भक्ति आन्दोलन
भक्ति आन्दोलन
वैसे तो श्वेताश्तर उपनिषद में पहली बार भक्ति का उल्लेख मिलता है। किंतु भक्ति का सर्वप्रथम विस्तृत उलेख श्रीमद् भागवत गीता में है। जहां इसे मोक्ष प्राप्ति का साधन बताया गया है।
मध्य काल में भक्ति आन्दोलन की शुरुआत सर्वप्रथम दक्षिण के अलवार भक्तों द्वारा की गई। दक्षिण भारत से उत्तर भारत में बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में रामानन्द द्वारा यह आन्दोलन लाया गया।
भक्ति आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य था- हिन्दू धर्म एवं समाज में सुधार तथा इस्लाम एवं हिन्दू धर्म में समन्वय स्थापित करना। अपने उद्देश्यों में यह आन्दोलन काफ़ी सफल रहा। इन सन्तों ने भक्ति मार्ग को ईश्वर प्राप्ति का साधन मानते हुए ‘ज्ञान’, ‘भक्ति’ और ‘समन्वय’ को स्थापित करने का प्रयास किया।
इन संतों की प्रवृत्ति सगुण भक्ति की थी। इन्होंने राम, कृष्ण, शिव, हरि आदि के रूप में आध्यात्मिक व्याख्याएँ प्रस्तुत कीं। 14वीं एवं 15वीं शताब्दी में भक्ति आन्दोलन का नेतृत्व कबीरदास जी के हाथों में था। इस समय रामानन्द, नामदेव, कबीर, नानक, दादू, रविदास (रैदास), तुलसीदास एवं चैतन्य महाप्रभु जैसे संतों के हाथ में इस आन्दोलन की बागडोर थी।
दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन
भक्ति का आरंभ दक्षिण भारत में 9वी-10वीं शताब्दी के मध्य माना जाता है। दक्षिण में भक्ति आरंभ करने का श्रेय आलवार सन्तो को है। वैष्णो भक्तों को ही दक्षिण में आलवार संत कहा गया। आलवार संतो का संबंध तमिलनाडु से है। इनके नाम तमिल भाषा में है और इनकी रचनाएं भी तमिल भाषा में प्राप्त होती है।
आलवार संतो के नाम के अंत में “वार” लगता है। जैसे पेरियारवार,नम्मालवार आदि। सबसे बड़े आलवार संत “नम्मालवार” थे। आलवार संतो में पेरियालवार है, इनके साथ इनकी बेटी ‘आण्डाल’ भी भक्ति करती थी। आण्डाल को दक्षिण भारत की मीरा कहा जाता है।
आलवार संत विष्णु अवतार राम की उपासना करते थे। दक्षिण भारत में वैष्णव अनुयायी ही “आलवार संत” कहलाये वहीं दूसरी ओर शैव उपासक “नयनार” कहलाये।
दक्षिण भारत के संत
शंकराचार्य
रामानुजाचार्य
माधवाचार्य
निंबार्क
अलवार
संत नयनार संत
प्रमुख सम्प्रदाय व परिचय
- शंकराचार्य – 788 से 820 अद्वैतवाद वैष्णव संप्रदाय व स्मार्त संप्रदाय
- रामानुजाचार्य – 1140 विशिषष्टाद्वैतवाद श्री संप्रदाय
- मधवाचार्य – 1238 द्वैतवाद ब्रह्म संप्रदाय
- निंबार्काचार्य- 1250 द्वैताद्वैतवाद हंस/ सनकादि सम्प्रदाय
- वल्लभाचार्य – 1479 शुद्धाद्वैतवाद वल्लभ सम्प्रदाय/ पुष्टि मार्ग
शंकराचार्य ( 788- 820 )
शंकराचार्य का जन्म 788 ई. में केरल प्रदेश के ‘कालदी’ नामक ग्राम में नम्बूद्री ब्राह्मण परिवार में हुआ था। कालदी ग्राम मालाबार में पेरियार नदी के किनारे वन क्षेत्र में स्थित है। कालदी में विद्याधिराज नामक एक प्रसिद्ध विद्वान थे। उनका पुत्र शिवगुरू था। यह परिवार परम्परागत रूप से शंकर का उपासक था।
इन्हीं शिवगुरू के एकलौते पुत्र थे शंकराचार्य। मात्र 32 वर्ष की उम्र में वे निर्वाण प्राप्त कर ब्रह्मलोक चले गए। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने भारतभर का भ्रमण कर हिंदू समाज को एक सूत्र में पिरोने के लिए चार मठों ही स्थापना की। चार मठ के शंकराचार्य ही हिंदुओं के केंद्रीय आचार्य माने जाते हैं, इन्हीं के अधिन अन्य कई मठ हैं।
चार प्रमुख मठ निम्न हैं:-
- वेदान्त ज्ञानमठ, श्रृंगेरी (दक्षिण भारत)।
- गोवर्धन मठ, जगन्नाथपुरी (पूर्वी भारत)
- शारदा (कालिका) मठ, द्वारका (पश्चिम भारत)
- ज्योतिर्पीठ, बद्रिकाश्रम (उत्तर भारत)
शंकराचार्य का दर्शन :
शंकराचार्य के दर्शन को अद्वैत वेदांत का दर्शन कहा जाता है। शंकराचार्य के गुरु दो थे। गौडपादाचार्य के वे प्रशिष्य और गोविंदपादाचार्य के शिष्य कहलाते थे।
शकराचार्य का स्थान विश्व के महान दार्शनिकों में सर्वोच्च माना जाता है। उन्होंने ही इस ब्रह्म वाक्य को प्रचारित किया था कि ‘ब्रह्म ही सत्य है और जगत माया।’ आत्मा की गति मोक्ष में है।
अद्वैत वेदांत अर्थात उपनिषदों के ही प्रमुख सूत्रों के आधार पर स्वयं भगवान बुद्ध ने उपदेश दिए थे। उन्हीं का विस्तार आगे चलकर माध्यमिका एवं विज्ञानवाद में हुआ। इस औपनिषद अद्वैत दर्शन को गौडपादाचार्य ने अपने तरीके से व्यवस्थित रूप दिया जिसका विस्तार शंकराचार्य ने किया इसलिए ही शंकराचार्य को प्रछन्न बौद्ध भी कहा जाता है।
वेद और वेदों के अंतिम भाग अर्थात वेदांत या उपनिषद में वह सभी कुछ है जिससे दुनिया के तमाम तरह का धर्म, विज्ञान और दर्शन निकलता है।
ग्रंथ:
शंकराचार्य ने सुप्रसिद्ध ब्रह्मसूत्र भाष्य के अतिरिक्त ग्यारह उपनिषदों पर तथा गीता पर भाष्यों की रचनाएं की एवं अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों स्तोत्र-साहित्य का निर्माण कर वैदिक धर्म एवं दर्शन को पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए अनेक श्रमण, बौद्ध तथा हिंदू विद्वानों से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया।
इनकी प्रमुख रचनाएं ब्रह्म सूत्र
- भाष्य गीता
- भाष्य उपदेश
- साहसी मरीसापचम
उनकी रचनाएं
- ज्योतिष पीठ – बद्रीनाथ उत्तराखंड (विष्णु)
- गोवर्धन पीठ – पुरी अयोध्या( बलभद्र सुभद्रा)
- शारदा पीठ – द्वारिका गुजरात (कृष्ण)
- श्रृंगेरी पीठ – मैसूर कर्नाटक (शिव )
- कांचीपुरमपीठ – तमिलनाडु
दसनामी सम्प्रदाय :
शंकराचार्य से सन्यासियों के दसनामी सम्प्रदाय का प्रचलन हुआ। इनके चार प्रमुख शिष्य थे और उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हए।इन दसों के नाम से सन्यासियों की दस पद्धतियां विकसित हुई। शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित किए थे।
यह दस संप्रदाय निम्न हैं :
- 1.गिरि, 2.पर्वत और 3.सागर। इनके ऋषि हैं भृगु ।
- 4.पुरी, 5.भारती और 6.सरस्वती। इनके ऋषि हैं शांडिल्य।
- 7.वन और 8.अरण्य के ऋषि हैं काश्यप।
- 9.तीर्थ और 10. आश्रम के ऋषि अवगत हैं।
रामानुजाचार्य
1017 ई. में रामानुज का जन्म दक्षिण भारत के तिरुकुदूर क्षेत्र में हुआ था। बचपन में उन्होंने कांची में यादव प्रकाश गुरु से वेदों की शिक्षा ली।रामानुजाचार्य आलवन्दार यामुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे। गुरु की इच्छानुसार रामानुज ने उनसे तीन काम करने का संकल्प लिया था:-
- ब्रह्मसूत्र,
- विष्णु सहस्रनाम और
- दिव्य प्रबंधनम की टीका लिखना।
उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्यागकर श्रीरंगम के यदिराज संन्यासी से संन्यास की दीक्षा ली। मैसूर के श्रीरंगम से चलकर रामानुज शालग्राम नामक स्थान पर रहने लगे।
रामानुज ने उस क्षेत्र में बारह वर्ष तक वैष्णव धर्म का प्रचार किया। फिर उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिए पूरे देश का भ्रमण किया। 1137 ई. में वे ब्रह्मलीन हो गए।
शंकराचार्य के ‘अद्वैतदर्शन’ के विरोध में दक्षिण में वैष्णव संतों द्वारा 4 मतों की स्थापना की गई, जो निम्नलिखित हैं-:
- ‘विशिष्टाद्वैतवाद‘ की स्थापना 12वीं सदी में रामानुजाचार्य ने की।
- ‘द्वैतवाद’ की स्थापना 13वीं शताब्दी में मध्वाचार्य ने की।
- शुद्धाद्वैतवाद’ की स्थापना 13वीं सदी में विष्णु स्वामी ने की।
- ‘द्वैताद्वैवाद’ की स्थापना 13वीं सदी में निम्बार्काचार्य ने की।
मूल ग्रन्थ :
ब्रह्मसूत्र पर भाष्य ‘श्रीभाष्य’ एवं ‘वेदार्थ संग्रह‘। रामानुज ने वेदांत दर्शन पर आधारित अपना नया दर्शन विशिष्ट द्वैत वेदान्त गढ़ा था।
विशिष्टाद्वैत दर्शन :
रामनुजाचार्य के दर्शन में सत्ता या परमसत् के सम्बन्ध में तीन स्तर माने गए हैं:- ब्रह्म अर्थात ईश्वर, चित् अर्थात आत्म, तथा अचित अर्थात प्रकृति। वस्तुतः ये चित् अर्थात् आत्म तत्त्व तथा अचित् अर्थात् प्रकृति तत्त्व ब्रह्म या ईश्वर से पृथक नहीं है बल्कि ये विशिष्ट रूप से ब्रह्म का ही स्वरूप है एवं ब्रह्म या ईश्वर पर ही आधारित हैं।
यही रामनुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत का सिद्धान्त है। जैसे शरीर एवं आत्मा पृथक नहीं हैं तथा आत्म के उद्देश्य की पूर्ति के लिए शरीर कार्य करता है उसी प्रकार ब्रह्म या ईश्वर से पृथक चित् एवं अचित् तत्त्व का कोई अस्तित्व नहीं हैं वे ब्रह्म या ईश्वर का शरीर हैं तथा ब्रह्म या ईश्वर उनकी आत्मा सदृश्य हैं।
रामानुजाचार्य ने वेदांत के अलावा सातवीं-दसवीं शताब्दी के रहस्यवादी एवं भक्तिमार्गी अलवार सन्तों से भक्ति के दर्शन को तथा दक्षिण के पंचरात्र परम्परा को अपने विचार का आधार बनाया।
भक्ति से तात्पर्य:
रामानुज के अनुसार भक्ति का अर्थ पूजा-पाठ या किर्तन-भजन नहीं बल्कि ध्यान करना या ईश्वर की प्रार्थना करना है। सामाजिक परिप्रेक्ष्य से रामानुजाचार्य ने भक्ति को जाति एवं वर्ग से पृथक तथा सभी के लिए संभव माना है।
निंबार्क (12वीं शताब्दी)
निंबार्क का जन्म दक्षिण में हुआ। यह तेलुगु ब्राह्मण थे। यह रामानुज से प्रभावित थे व रामानुज के समकालीन थे तथा वैष्णव संप्रदाय में इन्होंने द्वैताद्वैत दर्शन प्रचलित किया। यह ज्ञातव्य है कि वैष्णवों के प्रमुख चार सम्प्रदायों में निम्बार्क सम्प्रदाय भी एक है। इसको ‘सनकादिक सम्प्रदाय’ भी कहा जाता है।
ऐसा कहा जाता है कि निम्बार्क दक्षिण भारत में गोदावरी नदी के तट पर वैदूर्य पत्तन के निकट (पंडरपुर) अरुणाश्रम में श्री अरुण मुनि की पत्नी श्री जयन्ति देवी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।
कतिपय विद्वानों के अनुसार द्रविड़ देश में जन्म लेने के कारण निम्बार्क को द्रविड़ाचार्य भी कहा जाता था, द्वैताद्वैतवाद या भेदाभेदवाद के प्रवर्तक आचार्य निम्बार्क के विषय में सामान्यतया यह माना जाता है कि उनका जन्म 1250 ई. में हुआ था। इन्हें भगवान सूर्य का अवतार कहा जाता है। कुछ लोग इनको भगवान के सुदर्शन चक्र का भी अवतार मानते हैं।
ऐसा प्रसिद्ध है कि इनके उपनयन के समय स्वयं देवर्षि नारद ने इन्हें श्री गोपाल-मन्त्री की दीक्षा प्रदान की थी तथा श्रीकृष्णोपासना का उपदेश दिया था। इनके गुरु देवर्षि नारद थे तथा नारद के गुरु श्रीसनकादि थे। इसलिये इनका सम्प्रदाय सनकादि सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध है
निंबार्क का अधिकांश समय वृंदावन में बीता। वे अवतारवाद में विश्वास करते थे।
द्वैताद्वैत को ‘भेदाभेद’ या ‘सनक’ संप्रदाय भी कहते हैं। भेदाभेद से अभिप्राय है कि ईश्वर, आत्मा व जगत तीनों में समानता होते हुए भी परस्पर भिन्नता है। राजस्थान में निंबार्क पीठ अजमेर जिले में सलेमाबाद में है।
निम्बार्काचार्य के सिद्धांत
- श्री निम्बार्काचार्य ने जीव, माया, जगत आदि का ब्रह्म से द्वैताद्वैत स्थापित किया है। इसलिए इनके मत को द्वैताद्वैतवाद कहा जाता है।
- राधा को उपास्या के साथ साथ आचार्य मानने की परम्परा का सूत्रपात निम्बार्क ने ही किया है। बाद में श्री हरिव्यास गोस्वामी, श्री हित हरिवंश आदि ने भी श्री राधा को अपना गुरु मानने की परम्परा का निर्वाह किया।
माधवाचार्य ( 13 शताब्दी )
माधवाचार्य ने शंकर और रामानुज दोनों के मतों का विरोध किया। माधवाचार्य का विश्वास द्वेतवाद मे था और यह आत्मा और परमात्मा को प्रथक प्रथक मानते थे। वे लक्ष्मी नारायण के उपासक थे
गुरु नानक( 1469- 1538 ई. )
इनका जन्म 1469ई. में पंजाब के तलवंडी नामक ग्राम में हुआ जो वर्तमान में ननकाना साहब के नाम से जाना जाता है । 1499 ई. में सुल्तानपुर के निकट बई नदी के किनारे उन्हें ईश्वरीय ज्ञान प्राप्त हुआ । गुरु नानक सिख धर्म के प्रवर्तक थे । गुरु नानक की कविताओं वह गीतों का संकलन “आदि ग्रंथ” में किया गया है ।
दसवें गुरु गोविंद सिंह जी ने नवें गुरु तेग बहादुर व कबीर की रचनाओं को भी इसमें शामिल किया और इस ग्रंथ को” गुरु ग्रंथ साहिब” कहा गया । आदिग्रंथ साहिब का संकलन 17 वी शताब्दी के प्रथम दशक में हुआ था। इसमें कबीर और बाबा फरीद की उक्तियां है।
दस मुकामी रेख्ता ग्रंथ की रचना की । गुरु नानक ने लंगर प्रथा चलाई । गुरु नानक ने सिकंदर लोदी के काल में सिख धर्म की स्थापना की।लूथर और नानक की तुलना की गई है । प्रसिद्ध वाक्य” कोई हिंदू और मुसलमान नहीं “है। ईश्वर को इन्होंने अकाल पुरुष की संज्ञा दी ।
नानक ” सच्चा सौदा” अर्थात( सत्य की खोज) में अग्रसर रहें । पांचवे गुरु अर्जन देव जी ने गुरु नानक के उपदेशों को आदिग्रंथ में संकलित किया जिसे गुरबानी कहा जाता है। हुजूर साहब का गुरुद्वारा गुरु नानक की याद में बना है जबकि दिल्ली का गुरुद्वारा शीशगंज गुरु तेग बहादुर की याद में बना है ।
मृत्यु:- 1538 ई. में पंजाब के करतारपुर स्थान पर हुई ।
भक्ति आन्दोलन के कारण
-मध्य काल में भक्ति आन्दोलन और सूफ़ी आन्दोलन अपने महत्त्वपूर्ण पड़ाव पर पहुँच गए थे। इस काल में भक्ति आन्दोलन के सूत्रपात एवं प्रचार-प्रसार के महत्त्वपूर्ण कारण निम्नलिखित थे-
- मुस्लिम शासकों के बर्बर शासन से कुंठित एवं उनके अत्याचारों से त्रस्त हिन्दू जनता ने ईश्वर की शरण में अपने को अधिक सुरक्षित महसूस कर भक्ति मार्ग का सहारा लिया
- हिन्दू एवं मुस्लिम जनता के आपस में सामाजिक एवं सांस्कृतिक सम्पर्क से दोनों के मध्य सदभाव,सहानुभूति एवं सहयोग की भावना का विकास हुआ। इस कारण से भी भक्ति आन्दोलन के विकास में सहयोग मिला।
- सूफ़ी-सन्तों की उदार एवं सहिष्णुता की भावना तथा एकेश्वरवाद में उनकी प्रबल निष्ठा ने हिन्दुओं को प्रभावित किया जिस कारण से हिन्दू, इस्लाम के सिद्धान्तों के निकट सम्पर्क में आये। इन सबका प्रभाव भक्ति आन्दोलन पर बहुत गहरा पड़ा।
- हिन्दुओं ने सूफ़ियों की तरह एकेश्वरवाद में विश्वास करते हुए ऊँच-नीच एवं जात-पात का विरोध किया।
- शंकराचार्य का ज्ञान मार्ग व अद्वैतवाद अब साधारण जनता के लिए बोधगम्य नहीं रह गया था।
- मंस्लिम शासकों द्वार आये दिन मूर्तियों को नष्ट एवं अपवित्र कर देने के कारण, बिना मूर्ति एवं मंदिर के ईश्वर की अराधना के प्रति लोगों का झुकाव बढ़ा, जिसके लिए उन्हें भक्ति मार्ग का सहारा लेना पड़ा।
आंदोलन की प्रकृति अथवा सिद्धांत
धार्मिक विचारों के बावजूद जनता की एकता को स्वीकार किया एवं जाति प्रथा का विरोध किया इसी के आलोक में कर्मकांडों मूर्ति पूजा आदि की निंदा की
भक्ति आंदोलन की विशेषता
- ईश्वर की एकता पर बल
- भक्ति मार्ग को महत्व आडंबरों अंधविश्वासों तथा कर्मकांडों से दूर रहकर धार्मिक सरलता पर बल दिया
- जनसाधारण लोक भाषाओं क्षेत्रीय भाषाओं में प्रचार
- ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पण मानवतावादी दृष्टिकोण समाज में व्याप्त जातिवाद ऊंच-नीच जैसे सामाजिक बुराइयों का विरोध