के बाद से ही भारत सरकार इस अधिनियम का पालन कर रही है।
- वित्त वर्ष 2004 से लेकर वित्त वर्ष 2008 तक इसका कड़ाई से पालन किया गया। उस समय, राजकोषीय घाटे में तेजी से कमी हुई थी और राजस्व घाटे में सकल घरेलू उत्पाद की 2% की कमी आई थी।
- वर्ष 2009 में आम चुनाव और वैश्विक आर्थिक संकट की वजह से एफआरबीएम अधिनियम का काफी उल्लंघन किया गया था और राजकोषीय घाटे में सकल घरेलू उत्पाद के मुकाबले 6% तक वृद्धि हुई है।
- राजकोषीय घाटा अगले दो साल के लिए अनावश्यक रूप से बढ़ना जारी रहा। इसके बाद, एफआरबीएम को 1 साल के लिए निलंबित कर दिया गया था और यह केवल वित्तीय साल 2012 में इस फिर से लागू किया गया था।
- 2014 के बाद राजग सरकार सत्ता पर काबिज हुई जिसने समझदारी से इस एक्ट को जारी रखा, लेकिन वर्ष 2015 के चालू वित्त वर्ष में यह लक्ष्य को प्राप्त करने में नाकाम रहा। इस अवधि में 0.4 फीसदी वेतन वृद्धि के कारण सकल घरेलू उत्पाद में सार्वजनिक निवेश के राजकोषीय समायोजन में देरी हुई।
- वित्त वर्ष 2016 में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 3.5% से बढ़कर सकल घरेलू उत्पाद के 3.9% पर पहुंच गया था। राजकोषीय घाटे में वृद्धि के बावजूद, केन्द्र सरकार के सार्वजनिक निवेश में सकल घरेलू उत्पाद का योगदान बेहद ही कम 2% का रहा क्योंकि कुल सार्वजनिक निवेश और उद्यमों तथा राज्य एवं स्थानीय सरकारों द्वारा किया गया कुल सार्वजनिक निवेश सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 8-9 % तक रहा।
एफआरबीएम अधिनियम में समस्याएं और उनका समाधान ( Problems and their solutions in the FRBM Act )
तीन प्रमुख समस्याओं के साथ इस अधिनियम की समीक्षा किए जाने की आवश्यकता है-
1⃣ सबसे पहले, एफआरबीएम अधिनियम का फोकस केवल केंद्रीय बजट है जबकि सरकार को केंद्र, राज्यों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) को ध्यान में रखते हुए सार्वजनिक क्षेत्र के उधार लेने की आवश्यकता (PSBR) पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
भारत का पीएसबीआर राजकोषीय घाटे की तुलना में बहुत अधिक है। हाल के वर्षों में ये दोनों अलग अलग दिशाओं में शिफ्ट हुए हैं। भारत का राजकोषीय घाटा कम हो गया है, लेकिन पीएसबीआर बढ़ोत्तरी हो रही है।
2⃣ दूसरा, अतीत में भी केंद्र सरकार का राजस्व घाटा काफी ऊंचे स्तर तक पहुंचा है। एफआरबीएम अधिनियम का लक्ष्य राजस्व घाटे को कम करना होता है, लेकिन 1998- 2003 की संक्षिप्त अवधि को छोड़कर पिछले 25 वर्षों से भी अधिक तक इसके सार्वजनिक क्षेत्र के राजस्व में कोई पूर्ति नहीं हुई।
नतीजतन, केंद्र सरकार को उपभोग व्यय की वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के लिए उधार लेना पड़ा। और सार्वजनिक क्षेत्र ने भी समग्र उधार लेने की तुलना में भी अधिक का निवेश किया है। इसलिए यह एकमात्र तथ्य केंद्र सरकार के वित्त की एक गलत तस्वीर पेश करता है।
भारत को न केवल सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों द्वारा अधिक निवेश की आवश्यकता है, बल्कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए परिवहन, सिंचाई, ऊर्जा और सामाजिक बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं पर केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा भी अधिक निवेश की जरूरत है।
इसलिए, यह कहा जा सकता है कि, यदि केंद्र सरकार द्वारा उपरोक्त तथ्यों को लागू किया जाता है तो इससे केंद्र को सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों से ज्यादा लाभांश मिल सकता है और इन उपक्रमों को अपना रणनीतिक निवेश कोष का आवंटन भी करना होगा।
3⃣ तीसरा, राजकोषीय नीति की प्रकृति में विपरीत चक्रीय होनी चाहिए, ताकि एफआरबीएम स्वत: नियमों का निर्माण कर उनको लागू कर सके। चक्रीय लचीलेपन से इससे सुधार होगा और भविष्य के लिए उम्मीद भी बनेगी।
वर्तमान अधिनियम में इस तरह का चक्रीय लचीलापन शामिल नहीं है। इसी का परिणाम था कि वैश्विक संकट के समय में सरकार के पास एफआरबीएम के नियमों का उल्लंघन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
नतीजतन, राजकोषीय घाटा में सकल घरेलू उत्पाद के 6.5% तक वृद्धि हुई है और पीएबीआर सकल घरेलू उत्पाद का 8% से भी अधिक था।
राजकोषीय नीति में सुधार के उपाय ( Measures to improve fiscal policy )
- भारत की राजकोषीय नीति में सुधार के लिए निम्नलिखित कुछ सुझाव दिये जा सकते हैं-
- काले धन के कारण देश में दाहे री अर्थव्यवस्था की लगातार वृद्धि हो रही है। इससे देश को भारी क्षति का सामना करना पड़ रहा है। अत: इसे रोकने के उपाय खोजे जायें।
- प्रत्यक्ष करों की दर में वृद्धिकी जाय, साथ ही परोक्ष करों का विस्तार किया जाय।
- गैर-योजनागत व्ययों में कमी की जानी चाहिए।
- सार्वजनिक उपक्रमों की व्यवस्था में सुधार लाया जाय।
- विदेशी ऋणों पर निर्भरता को कम किया जाना चाहिए।
- बढ़ते हुए राजस्व घाटे को कम किया जाय।
- राजकोषीय_घाटा उस वर्ष की अनुमानित जीडीपी के 2 प्रतिशत सेअधिक नहीं होना चाहिए।
- राजकोषीय_नीति व मौद्रिक नीति में आपसी तालमले बैठाया जाय।
राजकोषीय_संकेतक ( Fiscal indicators )
अग्रिम अनुमान (2017-18)
- सकल घरेलू उत्पाद- 12985363 करोड रु
- आर्थिक विकास दर- 6.5%
- प्रतिव्यक्ति आय – 111782 रु
- विदेशी मुद्रा भंडार – 409.4 अमेरिकी बिलियन डॉलर
- राजकोषीय घाटा –GDP का 3.2% (2016-17 में – 3.5%)
- राजस्व घाटा – 1.9% (2016-17 में – 2.1%)
- प्राथमिक घाटा – 0.1% (2016- 17 में – 0.4%)
निष्कर्ष ( Conclusion ):
तकनीकी विशेषज्ञों के साथ एक राजकोषीय परिषद की स्थापना करना उपयोगी होगा और प्रत्येक बजट की राजकोषीय स्थिरता को बेहतर तरीके से समझा जा सकेगा। यह एफआरबीएम अधिनियम एक लंबी अवधि के तहत वित्तीय वर्ष के प्रक्षेप वक्र की कल्पना करने के लिए उपयोगी साबित होगा।
इसके परिणाम स्वरूप इससे निश्चित रूप से संसदीय अंतर्दृष्टि की गुणवत्ता में सुधार होगा और इससे एक उपयोगात्मक सार्वजनिक बहस को भी बढ़ावा मिलेगा। आदर्श रूप में यह कहना उचित होगा कि एफआरबीएम अधिनियम को विभिन्न संख्याओं के साथ निर्धारित नहीं करना चाहिए। सरकार से यह कहा जाना चाहिए कि सरकारी कर्ज-जीडीपी अनुपात निहितार्थ और अधिक संख्या के निहितार्थ का एक स्पष्ट विश्लेषण पेश करे।
सरकार से एक अर्थव्यवस्था के अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं के बारे में भी पूछा जाना चाहिए, जैसे- मंहगाई और कम से कम हर पांच साल तक वित्त वर्ष प्रक्षेप वक्र के बारे में पूछा जाना चाहिए। इससे लक्ष्य प्राप्ति के लिए और अधिक स्पष्टता होगी तथा एक स्वस्थ्य बहस भी हो सकेगी।
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