कांट का नीतिशास्त्र, संकल्प की स्वतंत्रता, और दण्ड के सिद्धान्त
नीतिशास्त्र
संकल्प की स्वतंत्रता ?
तात्पर्य:- किसी भी कर्म को करने अथवा न करने, चुनने अथवा न चुनने की स्वतन्त्रता संकल्प की स्वतन्त्रता कहलाती हैं
इसकी तीन शर्ते है:-
1. कर्म को करने की क्षमता :- यदि व्यक्ति किसी भी कर्म को करने में शारीरिक और मानसिक रूप से समर्थ नहीं है तो उस कर्म को प्रति व्यक्ति को नैतिक रूप से उत्तरदायी नही माना जा सकता है
2. ज्ञान और उद्धेश्य : – यदि कर्म अज्ञानवश अथवा बिना उदेश्य के किया जाता हैं वहाँ व्यक्ति को उस कर्म के प्रति दोषी नही माना जा सकता
उदाहरण :- क्लेप्टोमेनिया अर्थात मनोविज्ञान का एक रोग जिसमे व्यक्ति बिना उद्धेश्य के चोरी करता है, उक्त रोग से ग्रसित व्यक्ति को उस कर्म के प्रति दोषी नही माना जा सकता है
3. विकल्पों की उपस्थिति :- किसी भी कर्म को करने मर एक से अधिक विकल्पों का होना अनिवार्य होता है
संकल्प की स्वतंत्रता के साथ तीन प्रमुख सिद्धान्त है :-
1. नियतत्त्ववाद :- यह कारण कार्य से सम्बंधित है यदि हमें घटना का ज्ञान हो जाता है तो हम घटना का होने का अनुमान लगा सकते हैं और चाहे तो उसे नियंत्रित भी कर सकते हैं
2. अनियतत्त्ववाद :- यह आकस्मिकता से सम्बंधित है जिसमे ना तो कोई किसी भी का कारण है और न ही कार्य घटनाये अपने आप उत्पन्न होती है और अपने आप ही नष्ट हो जाती है
3. देववाद / भाग्यवाद :- इसके अनुसार सब कुछ भाग्य या ईश्वर / ईश्वर के अधीन है
नोट:- उपयुक्त तीनो सिद्धान्तों में से केवल नियतत्ववाद ही संकल्प की स्वतंत्रता के साथ संगत माना जा सकता है
पूर्ववर्ती गटना की जानकारी, संकल्प की स्वतन्त्रता की व्याख्या एयर उपयुक्त तीनो सिध्दान्तों में से सबसे संगत संकल्प की स्वत्न्त्रता का सिद्धान्त है
कान्ट का नैतिक दर्शन
कान्ट नैतिक नियमो को परिणाम निरपेक्ष मानते है समस्त नैतिक नियम बौद्धिक होते है देश काल परिस्थिति से रहित अर्थात स्वतन्त्र होते हैंइच्छा भावनाओ से मुक्त रहते है नैतिक नियम परम साध्य रूप होते है
1. शुभ संकल्प :- विशुद्ध कर्तव्य चेतना से अभिप्रेरित हो कर्म करने का दृढ निश्चय शुभ संकल्प कहलाता है शुभ संकल्प परम् साध्य है शुभ संकल्प निरपेक्ष है
2. पवित्र संकल्प :- शुभ संकल्प से ऊपर पवित्र संकल्प माना जाता हैं किन्तु वह ईश्वर में ही सम्भव हैं मनुष्यो में इसे सम्भव नही मन जा सकता है
3. कर्तव्य :- कान्ट का कथन – कर्तव्य के लिए कर्तव्य ( ड्यूटी फॉर ड्यूटी) अर्थात व्यक्ति को अपने कर्तव्य का पालन कर्तव्य मानकर करना चाहिए उसके प्रति किसी प्रकार के परिणाम को ध्यान में नही रखना चाहिए
कर्म तीन प्रकार के होते है-
अ) स्वयं के प्रति कर्म
ब) दुसरो के प्रति कर्म
स) विशुद्ध कर्तव्य चेतना से अभिप्रेरित कर्म – (कान्ट इन पर विशेष बल देता हैं)
नोट :- नैतिक नियमो के प्रति सम्मान की भावना से अभिप्रेरित हो कर्म करने की अनिवार्यता कर्तव्य कहलाता हैं
4. निरपेक्ष आदेश :- कान्ट के दर्शन में आदेश शब्द में भी एक प्रकार की बाध्यता है यह बाध्यता आंतरिक बाध्यता कहलाती हैं नैतिक नियमो को सर्वभौतिक मानते हुए उन्हें हमेशा साध्य बना रहने दे और प्रयास करे कि वो साध्य की प्राप्ति का साधन न बने
कान्ट सार्वभौमिक नियमो को महत्व देता हैं नैतिक नियमो को साध्य मानता है परिणाम निरपेक्ष स्वीकार करता हैं इच्छा भावनाओ से रहित मानता हैं
कान्ट नैतिकता की तीन शर्ते स्वीकार करता है:-
1. संकल्प की स्वतन्त्रता :- “मुझे करना चाहिए अतः मै करता हूँ” संकल्प की स्वतन्त्रता
2. आत्मा की अमरता :- व्यक्ति को अपने द्वारा किये गए कर्मो का परिणाम स्वयं ही भोगना है यह तभी संभव है जब आत्मा को अमर माना जाता हैं
3. ईश्वर का अस्तित्व – अच्छे कर्मो के लिए पुरस्कार तथा बुरे कर्मो के लिए दण्ड की प्राप्ति होती हैं यह तभी सम्भव हैं जब कुशल न्यायाधीश के रूप में ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार किया जावे
कान्ट के नैतिक दर्शन के नैतिकता के चार सूत्र है –
1. सर्वभौतिक्ता का नियम
2. मनुष्यो को साध्य मानने का नियम
3. स्वाधीनता का नियम
4. साध्यो के राज्य का नियम
नोट:- उक्त तीनों सिद्धान्त स्वतः ही चौथे सिद्धान्त में निहित हो जाते हैं
दण्ड के सिद्धान्त ( कान्ट)
समाज विरुद्ध कार्य करने पर व्यक्ति को प्राप्त होने वाली शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना दण्ड कहलाती हैं दण्ड के प्रमुख रूप से तीन सिद्धान्त है- *
1. प्रतिरोधात्मक सिंद्धांत :- इसमें मृत्युदण्ड को उचित माना जाता हैं इसमे अपराधी को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है इसके अन्तर्गत दण्ड का उद्धेश्य अपराध को रोकना हैं “तुम्हे भेड़ चुराने के लिए मृत्युदण्ड नही दिया जा रहा हैं अपितु इसलिए दिया जा रहा हैं जिससे लोग चोरी न कर सके “
2. सुधारात्मक सिद्धान्त :- इसमे मानवतावाद को महत्व दिया
समर्थक- महात्मा गाँधी
इसके अनुसार स्वीकार किया जाता हैं कि व्यक्ति जन्म से अपराधी नही है अपितु देशकाल और बाह्य परिस्थितया इसे अपराधी बनाते हैं इसमे मृत्युदण्ड को अनुचित माना जाता हैं
दण्ड का उद्धेश्य- व्यक्ति के चरित्र में सुधार करके उसे रचनात्मक कार्यो में लगाना हैं
3. प्रतिकारात्मक सिद्धान्त :- समर्थक – हीगल, अरस्तु, कान्ट
इसमे मृत्युदण्ड को उचित माना जाता हैं इसके अंतर्गत स्वीकार किया जाता हैं जितने अनुपात में अपराध किया गया है उतने ही अनुपात में व्यक्ति को दण्ड की प्राप्ति होनी चाहिए अथात् Tit for tait जेसे को तैसा
आँख के बदले आँख, दाँत के बदले दाँत **
नोट:- अरस्तु प्रतिकारात्मक दण्ड को निषेधात्मक पुरस्कार के रूप में वर्णित करता हैं
उक्त तीनो दण्ड सिंद्धान्तो में से मानवतावाद के साथ केवल सुधारत्मक सिद्धान्त संगत माना जा सकता है क्यों कि बाकि दो सिद्धान्तों में तो सुदजर का अवसर ही प्राप्त नही हो सकता
Kant’s Ethics-Freedom of Resolutions important facts-
1-संकल्प स्वतंत्रता नैतिकता का आधार है यह कथन है -D.आर्की
2-स्वतंत्रता वादियों के अनुसार व्यक्ति का संकल्प निर्भर करता है – उसकी स्वतंत्र इच्छा पर
3- स्वतंत्रता वाद के अनुसार मानव का संकल्प -भौतिक घटनाओं की भांति कारण कार्य संबंध से नियंत्रित नहीं होता है
4-नियतिवाद के अनुसार मानव का संकल्प निर्धारित होता है -प्रयोजनों से
5- संकल्प की स्वतंत्रता किसे अस्वीकार करता है -मानव कर्म की पूर्व अनुमति से संगत विकल्प स्वतंत्रता को
6- मनुष्य को सजा दी गई है कि वह स्वतंत्र है – अनियतत्वो का समर्थन करता है
7-हेडोनिज्म का अर्थ है – सुखवाद
8-प्रकृति ने मनुष्य को सुख व दुख के साम्राज्य में रखा है यह कथन है -बेंथम
9- नैतिक सुखवाद का कथन है कि -हमें सदा सुख की खोज करनी चाहिए
10-सुखवाद अनुसार मानव जीवन का चरम उद्देश्य सुख है जो सर्वोच्च शुभ है यह दो मान्यताओं पर आधारित है तथा वह है -तात्विक एवं मनोवैज्ञानिक
नीतिशास्त्र नीतिशास्त्र नीतिशास्त्र नीतिशास्त्र नीतिशास्त्र नीतिशास्त्र नीतिशास्त्र नीतिशास्त्र नीतिशास्त्र