Ancient Art Culture (प्राचीन कालीन कला व संस्कृति)
भारतीय Art Culture का इतिहास अत्यंत प्राचीन है । प्रागतिहासिक काल में मानव ने जंगली जानवरों बारहसिंघा, भालू , हाथी, आदि के चित्र बनाना सीख लिया था । महाराष्ट में स्थित कुछ गुफाओं में प्रागतिहासिक काल के जानवरों के Art Culture बनाए हुए है, जिसका वह शिकार करता था ।
अनेक स्थानो पर मानव की कला के प्रमाण प्राप्त हुए हैं । इससे स्पष्ट होता है कि भारतीय Art Culture आदिकालीन है । यह परम्परा का प्रेम भारतीय संस्कृति सभ्यता का उन्नति का कारण है ।
वैदिक साहित्य
चारों वर्णों के कर्तव्यों का सर्वप्रथम वर्णन ऐतेरेय ब्राह्मण में मिलता है। छांदोग्य उपनिषद में ‘इतिहास पुराण’ को पंचमवेद कहा गया है याज्ञवल्क्य -गार्गी संवाद का उल्लेख वृहदारण्यक उपनिषद में मिलता है।
यम -नचिकेता की कहानी( कथा) कठोपनिषद में है । यह कृष्ण यजुर्वेद की कठशाखा का उपनिषद है। तैतीरिय ब्राह्मण ग्रंथ के अनुसार ब्राह्मण सूत का, क्षेत्रीय सन का और वैश्य ऊन का यज्ञोपवीत धारण करते थे।
पुनर्जन्म का सिद्धांत सर्वप्रथम शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार राजा को प्रजा का अनुमोदन होना चाहिए । शतपथ ब्राह्मण में कुलाल चक्र (कुम्हार का चक्र) का उल्लेख है। अथर्ववेद का पृथ्वी सूक्त वैदिक राष्ट्रीय गीत माना जाता है।
विदुषी लोपामुद्रा अगस्त्य ऋषि की पत्नी थी। लोपमुद्रा ने कई वैदिक ऋचाओं की रचना की । याज्ञवल्क्य की दो पत्नियां मैत्रेयी और कात्यायनी थी। वृहदारण्यक उपनिषद् सबसे बड़ा उपनिषद है। इसके प्रधान प्रवक्ता महर्षि याज्ञवल्क्य है जो आरुणि उद्दालक के शिष्य थे ।
श्वेताश्वर उपनिषद रूद्र देवता को समर्पित है। इसमें रुद्र के परवर्ती नाम शिव का उल्लेख हुआ है।इस काल का सबसे बड़ा लौह पुंज अंतरजीखेड़ा में मिला है ,उत्तर वैदिक भारत की प्राचीन लौह युगीन बस्तियां वैदिक कालीन चित्रित घूसर मृदभांड से संबद्ध है ।
गोपथ ब्राह्मण की रचना ब्राह्मण ग्रंथों में सबसे अंत में हुई। अंबिका का रूद्र की बहन के रूप में उल्लेख तैतिरिय ब्राह्मण व शतपथ ब्राह्मण में हुआ है। श्राद्ध प्रथा की शुरुआत दत्तात्रेय ऋषि के बेटे निमि ने की। शल्यक्रिया का उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है।
भारत का राष्ट्रीय वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ मुंडक उपनिषद से लिया गया है। जबकि शून्य का उल्लेख यजुर्वेद में है। शतपथ ब्राह्मण में रेवा ( नर्मदा) सदानीरा ( गंडक) नदी तक आर्य सभ्यता के विस्तार का उल्लेख मिलता है। मगध व अंग महाजनपदों का प्राचीनतम उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है
‘निरवसित’ एवं अनिरवसित (वर्जित एवं अवर्जित) शूद्रों का उल्लेख पाणिनी की अष्टाधायी में लिखा है। ग्रह सूत्रों में सर्वप्रथम संस्कारों का विवेचन मिलता है। संस्कारों का प्रचलन वैदिक काल से हुआ किंतु वैदिक साहित्य में इसका वर्णन नहीं मिलता है।
गौतम धर्म सूत्रों में संस्कारों की संख्या 40 दी है तथा वैखानस धर्मसूत्र में 18 संस्कार बताए गए हैं। परंतु प्राय सभी धर्मशास्त्रकार संस्कारों की संख्या 16 मानते हैं।
विविध आयाम स्थापत्य :-
सिन्धु सभ्यता की Art Culture :-
प्राचीन भारत की दृष्टि से हड़प्पा सभ्यता की Art Culture अत्यंत प्राचीन है । हड़प्पा सभ्यता के निर्माता नगर और भवन निर्माण Art Culture में दक्ष थे मोहनजोदडो में एक सार्वजनिक भवन एवम विशाल स्नानाघर के अवशेष प्राप्त हुए हैं, जिनसे हड़प्पा स्थापत्य Art Culture पर प्रकाश पड़ता है।
शिक्षा, भाषा और साहित्य
मौर्य काल में शिक्षा, भाषा और साहित्य के क्षेत्र में अच्छी उन्नति हुई। मौर्य कालीन शासकों के संरक्षण में शिक्षा की उन्नति को अनुकूल अवसर मिला। तक्षशिला उच्च शिक्षा का सुविख्यात केन्द्र था। यहाँ दूर-दूर के देशों से विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे।
कौशलराज प्रसेनजित् तक्षशिला के विद्यार्थी के रूप में रह चुका था। सम्राट् बिम्बिसार का राजवैद्य जीवन तक्षशिला का ही आचार्य था। चन्द्रगुप्त मौर्य कुछ समय तक तक्षशिला में आचार्य चाणक्य का शिष्य बनकर रह चुका था। इसी प्रकार अनेक राजकुमार तक्षशिला में अध्ययन किया करते थे।
तक्षशिला के आचार्य अपने ज्ञान के लिए सुविश्रुत थे। तक्षशिला में तीनों वेद, अष्टादश दिया, विविध शिल्य, धनुर्विद्या, हस्ति विद्या, मंत्र विद्या, चिकित्सा शास्त्र आदि की शिक्षा दी जाती थी। मौर्य काल में तक्षशिला जैसे उच्च शिक्षा- केन्द्रों के अतिरिक्त गुरुकुलों, मठों तथा विहारों में शिक्षा दी जाती थी। राजगृह, वैशाली, श्रावस्ती, कपिलवस्तु आदि नगर शिक्षा के सुविख्यात केन्द्र थे।
इन शिक्षा केन्द्रों को राज्य की ओर से आर्थिक सहायता मिलती थी। इसके अतिरिक्त अनेक आचार्य, पुरोहित तथा श्रोत्रिय आदि व्यक्तिगत रूप से शिक्षा दिया करते थे।
शिक्षा केन्द्रों या विद्यापीठों में दो प्रकार के अन्तेवासी आचार्य से शिक्षा ग्रहण करते थे- पहले धम्मनतेवासिक जो दिन में आचार्य का काम करते थे और रात्रि में शिक्षा ग्रहण करते थे, दूसरे आचारिय भागदायक जो आचार्य के निवास में रह कर उसके ज्येष्ठ पुत्र की तरह शिक्षा प्राप्त करते थे।ये अपना सारा समय ज्ञानार्जन में लगाते थे।
मौर्य-शासन काल में शिक्षा की स्थिति पर विचार करते हुए डॉ. वी.ए. स्मिथ ने लिखा है- अशोक के समय बौद्ध जनसंख्या का पढ़ा-लिखा प्रतिशत अंग्रेजी भारत के कई प्रान्तों के शिक्षित लोगों के प्रतिशत से अधिक था। मौर्य काल में तीन भाषाओं का प्रचलन था- संस्कृत, प्राकृत और पालि।
पालि एक प्रकार की जन भाषा थी। अशोक ने पालि को सम्पूर्ण साम्राज्य की राजभाषा बनाया और इसी भाषा में अपने अभिलेख उत्कीर्ण कराए। इस युग में इन तीनों भाषाओं में श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र, भद्रबाहु का कल्पसूत्र तथा बौद्ध ग्रन्थ मंजू श्री मूल कल्प मौर्यकालीन साहित्य की अनुपम कृतियाँ हैं।
पतंजलि का महाभाष्य, वृहत्कथा का संस्कृत संस्करण, हरिषेण का जैन वृहत्कथा कोष तथा अभिनव गुप्त की नाट्य शास्त्र की रचनाएँ हैं।समाति, यवकृत, प्रियंसु, सुमनोत्तरा, भीमरथ, वारुवदत्ता तथा देवासुर आदि की सुविश्रुत रचनाएँ इसी युग की हैं।
धार्मिक साहित्य के क्षेत्र में भी इस युग महत्त्वपूर्ण रचनाओं का प्रण्यन हुआ। प्रसिद्ध जैन आचार्य भद्रबाहु ने नियुक्ति (प्रारम्भिक धर्म ग्रन्थ) पर एक भाष्य लिखा। जैन धर्म के प्रसिद्ध लेखक जम्बू स्वामी, प्रभव और स्वयम्भव की रचनाएँ इसी युग में लिखी गई।
आचारांग सूत्र समवायांग सूत्र, प्रश्न-व्याकरण आदि इसी युग की रचनाएँ हैं। बौद्ध साहित्य में त्रिपिटको का प्रणयन इसी युग में हुआ। वैदिक साहित्य के अन्तर्गत आने वाली कई रचनाएँ इसी युग की हैं।
मौर्य कला Art Culture)
कला एवं संस्कृति का मौर्य काल में चहुंमुखी विकास हुआ। एक राष्ट्र में शान्ति एवं जनता के सुखमय वैभवपूर्ण जीवन को Art Culture एवं साहित्यिक विकास के लिए उपयुक्त माना गया है। फलत: हम इस काल में दोनों क्षेत्रों में अद्भुत उन्नति पाते हैं।
कुछ दृष्टियों से तो यह भी कहा जा सकता है कि इस काल में भारत Art Culture-क्षेत्र में अपनी चरम सीमा तक पहुँच गया था। मौर्यकालीन कला को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- दरबारी कला और लोकप्रिय कला।
दरबारी कला स्तम्भों और उनके शीर्षों में अभिव्यक्त हुई। पाटलिपुत्र में कुम्हार से एक राजप्रासाद का अवशेष प्राप्त हुआ है। ऐरियन ने इसे सुसा (मेसोपोटामिया) और एकबतना के राजप्रासादों से श्रेष्ठ माना है।
स्तम्भों को औपदार बनाया गया एवं निपुणता से काटा गया है। राजाश्रित Art Culture की प्रेरणा का स्रोत स्वयं सम्राट् था। अशोक के युग के कला अवशेष अभिलेखों के साथ मिलते हैं। अभिलेख पुण्य स्थलों में या नगरों के निकट स्थापित किए गए। सबसे अधिक बहुलता से प्राप्त अवशेष स्तम्भों के पशुशीर्ष हैं।
स्तम्भ सामान्यतः एक प्रस्तर खण्ड से काटा जाता था। स्तम्भ लेख एक महत्त्वपूर्ण स्थान के साथ जोड़ते हुए उत्कीर्ण करवाये गये जो स्थल पवित्र माने जाते थे।
फाह्यान (399-413 ई.) ने अशोक के छः स्तम्भ एवं ह्वेनसांग (629-645 ई.) ने बारह स्तम्भों को देखा था। उनमें से कुछ स्तम्भ नष्ट हो गये हैं। ये स्तम्भ संकिसा, निग्लीव, लुम्बिनी, सारनाथ, बसरा-बीसरा (वैशाली), साँची, आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं।
इनकी संख्या बीस से अधिक कही गई है। इन्हें चुनार (बनारस के निकट) के बलुआ पत्थर से गढ़ा गया। चुनार की खानों से प्राप्त पाण्डुरंग के सूक्ष्म दानेदार कडे पत्थर पर अधिकांशत: छोटी-छोटी काली चित्तियाँ हैं।
जॉन मार्शल तथा पसीं ब्राउन जैसे विद्वानों ने अशोक के स्तम्भों को ईरानी स्तम्भों की अनुकृति बताया है परन्तु यह उपयुक्त नहीं लगता क्योंकि हमें ईरानी तथा अशोक के स्तम्भ में कई मूलभूत अन्तर दिखायी देते हैं।
इनमें कुछ इस प्रकार हैं-
- (1) अशोक के स्तम्भ एकाश्म अर्थात् एक ही पत्थर से तराशकर बनाए गए हैं। इनके विपरीत ईरानी स्तम्भों को कई मण्डलकार टुकड़ों को जोड़कर बनाया जाता है।
- (2) ईरानी स्तम्भ विशाल भवनों में लगाए गए थे। इसके विपरीत अशोक के स्तम्भ स्वतंत्र रूप से विकसित हुए हैं।
- (3) अशोक के स्तम्भ बिना चौकी या आधार के भूमि पर टिकाए गए हैं जबकि ईरानी स्तम्भों को चौकी पर टिकाया गये है।
- (4) अशोक के स्तम्भों के शीर्ष पर पशुओं की आकृतियाँ हैं, जबकि ईरानी स्तंभों पर मानव आकृतियाँ हैं।
- (5) ईरानी स्तम्भ गराड़ीदार हैं किन्तु अशोक के स्तम्भ सपाट हैं।
- (6) अशोक के स्तम्भ नीचे से ऊपर क्रमशः पतले होते हैं, जबकि ईरानी स्तंभों की चौड़ाई नीचे से ऊपर तक एक ही है।
इनमें से प्रत्येक स्तम्भ के मूलतः दो भाग हैं- स्थूण एवं शीर्ष। स्थूण एक पत्थर के टुकड़े (एक प्रास्तरिक) के बने हुए हैं और उन पर ऐसी सुन्दर ओप है कि आज भी लोगों को उसके धातु के बने होने का भ्रम होता है।
मौर्य कालीन स्तम्भों को कलामर्मज्ञों ने एकाश्म (एक पत्थर से निर्मित) कहा है परन्तु इन्हें दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। नीचे का लाट (यष्टि) एवं ऊपरी भाग को शीर्ष जो लाट की चोटी पर स्थापित रहता है। लाट एक शुंडाकार दण्ड है जिसकी लम्बाई चालीस से पचास फीट तक है।
शीर्ष को Art Culture की दृष्टि से कई भागों में विभक्त किया जा सकता है। सबसे नीचे रस्सी की आकृति को मेखला (मेकला) कहा गया। इस पर उल्टे कमल की आकृति (या घंटाकृति), जिसे पूर्ण कुंभ भी कहा जाता है। घंटाकृति पर गोलाकार चौकी (या चौकोर चौकी) जिसे आधार पीठिका की संज्ञा दी गई, जिस पर पशु आकृति को प्रतिष्ठित किया गया। कुछ स्थलों पर पशु आकृतियों पर धर्मचक्र स्थापित है।
प्राय: इन स्तम्भों की बनावट एक जैसी होते हुए भी इनके शीर्ष पर विविध पशु आकृतियाँ स्थापित की गई हैं जैसे-अश्व, सिंह, वृषभ, हस्ति आदि।
एरण एवं ग्वालियर से प्राप्त स्तम्भ ताड़वृक्ष की आकृति के हैं। दूसरा अन्तर चौकी पर उत्कीर्ण विषय पर देखा जा सकता है। सारनाथ से प्राप्त शीर्ष की चौकी पर चारों ओर चार चक्र एवं उनके मध्य अश्व, सिंह, वृषभ, हस्ति अंकित किये गये हैं।
इसके अतिरिक्त प्रारम्भिक स्तम्भों (बसरा बखिरा) की पीठिका पर दाना चुगते हंस अथवा ताड़पत्र अंकित हैं। सारनाथ के अतिरिक्त सभी स्तम्भों पर एक पशु की आकृति स्थित है किन्तु सारनाथ स्तम्भ में चार सिंह पीठ से पीठ सटाये बनाये गये हैं।
धौली का प्रस्तर हस्ति अपेक्षाकृत सुडौल और Art Culture की दृष्टि से प्रौढ़ है। इसे पशु शीर्षों की परम्परा से अलग माना गया है।हस्ति की छवि का अंकन एवं रूपांकन विशिष्ट प्रकार का है एवं उसकी रेखाओं का प्रवाह सुन्दर है। इसमें आकार की विशालता के साथ उसकी छवि में कल्पना का भाव है। उसकी शान्तिपूर्ण गरिमा अपूर्व है।
संकिसा की गजमूर्ति में भी संतुलन का अभाव है अर्थात् स्तम्भ की ऊँचाई की दृष्टि से हाथी अत्यन्त लघु है जो प्रारम्भिक अवस्था का द्योतन करता है। गज के शरीर का भाग बोझिल होने के कारण झुकाव आ गया है तथा अगले पैर स्तम्भ की सी बनावट के हैं। उसका विशाल एवं थुलथुल शरीर जो जड़ प्रतीत होता है। चौकी की बनावट और मुड़ी पत्तियोंवाला पद्य अधिक विकसित और सुन्दर है।
संकिसा के हस्तिमण्डित स्तम्भ को, विद्वानों ने मौर्य Art Culture की विकास प्रक्रिया में अगले स्थान पर रखा है। लौरियानन्दनगढ़ की सिंह मूर्ति में बखिरा सिंह मूर्ति की अपेक्षा अधिक दृढ़ता है। माँस पेशियों एवं शिराओं का सफल चित्रण हुआ है।
विद्वानों ने लौरिया स्तम्भ को सर्वोत्तम नमूनों में से एक माना है। रामपुरवा से प्राप्त दो वृषभ एवं सिंह शीर्षों में बसरा-बखिरा आदि स्तम्भों से अधिक विकास दृष्टिगोचर होता है।
वृषभ की मूर्ति में गति, सजीवता एवं लालित्य परिलक्षित होता है। पीठिका एवं उस पर अवस्थित मूर्ति प्रस्थापन में भी पूर्ण संयोजन है। यद्यपि शीर्ष स्तम्भ ऊँचाई की दृष्टि से छोटा है, किन्तु इसमें Art Culture के क्रमिक विकास के चिह्न स्पष्ट प्रतिबिम्बित होते हैं।
साँची सिंह शीर्ष में भी सारनाथ की भाँति चार पशु पीठ सटाये बैठे हैं एवं गोल अण्ड पर चुगते हसों की पंक्ति रामपुरवा शीर्षक की भाँति उत्कीर्ण है। साँची का अंकन अधिक रूढ़िग्रस्त है, संभवत: यह सारनाथ से परवर्ती रचना है।
अशोक कालीन सारे स्तम्भों में सारनाथ शीर्ष सबसे भव्य है एवं अब तक भारत में उपलब्ध मूर्ति कलाओं में सर्वोत्तम नमूना है। किसी देश में इस सुन्दर कलाकृति से बढ़कर अथवा उसके समान प्राचीन पशु मूर्ति का नमूना खोज निकालना कठिन है। इसमें वास्तविक बनावट के साथ-साथ आदर्श प्रतिष्ठित है और वह बनावट में प्रत्येक दृष्टि से और पूर्णतया सूक्ष्म है।
शीर्ष सात फीट ऊँचा है। इसके ऊपर चार भव्य सिंह पीठ से पीठ सटाये गोल पीठिका पर बैठे हैं। इनके बीच एक बड़ा पत्थर का चक्र धर्मचक्र का प्रतीक था। चक्र में संभवत: 32 तीलियाँ थीं। सिंहों के नीचे चार छोटे-छोटे चक्र हैं जिनमें 24-24 तीलियाँ हैं।
मौर्य युगीन स्तूप
अशोक ने स्तूप निर्माण की परम्परा को प्रोत्साहन दिया। बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने बुद्ध के अस्थि अवशेषों पर पूर्व निर्मित आठ स्तूपों को तुड़वाकर बुद्ध के अवशेषों को पुनर्वितरित कर 84,000 स्तूपों का निर्माण करवाया।
यह संख्या अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकती है, परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि अशोक ने बड़ी तादाद में स्तूपों का निर्माण करवाया होगा। साँची तथा भरहुत स्तूपों का निर्माण मूल रूप में अशोक ने ही करवाया था एवं शुगों के समय में साँची स्तूप का विस्तार हुआ।
स्तूप (पालि में थूप) का अभिप्राय चिता पर निर्मित टीला होता है जो प्रारम्भ में मिट्टी का बनाया जाता था, अत: स्तूप की दूसरी संज्ञा चैत्य हुई। स्तूप शब्द का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। महापरिनिर्वाणसुत्त में उल्लेख आया है कि बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्य आनन्द से कहा था, मेरी मृत्यु के पश्चात् मेरे अवशेषों पर उसी प्रकार का स्तूप बनाया जाए जिस प्रकार चक्रवर्ती राजाओं के अवशेषों पर बनते हैं।
महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनकी अस्थियों को आठ भागों में बाँट कर उन पर स्तूप बनाए गए थे। कालान्तर में बौद्ध संघ ने इसे अपनी संघ व्यवस्था में शामिल कर लिया। चूंकि इनमें बुद्ध या उनके प्रमुख शिष्यों की अस्थियाँ थीं, अतः वे बौद्ध के स्थल बन गए। बौद्ध साहित्य में चार प्रकार के स्तूपों का उल्लेख किया गया है-
- शारीरिक- जिनमें अस्थियाँ या अवशेष रखे जाते हैं।
- पारिभोगिक- जिनमें बुद्ध से संबंधित वस्तुएँ (यथा, पादुका, दण्ड, भिक्षापात्र आदि) रखी गयी थीं।
- उद्देशिक- इनमें वो स्तूप शामिल थे, जो बुद्ध के जीवन से संबंधित घटनाओं से जुड़े पवित्र स्थलों पर बनाए गए थे।
- संकल्पित- इस वर्ग में वे स्तूप आते हैं। जो बौद्ध उपासकों के द्वारा बुद्ध के प्रति श्रद्धा में या पुण्य लाभार्थ निर्मित करवाए गए थे।
साधारणत: स्तूप का सम्बन्ध बौद्ध मत से रहा है। अंगुर्त्तर निकाय तथा मझिम निकाय में स्तूप शब्द का अधिकतर प्रयोग हुआ। अशोक से पूर्व किसी स्तूप के अवशेष नहीं मिले हैं। ह्वेनसांग ने सातवीं शताब्दी में अफगानिस्तान एवं भारत के विभिन्न भागों में अशोक द्वारा निर्मित स्तूप होने का उल्लेख किया है।
उसके विवरण से ज्ञात होता है कि ये स्तूप तक्षशिला, श्रीनगर, थानेश्वर, मथुरा, गया, बनारस आदि नगरों में विद्यमान थे। इनकी ऊंचाई 300 फीट तक थी। पिपहरवा (बस्ती जिला) नामक स्थान से अशोक के एक स्तूप के भग्नावशेष मिले हैं। सारनाथ में अशोक कालीन धर्म राजिका स्तूप का निचला भाग इस समय भी विद्यमान है।*
तक्षशिला में एक स्तूप अशोक द्वारा निर्मित माना जाता है जिसके अवशेष अब भी उपलब्ध हैं। जॉन मार्शल के अनुसार अशोककालीन साँची स्तूप का आकार वर्तमान स्तूपों के आकार का आधा था। इसका व्यास 70 फीट और ऊँचाई 35 फीट थी। ईंटों से निर्मित अर्द्धगोलाकार, उठी हुई मेघी, चतुर्दिक काष्ठ वेदिका तथा स्तूप की चोटी पर पत्थर का छत्र लगा था।
शुंगकाल में स्तूप वास्तुकला की आधार-शिला निश्चित हुई। अशोक के बाद इस प्रकार के स्तूपों को न केवल प्रस्तर शिलाओं से आच्छादित किया जाने लगा बल्कि काष्ठ वेदिका के स्थान पर प्रस्तर वेदिका लगाकर तोरणद्वारों का संयोजन किया जाने लगा।
स्तूप शीर्ष पर हरनिका (हरमिका) बनाकर मध्य में छत्रावली स्थापित की जाती थीं मौर्य अनुवर्ती युग में स्तूप वैदिका, अण्ड, हरमिका एवं छत्रावली से युक्त थे जिन्हें बुद्ध के अवशेषों पर निर्मित किया गया। स्तूप के सिरे पर चौकोर घेरा तैयार दिखाई पड़ता है, जिसे हरमिका का नाम दिया गया। उसी में धातुगर्भ स्थित किया जाता है।
हरमिका के केन्द्र में छत्रयष्टि स्थिर की जाती है और यष्टि के सिरे पर तीन छत्र (एक के बाद दूसरा एवं तीसरा) निर्मित रहते हैं। विद्वानों की मान्यता है कि भरहुत एवं साँची स्तूप अशोक द्वारा निर्मित किये गये थे। शुंग-सातवाहन युग में उनका परिष्कार एवं परिवर्द्धन हुआ जिससे अशोक के योगदान को जान सकना संभव नहीं हैं।
अशोक ने वास्तुकला के इतिहास में चट्टानों को काटकर कंदराओं के निर्माण द्वारा एक नई शैली का प्रारम्भ किया। गया के निकट बाराबर की पहाड़ियों में अशोक ने अपने राज्याभिषेक के बारहवें वर्ष में सुदामा गुहा आजीविकों को दान में दी थी।
मौर्यकाल में बाराबर की पहाड़ी को खलतिक पर्वत कहा जाता था। इस गुहा में दो प्रकोष्ठ हैं। बाहरी कक्ष 32.9 फीट लम्बा 19.5 फीट चौड़ा है। इसके पीछे 19.11×19 का कक्ष है। एक कक्ष गोल व्यास का है, जिसकी छत-अर्धवृत्त है।
प्रकोष्ठ का बाह्य मुखमण्डप आयताकार और छत गोलाई लिए हुए है, छत तथा भित्ति पर शीशे जैसी चमकती पॉलिश भी है। इसका विकास आगे चलकर महाराष्ट्र के भाजा, कन्हेरी और कालें चैत्यगृहों में परिलक्षित होता है। अशोक ने जहाँ गया जिले में बराबर पर्वत-श्रृंखला में नागार्जुनी पर्वत पर गुहाएँ बनाई थीं, वहीं उसके पौत्र ने कुछ हटकर क्रम से तीन गुहाओं का निर्माण करवाया, जो वहियक, गोपिका एवं बडथिका नाम से पुकारी जाती हैं।
इन गुहाओं के बाहर इनके निर्माण से सम्बद्ध अभिलेख मिलते हैं। इनका विन्यास सुरंग जैसा है। इसके मध्य में ढोलाकार छत और दोनों सिरों पर गोल मण्डल हैं, जिनमें से एक को गर्भगृह एवं दूसरे को मुखमण्डप की संज्ञा दी जा सकती है।
इनमें स्तम्भों का अभाव है, अतः वास्तुकला की दृष्टि से इनका अधिक महत्त्व नहीं है।
लोककला
मौर्यकालीन लोक Art Culture का परिज्ञान उन महाकाय यक्ष-यक्षिणीयों की मूर्तियों द्वारा होता है जिनका निर्माण स्थानीय मूर्तिकारों ने किया। इसमें वे मूर्तियाँ सम्मिलित थीं जिनकी रचना सम्राट् के आदेश से नहीं की गई। वस्तुत: बिना राज्य संरक्षण के इनका निर्माण हुआ।
लोकप्रिय Art Culture के संरक्षक स्थानीय प्रान्तपति या नागरिक थे, जिनके प्रोत्साहन से अतिमानवीय महाकाय मूर्तियाँ खुले आकाश में स्थापित की जाती थीं। इनका प्रारम्भिक रूप अलग परम्परा के अन्तर्गत पहचाना जा सकता है। इस परम्परा में राज्य द्वारा आश्रय का कोई संकेत नहीं मिलता। अत: इस परम्परा को लोकाश्रयी परम्परा कहा जा सकता है।
यक्ष-यक्षिणी जैसे देवी-देवताओं की आराधना प्राचीन काल से ही की जाती रही है। संभवतः यह देव परम्परा मूलतः प्रागार्य थी। यद्यपि मौर्यकाल से पूर्व इस प्रकार की प्रतिमायें अनुपलब्ध हैं तथापि इनसे सम्बद्ध साहित्यिक साक्ष्य मिलते हैं जिनसे इनकी प्राचीनता प्रमाणित होती है
भारत के अनेक भागों से यक्षों की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जिनका निर्माण मौर्य काल ई. पू. तीसरी सदी से कुषाणकाल ई. पू. प्रथम सदी के मध्य हुआ। मथुरा जिले के पर्क्हम ग्राम से प्राप्त यक्ष मूर्ति की चौकी पर एक लेख नीद अंकित है। इसे मणिभद्र की संज्ञा दी है। मथुरा क्षेत्र बरोदा ग्राम से भी एक यक्ष मूर्ति मिली।
परखम एवं बरोदा से प्राप्त यक्ष मूर्तियों के मूर्ति शिल्प के विषय में कहा गया है- परखम के निकट बरोदा से मिली विशाल यक्ष मूर्ति और दूसरी परखम से ही मिली यक्ष की मूर्ति में भी जो बरोदा के यक्षमूर्ति से आकार में कुछ छोटी है (दोनों मूर्तियाँ मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित हैं)- इनका शरीर तो गोलाई में गढ़ दिया गया है, पर पीठ सपाट है।
वस्त्र और गहने शरीर के बाहर फेंके हुए हैं, इनमे वाही भारीपन, पुरातनता, जड़ता और बेजान मार्दव देखने में आता है। छोटी मूर्ति पर मौर्यों के स्तम्भों जैसी ही पॉलिश भी लगी है।
परखम की मूर्ति में किंचित मुड़े और अपेक्षाकृत पतले पैरों का सदृश्य ग्वालियर के निकट पवाया से प्राप्त मणिभद्र यक्ष की प्रतिमा से है, जबकि बरोदा और परखम की मूर्तियों में शरीर के सामने का भाग काफी उभरा और पीठ का भाग दबा है, जिसे देखकर मथुरा की असंस्कृत बोधिसत्व की याद आती है। परखम के यक्ष, दीदारगंज के चामरग्रागिनी और बेसनगर की यक्षिणी लोक कला के नमूने हैं।
शुंग, कुषाण और सातवाहन
इस समय के Art Culture स्मारक स्तूप, गुफा मंदिर (चैत्य), विहार, शैलकृत गुफाएं आदि हैं। भारहुत का प्रसिद्ध स्तूप का निर्माण शुंग काल के दौरान ही पूरा हुआ। इस काल में उड़ीसा में जैनियों ने गुफा मंदिरों का निर्माण कराया। उनके नाम हैं- हाथी गुम्फा, रानी गुम्फा, मंचापुरी गुम्फा, गणेश गुम्फा, जय विजय गुम्फा, अल्कापुरी गुम्फा इत्यादि।
अजंता की कुछ गुफाओं का निर्माण भी इसी काल के दौरान हुआ। इस काल के गुफा मंदिर काफी विशाल हैं। इसी काल के दौरान गांधार मूर्तिकला शैली का भी विकास हुआ। इस शैली को ग्रीक-बौद्ध शैली भी कहते हैं। इस शैली का विकास कुषाणों के संरक्षण में हुआ।
गांधार शैली के उदाहरण हद्दा व जैलियन से मिलते हैं। गांधार शैली की मूर्तियों में शरीर को यथार्थ व बलिष्ठ दिखाने की कोशिश की गई है। इसी काल के दौरान विकसित एक अन्य शैली-मथुरा शैली गांधार से भिन्न थी।
इस शैली में शरीर को पूरी तरह से यथार्थ दिखाने की तो कोशिश नहीं की गई है, लेकिन मुख की आकृति में आध्यात्मिक सुख और शांति पूरी तरह से झलकती है। सातवाहन वंश ने गोली, जग्गिहपेटा, भट्टीप्रोलू, गंटासाला, नागार्जुनकोंडा और अमरावती में कई विशाल स्तूपों का निर्माण कराया।
गुप्तकालीन साहित्य
Art Culture और साहित्य के अप्रतिम विकास के आधार पर ही भारतीय इतिहास में गुप्तकाल को ‘स्वर्णयुग’ कहा गया है। साहित्य की दृष्टि से गुप्त काल अत्यंत समृद्ध था। कालिदास ने युगांतरकारी साहित्य की रचना से गुप्तकाल को इतिहास में सम्मानजनक स्थान दिलाया है।
कुमारसंभव, मेघदूत, ऋतुसंहार और अभिज्ञानशाकुन्तलम जैसी कालजयी कृतियों की रचना गुप्तकाल में ही हुईं थीं। पुराणों तथा नारद कात्यारान, पराशर, वृहस्पति आदि स्मृतियों की रचना भी गुप्तकाल में ही हुई।
विज्ञान के क्षेत्र में भी साहित्य का सृजन हुआ। ब्रह्मसिद्धांत, आर्यभिटयम और सूर्यसिद्धान्त की रचना करने वाले आर्यभट्ट थे। कामंदक ने ‘नीतिसार’ और वात्सायन में कामसूत्र की रचना गुप्तकाल में ही की। विष्णु शर्मा द्वारा रचित ‘पंचतंत्र’ गुप्तकालीन साहित्य का सर्वोत्कृष्ट नमूना है।
यास्क कृत ‘निघतु’ निरुक्त से वैदिक साहित्य के अध्ययन में सहायता मिलती है। भट्टी, भौमक आदि व्याकरण के विद्वान् थे। इस काल में बौद्ध साहित्य की भी रचना हुई, बुद्धघोष में सुमंगलविलासिनी की रचना की। इसके अतिरिक्त ‘लंकावतारसूत्र’ ‘महायानसूत्र’ ‘स्वर्णप्रभास’ आदि बौद्ध कृतियों की रचना की गयी।
जैनाचार्य सिद्धसेन ने तत्वानुसारिणी तत्वार्थटीका नामक ग्रन्थ की रचना की। महादयडनायक ध्रुवभूति का पुत्र हरिषेण समुद्रगुप्त के समय में सान्धिविग्रहिक कुमारामात्य एवं महादण्डनायक के पद पर कार्यरत था। हरिषेण की शैली के विषय में जानकारी ‘प्रयाग स्तम्भ’ लेख से मिलती है। हरिषेण द्वारा स्तम्भ लेख में प्रयुक्त छन्द कालिदास की शैली की याद दिलाते हैं।
हरिषेण का पूरा लेख ‘चंपू (गद्यपद्य-मिश्रित) शैली’ का एक अनोखा उदाहरण है। स्वप्नवासवदत्ता भास की अनुपम रचना है। इसके अतिरिक्त प्रतिभा नाटक, पञ्चरात्र, प्रतिज्ञा सौगंधरायण उसकी अन्य प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। शूद्रक का मृच्छकटिकम् भी गुप्त युग का प्रमुख नाटक है।
मुद्राराक्षस व देवीचन्द्रगुप्तम् का लेखक विशाखदत्त भी गुप्तकाल से सम्बद्ध है। इसे चन्द्रगुप्त द्वितीय का समकालीन माना गया है। गुप्त काल में अमरसिंह ने अमरकोश की रचना की। सांख्य दर्शन से संबंधित ईश्वर कृष्ण की सांख्यकारिका भी गुप्त युग की रचना है।
गुप्तकालीन स्थापत्य
मूर्तिकला
मथुरा से बुद्ध की भव्य लाल बलुआ पत्थर की प्रतिमा पांचवीं शताब्दी ईसवी सन् की गुप्त कारीगरी का एक सर्वाधिक असाधारण उदाहरण है ।यहां महान गुरु को उसकी सम्पूर्ण भव्यता के साथ खड़े हुए दिखाया जाता है, उसका दाहिना हाथ संरक्षण आश्वस्त करते हुए अभयमुद्रा में है और बाएं हाथ से वस्त्र का किनारा पकड़ा हुआ है
उदास नेत्रों के साथ मुस्कुराती हुई उसकी मुखाकृति आत्मिक उल्लास से वंचित रह जाती है । दोनों कंधों को ढकने वाले वस्त्र का कुशलतापूर्वक निरूपण निपुणतापूर्वक ढकी हुई आरेखीय परतों से होता है और यह वस्त्र शरीर से चिपका है ।
सिर एक उभार के साथ आरेखीय सर्पिल कुण्डलों से ढका है और विस्तृत प्रभामण्डल मनोहारी आभूषणों के संकेन्द्रित फीतों से सजा है बुद्ध की प्रतिमा में परिष्कृत प्रवीणता और अभिव्यक्ति की राजसी शक्ति को स्याम, कम्बोडिया, बर्मा, जावा, मध्य एशिया, चीन तथा जापान आदि ने बौद्ध धर्म अपनाने के साथ ही स्थानीय परिर्वतन के साथ ग्रहण किया ।
सारनाथ में खड़े हुए बुद्ध की प्रतिमा परिपक्वता में गुप्तकालीन Art Culture का एक उत्कृ्ष्ट उदाहरण है । कोमलता से झुकी हुई आकृति में दाहिना हाथ संरक्षण आश्वास्त करने की स्थिति में है । मथुरा की बुद्ध की मूर्ति में निपुणतापूर्वक काट कर बनाई गई वस्त्रों की परतों से भिन्न, पारदर्शक वस्त्रों के किनारे मात्र को दर्शाया गया है ।
अपनी शान्त आत्मिक अभिव्यक्ति से मेल खाती हुई आकृति का सटीक निष्पादन वास्तव में उत्कृष्ट कहलाने के योग्य है । सारनाथ, न केवल रूप की कोमलता और परिष्करण से परिचय कराता है बल्कि अपनी स्वयं की धुरी पर हल्के से टिकी हुई खड़ी आकृति के संबंध में शरीर को झुका कर विश्राम की एक मुद्रा को भी प्रस्तुत करता है ।
इस प्रकार इसमें मथुरा की समान कृतियों की कठोरता के प्रतिकूल कुछ लचीलापन और संचलन मिलता है । यहां तक कि बैठी हुई प्रतिमा प्रतिरूपण छरहरे शरीर, संचलन का आभास गूढ़ सूक्ष्मता के साथ कराती हैं ।
परतों को अब बिल्कुल निकाल दिया गया है, शरीर पर वस्त्र अब पतली रेखाओं के रूप में विद्यमान हैं जो वस्त्र के किनारों का संकेत देते हैं ।पृथक होने वाली परतों को पुन: मलमल का वस्त्र दिया जाता है । शरीर में अपनी चिकनी तथा चमकदार सुगढ़ता सारनाथ के कलाकारों के मूल विषय थे ।
गुप्त काल के दौरान भारतीय मन्दिरों की विशेषताओं वाली तकनीक उभर कर सामने आए । मूर्तियों का सामान्य वास्तुकला योजना के एक आन्तरिक भाग के रूप में उत्तम रीति से प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया गया । देवगढ़ के मन्दिरों और उदयगिरि तथा अजन्ता के मन्दिरों के प्रस्तर उत्कीर्ण अपने सजावटी विन्यास में मूर्तिकला के उत्कृष्ट नमूने हैं ।
देवगढ़ मन्दिर में अनन्त सर्प पर सोते हुए परमसत्ता का प्रतिनिधित्व करने वाले शेषशायी विष्णु का एक विशाल पैनल, विश्व की समाप्ति और इसके नए सृजन के बीच की अवधि में शाश्वतता का एक उत्तम उदाहरण है । चार भुजा वाले विष्णु ऐसे आदिशेष की कुण्डली पर शालीनता से लेटे हुए हैं जिसके चार फन विष्णु के मुकुटधारी सिर पर एक छतरी बनाते हैं ।
उनकी पत्नी लक्ष्मी उनका दाहिना पांव दबा रही हैं और दो परिचर आकृतियां लक्ष्मी के पीछे खड़ी हैं । कई देव तथा दिव्य पुरुष ऊपर घूम रहे हैं । उभरी पैनल में, मधु और कैटभ नाम के दो राक्षस, जो कि आक्रमण करने की मुद्रा में, विष्णु के चार मूर्तिमान अस्त्रों को चुनौती दे रहे हैं ।
पूरी संरचना को उत्कृष्ट कौशल से बनाया गया है जो नितान्त शान्ति आन्दोलित तनाव का एक वातावरण उत्पन्न करती है और इसे Art Culture की एक श्रेष्ठ कृति बनाती है। विष्णु की एक भव्य मूर्ति का संबंध गुप्त काल, पांचवीं शताब्दी ईसवी सन् से है जो मथुरा में है ।
प्रतीकात्मक गाउन, वनमाला, मोतियों की ऐसी मनोहारी डोरी जो ग्रीवा के चारों ओर घूमती है, लम्बा और सुरुचिपूर्ण यज्ञपवित्र, प्रारम्भिक गुप्ता कृति के उदाहरण हैं ।
अहिछत्र में शिव मंन्दिर के ऊपरी चबूतरे की ओर जाने वाली प्रमुख सीढ़ी के पार्श्व के आलों में मूल रूप से स्थापित गंगा और यमुना, दो आदमकद पक्की मिट्टी की मूर्तियों का संबंध गुप्त काल चौथी शताब्दी ईसवी से है । गंगा अपने वाहन मकर और यमुना कच्छप पर खड़ी है ।
कालिदास ने इन दोनों देव नदियों का शिव के परिचर के रूप में उल्लेख किया है तथा ऐसा गुप्त काल की परवर्ती मन्दिर वास्तुकला की एक नियमित विशेषता के रूप में होता है ।
इसका सर्वाधिक उल्लेखनीय उदाहरण देवगढ़ के ब्राह्यणीय मन्दिर के द्वार के बाजू हैं । मिट्टी की लघु-मूर्ति का सामाजिक और धार्मिक इतिहास के स्रोतों के रूप में अत्यधिक महत्त्व है ।
भारत में पकी हुई चिकनी मिट्टी से निर्मित लघु-मूर्तियों की Art Culture अति प्राचीनतम महत्त्व की है, जैसा कि हमने पहले ही हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में देखा है जहां भारी मात्रा में मृण्मूर्तियां मिली हैं ।
शिव का सिर गुप्त मृण्मूर्ति का एक उत्कृष्ट उदाहरण है जिसे एक मुख्य एवं मनोहारी शीर्षस्थ गांठ से बंधे निष्प्रभ लट के रूप में दर्शाया गया है । शिव तथा पार्वती दोनों की आकृतियों के चेहरे की अभिव्यक्ति ध्यान देने योग्य है और ये अहिछत्र के दो सर्वाधिक मनोहारी नूमने हैं ।
पार्वती का सिर तीसरी आंख के साथ है और माथे पर अर्द्धचन्द्र है । उनकी अलक-लटों को खूबसूरती के साथ व्य्वस्थित किया गया है, उनकी वेणी को एक माला से कसा गया है और पुष्प के एक उभार से सजाया गया है । उन्होंने एक गोल बाली पहनी हुई है जिस पर स्वस्तिक का चिह्न है ।
दक्षिण में वाकाटक सर्वोपरि थे जो उत्तर में गुप्त के समकालिक थे । इनके क्षेत्र में कला में हासिल किए गए सम्पूर्णता के उच्च जल-चिह्न को अजन्ता की उत्तरवर्ती गुफाओं में और ऐलोरा की एवं औरंगाबाद की पूर्ववर्ती गुफाओं में बेहतर ढंग से देखा जा सकता है ।
मंदिर
गुप्तकाल से पूर्व मन्दिर वास्तु के अवशेष नहीं मिलते। मन्दिर निर्माण का प्रारम्भ इस युग की महत्त्वपूर्ण देन कही जा सकती है। इस काल में मन्दिर वास्तु का विकास ही नहीं हुआ बल्कि इसके शास्त्रीय नियम भी निर्धारित हुए। मन्दिर निर्माण के उद्भव का सम्बन्ध व्यक्तिगत देवता की अवधारणा से है।
भारत में देवपूजा की परम्परा बहुत प्राचीन रही है। प्राय: इसके उद्भव को प्रागार्थ (अनार्य) परम्परा में खोजने का प्रयत्न किया गया है इत्सिंग ने श्री गुप्त द्वारा ‘मि-लि-क्या-सी-क्या-पोनो’ (सारनाथ) में चीनी यात्रियों के लिए मन्दिर बनाये जाने का उल्लेख किया है। इसी तरह चन्द्रगुप्त द्वितीय के मंत्री शाब (वीरसेन) द्वारा उदयगिरि गुहा में भगवान शिव के लिए गुहा मन्दिर बनवाये जाने का विवेचन आया है।
कुमारगुप्त के मिलसद अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने कार्तिकेय के मन्दिर का निर्माण करवाया। उसके मन्दसोर अभिलेख से भी सूर्य मन्दिर निर्माण करवाये जाने एवं मन्दिरों के जीर्णोद्धार की जानकारी मिलती है।
गुप्तकालीन मन्दिरों के अवशेष अनेक स्थानों से प्राप्त हुए हैं, जैसे-सांची, शंकरगढ़, दहपर्वतया (असम), भीतरी गाँव, अहिच्छत्र, गढ़वा, सारनाथ, बौद्धगया आदि। इन मन्दिरों को गुप्तकालीन स्वीकार किये जाने का एक आधार तो कुछ मन्दिर स्थलों से अभिलेखों की प्राप्ति रहा है।
प्रारूप की दृष्टि से एक गर्भ के मन्दिर धीरे-धीरे पंचायतन शैली में परिवर्तित हुए अर्थात् इस प्रक्रिया में पाँच देवों के गृह की स्थापना की गई। साधारणतः मन्दिर वर्गाकार हैं। इस विकास प्रक्रिया के प्रमाण भूमरा एवं देवगढ़ के मंदिर हैं। आयताकार योजना वाले मंदिर अवश्य ही दक्षिण के चैत्य गुहाओं से सम्बद्ध रहे होंगे।
वस्तुत: पंचायतन योजना वर्गाकार मंदिर का विकसित रूप है। इस प्रक्रिया में गर्भ गृह के चारों ओर चार अतिरिक्त देवालय बनाये गये। भूमरा के गर्भगृह के सामने चबूतरों के दोनों कोनों पर देवालय बने हैं। पृष्ठ भाग में गर्भगृह हैं तथापि इन्हें इसी शैली में रखा जाता है। यह मन्दिर देवगढ़ से पूर्ववर्ती है।
प्रारम्भिक मंदिर शिखर- रहित अर्थात् सपाट छत से आवृत्त थे किन्तु सपाट छत क्रमश: ऊंची उठती गई और गर्भगृह के ऊपर पिरामिडाकार स्वरूप बनता गया।
इस प्रक्रिया में कई तल वाले शिखर का विकास हुआ। इस तरह मंदिर का स्वरूप सप्त एवं नवप्रासाद के रूप में परिवर्तित हुआ। शिखर मूलतः गर्भ पर बनी ऐसी वास्तुरचना है जो क्रमश: कई तल, गवाक्ष, कर्णश्रृंग, शुकनाशा, आमलक, कलश, बीजपूरक, ध्वजा से युक्त होता है।
इन तत्त्वों के साथ शिखर की रचना पीठायुक्त अथवा ऊपर की ओर क्रमश: तनु होते हुए भी कोणाकार हो सकती है। संभवत: शिखर का विकास मानव निर्मित कई मजिलों के प्रासादों के अनुकरण पर हुआ होगा।
शिखर प्रासाद के विभिन्न तल ऊपर की ओर छोटे होते गये। इसका सर्वोत्तम उदाहरण नाचनाकुठारा का मंदिर है जिसमें प्रथम कक्ष पर दूसरे एवं तीसरे कक्ष (या खण्ड) दिखाई देते हैं संभवत: इसी से आगे शिखर विकास का प्रारम्भ हुआ और आगे जाकर शिखर की बनावट में अनेक तत्त्व जुड़ते गये।
- शंकरगढ़- जबलपुर में तिगवां से तीन मील पूर्व में कुण्डाग्राम में लाल पत्थर का एक छोटा शिव मंदिर प्राप्त हुआ है।
- मुकुंददर्रा- राजस्थान के कोटा जिले में एक पहाड़ी दर्रा, जिसे मुकुन्ददर्रा कहा जाता है, में एक छोटे सपाट छतयुक्त स्तम्भों पर खड़ा मंदिर अवस्थित है।
- तिगवा- पत्थर से निर्मित एक वर्गाकार सपाट छत का मंदिर है जिसके सामने चार स्तम्भों पर मण्डप स्थित है।
- भूमरा- सतना (मध्य प्रदेश) में भूमरा नामक स्थान में शिवमंदिर का निर्माण पाँचवीं शताब्दी के मध्य में हुआ माना जाता है।
- नाचना कुठारा- भूमरा के निकट अजयगढ़ के पास नाचना कुठारा में पार्वती मंदिर स्थित है।
- देवगढ़- देवगढ़ (ललितपुर) झाँसी के पास गुप्तकाल के बचे हुए उत्कृष्ट मंदिर में से है, जिसका विस्मयकारी अलंकरण मन मोह लेता है। (गुप्त काल का सर्वोत्कृष्ठ मंदिर झांसी जिले में देवगढ़ का दशावतार मंदिर है।)
- भीतरगाँव- कानपुर के निकट दक्षिण में भीतरगाँव का विष्णु मंदिर ईंटों से निर्मित किया गया। इसका महत्त्व ईंट का प्राचीनतम मंदिर होने में ही नहीं है वरन् इस बात में भी है कि उसमें शिखर है।
गुप्तकालीन मंदिरों की विशेषताएँ
मंदिरों का निर्माण सामान्यतः ऊँचे चबूतरे पर हुआ था तथा चढ़ने के लिए चारों तरफ से सीढि़याँ बनायी गयी थी। प्रारम्भिक मंदिरों की छतें चपटी होती थी, किन्तु आगे चलकर शिखर भी बनाये जाने लगे। दीवारों पर मूर्तियों का अलंकरण।
मंदिर के भीतर एक चौकोर या वर्गाकार कक्ष बनाया जाता था जिसमें मूर्ति रखी जाती थी। गर्भगृह सबसे महत्वपूर्ण भाग था।गर्भगृह के चारों ओर ऊपर से आच्छादित प्रदक्षिणा मार्ग बना होता था। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर बने चैखट पर मकरवाहिनी गंगा और कूर्मवाहिनी यमुना की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं।
मंदिर के वर्गाकार स्तंभों के शीर्ष भाग पर चार सिंहों की मूर्तियाँ एक दूसरे से पीठ सटाये हुए बनायी गयी हैं। गर्भगृह में केवल मूर्ति स्थापित होती थी। गुप्तकाल के अधिकांश मंदिर पाषाण निर्मित हैं। केवल भीतरगाँव तथा सिरपुर के मंदिर ही ईटों से बनाये गये हैं।