Jain Darshan
Jain Darshan (जैन दर्शन)
प्रवर्तक:- महावीर स्वामी
Jain Darshan बहुसत्तावादी तथा बहुतत्ववादी दार्शनिक संप्रदाय है इसमें अनेकांतवाद की प्रधानता है अनेकांतवाद के अनुसार जगत में अनेक वस्तुओं का अस्तित्व है तथा प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मों को धारण किए रहती है
अनंत धर्मांन्तकम् वस्तु
वस्तु को जैन दर्शन में द्रव्य कहा जाता है
द्रव्य का लक्षण
गुण पर्यायवत द्रव्यम
अर्थात जो गुण तथा पर्याय दोनों का मिश्रण होता है वह द्रव्य कहलाता है
गुण :- किसी भी वस्तु में पाए जाने वाले नित्य अपरिवर्तनशील धर्म गुण कहलाते हैं
पर्याय :- वस्तु में पाए जाने वाले अनित्य परिवर्तनशील धर्म पर्याय कहलाते हैं।
Jain Darshan में सत्ता/सत् का लक्षण निम्न रूप में प्रस्तुत करता है
उत्पात् व्यय धौव्य इति सत् लक्षणम्
अर्थात जो एक ही समय में उत्पन्न होता है खर्च अथवा नष्ट होता है और नित्य ही बना रहता है वह सत् कहलाता है
जैन दर्शन में द्रव्य दो प्रकार का माना जाता है
1. अस्तिकाय- जो काय अथवा शरीर के समान स्थान घेरता है अस्तिकाय कहलाता है अस्तिकाय दो प्रकार का होता है
- अ) जीव
- ब) अजीव
2. अनास्तिकाय (काल)- उत्पत्ति विनाश और अवस्था भेद इत्यादि का मूल कारण काल होता है
जीव
जैन दर्शन में आत्मा को जीव कहा जाता है चेतना ही आत्मा अथवा जीव का लक्षण है जीव अपने मूल स्वरुप में अनंत चतुष्टय होता है अर्थात जीव अथवा आत्मा में चार प्रकार की पूर्णताए पाई जाती है
- अनंत दर्शन
- अनंत ज्ञान
- अनंत शक्ति
- अनन्त आनंद
जीव शरीर परिमाणी होता है अर्थात जिस शरीर में यह है प्रवेश करता है उसी के समान आकार को भी ग्रहण कर लेता है जैसे चींटी के शरीर में चींटी कि सी आत्मा और हाथी के शरीर में हाथी जैसी आत्मा
गुण अथवा चेतना की दृष्टि से
सभी जीव अथवा आत्मा एक समान होते हैं किंतु परिमाण की दृष्टि से उनमें स्तर का भेद पाया जाता है
1. तीर्थंकर – पूर्ण चेतन
2. मानव
3. पशु
4. वन
5. जड़
अजीव
जिसकी चेतना लुप्त प्राय होती है वह अजीव कहलाता है
अजीव के लक्षण :-
- धर्म – जो गतिशील पदार्थों की गति को बनाए रखने में सहायक कारण होता है धर्म कहलाता है जैसे मछली के तैरने में जल धर्म का कार्य करता है
- अधर्म – स्थिर पदार्थों की स्थिरता को बनाए रखने में जो सहायक कारण होता है वह अधर्म कहलाता है जैसे राहगीर हेतु वृक्ष की घनघोर छाया
- पुद्गल- जड़ द्रव्य को पुद्गल कहा जाता है (जिसका संयोग होता है और विभाग होता है पुद्गल कहलाता है) पूरयन्ति गमयंन्ती च पुद्गल
- आकाश- जो रहने के लिए स्थान प्रदान करता है आकाश कहलाता है
पुद्गल दो भागों में बंटा होता है
- 1. अणु- किसी भी तत्व का अंतिम सरलतम अविभाज्य भाग जिसका और विभाजन संभव नहीं होता अणु कहलाता है
- 2. संघात- दो या दो से अधिक अणुओ का मिश्रण संघात कहलाता है
काल – एकमात्र अस्तिकाय द्रव्य उत्पत्ति, विनाश, अवस्था भेद इत्यादि का मूल कारण है
जैन दर्शन में स्यादवाद
जैन दर्शन के अंतर्गत साधारणजन पर लागू होने वाला सिद्धांत है जैन दर्शन के अनुसार साधारण जन का ज्ञान देश काल और परिस्थिति से बंधे होने के कारण आंशिक, अपूर्ण तथा सापेक्ष होता है स्यादवाद कहलाता है
इसकी अभिव्यक्ति सप्तभंगीनय से होती है अर्थात स्यादवाद की अभिव्यक्ति सात प्रकार के निर्णयो से होती है जिसे सप्तभंगी नय कहते हैं
1.स्यात् अस्ति
2. स्यात् नास्ति
3. स्यात् अस्ति च नास्ति
4. स्यात् अव्यक्तम्
5. स्यात् अस्ति च अव्यक्तम्
6. स्यात् नास्ति च अव्यक्तम्
7. स्यात् अस्ति च नास्ति अव्यक्तम्
जैन दर्शन में जिन (विजेता) से तात्पर्य
अर्थात जिसने अपनी राग द्वेष इत्यादि इंद्रियों पर विजय अर्जित कर ली है वह जिन कहलाता है
- तीर्थंकर :- वह पूर्ण पुरुष जो संसार रूपी भवसागर से पार उतरता है
- निग्रंथ :- जिसकी विषयवासना रूपी ग्रंथियां खुल जाती हैं वे निग्रंथ कहलाते हैं
- केवली :- जो भूत, वर्तमान, भविष्य तीनों कालों का ज्ञाता होता है केवली कहलाता है
तीर्थंकर प्रतीक चिन्ह
ऋषभदेव व्रक्षभ
अजीत नाथ हाथी
संभव घोडा
शांति नाथ हिरण
पार्शवनाथ सर्प फण
नेमिनाथ शंख
महावीर स्वामी सिंह
जैन दर्शन में सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान ,सम्यक चरित्र, को त्रिरतन के नाम से संबोधित किया यही मोक्ष का मार्ग है भारत के अधिकांश प्रश्नों में मोक्ष के लिए 3 मार्गों में से किसी एक को आवश्यक माना गया है ,भारत में कुछ ऐसे दर्शन भी है या मोक्ष मार्ग को सम्यक चरित्र के रूप में अपनाया गया है ,
जैन दर्शन की खूबी रही है उसने तीनों एकांगी मार्गों का समन्वय किया है इस दृष्टिकोण से जैन का मोक्ष का मार्ग अदित्य कहा जा सकता है
Jain Darshan important facts
दूसरे दार्शनिक स्कूलों के प्रति जैन दर्शन जो आदर भाव रखता है इसका कारण हे- जैन सिद्धांत स्यादवाद
जैन दर्शन नास्तिक दर्शन की श्रेणी में रखा जाता है क्योंकि यह ईश्वर को नहीं मानता और वेद के अधिकार को नहीं स्वीकारता
जैन विद्वानों के दृष्टिकोण से संसार की प्रत्येक वस्तु के दो रूप होते हैं स्वभावत: विभा वत:
जिन साधनों के द्वारा हम ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं उनके सम्मिलित रूप को कहा है – प्रमाण विचार
जैन दर्शन की वह बातें जो आस्तिक दर्शनों से मिलती-जुलती पाई जाती हैं 1 प्रत्यक्ष 2 अनुमान 3 शब्द
किसी द्रव्य या वस्तु के अनेक धर्मों में से जितने धर्मों को जानना संभव है – 7
इन्हें जैन दर्शन में जिस नाम से जाना जाता है वह है- सप्तभंगी नय
समूचे जैन दर्शन का मेरुदंड जिस सिद्धांत को माना जाता है वह है- स्यादवाद
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