Rajasthan Folk drama राजस्थान के लोक नाट्य
लोक नाट्यो में ‘तुर्रा कलंगी’ कम से कम 500 साल.पुराना हैं। मेवाड़ के दो पीर संतो ने जिनके नाम शाहअली और तुक्कनगीर थे ‘ तुर्राकलंगी ‘की रचना की। बीकानेर की ‘रम्मत’ की अपनी न्यारी ही विशेषता ह
Rajasthan Folk drama
1. ख्याल:-
नाटक मे जहाँ देखना और सुनना दोनों प्रधान होते है वहां ख्याल मे केवल सुनना प्रधान होता हैं। 18 वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही राजस्थान में लोक नाट्यों के नियमित रुप से सम्पन्न होने के प्रमाण मिलते हैं। इन्हें ख्याल कहा जाता था। इन ख्यालों की विषय-वस्तु पौराणिक या किसी पुराख्यान से जुड़ी होती है।
इनमें ऐतिहासिक तत्व भी होते हैं तथा उस जमाने के लोकप्रिय वीराख्यान आदि होते हैं। भौगोलिक अन्तर के कारण इन ख्यालों ने भी परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग रुप ग्रहण कर लिए। इन ख्यालों के खास है, कुचामनी ख्याल, शेखावटी ख्याल, माँची ख्याल तथा हाथरसी ख्याल।
ये सभी ख्याल बोलियों में ही अलग नहीं है। बल्कि इनमें शैलीगत भिन्नता भी है। जहाँ कुछ ख्यालों में संगीत की महत्ता भी है दूसरों में नाटक, नृत्य और गीतों का प्राधान्य है। गीत प्राय: लोकगीतों पर आधारित है या शास्रीय संगीत पर। लोकगीतों एवं शास्रीय संगीत का भेद ख्याल को गाने वाले विशेष नाट्यकार पर ही आधारित होता है।
अगर लोकनाट्यकार शास्रीय संगीत का जानकार है तो वह ख्याल संगीत प्रधान होगा। यदि खिलाड़ी अभिनेता नृत्य का जानकार हुआ तो ख्याल नृत्य प्रधान होगा।
कुचामनी ख्याल –
विख्यात लोक नाट्यकार लच्छीराम द्वारा इसका प्रर्वतन किया गया इसने प्रचलित ख्याल परम्परा में अपनी शैली का समावेश किया। इस शैली की विशेषताएँ निम्नलिखित है –
- अ) इसका रुप आपेरा जैसा है।
- ब) गीत (लोकगीतों) की प्रधानता है।
- स) लय के अनुसार ही नृत्य के कदमों की ताल बंधी है।
- द) खुले मंच (ओपन एयर) में इसे सम्पन्न किया जाता है।
इसकी कुछ अन्य विशेषताएँ भी है। यथा –
- (1) सरल भाषा
- (2) सीधी बोधगम्य लोकप्रिय धुनों का प्रयोग
- (3) अभिनय की कुछ सूक्ष्म भावभिव्यक्तियाँ।
- (4) सामाजिक व्यंग्य पर आधारित कथावस्तु का चुनाव।
लच्छीराम – खुद एक अच्छे नर्तक और लेखक थे। उन्होंने 10 ख्यालों की रचना की, जिनमें चाँदी नीलगिरी, राव रिड़मल तथा मीरा मंगल मुख्य है। उनके पास अपनी खुद की नृत्य मण्डली थी, जो वह पेशेवर नृत्य के लिए भी उपयोग करते थे।
- ? स्री चरित्र का अभिनय पुरुष पात्र ही करते हैं।
- ? ख्याल में संगत के लिए ढोल वादक, शहनाई वादक व सारंगी वादक मुख्य रुप से सहयोगी होते हैं।
- ? गीत बहुत ऊँचे स्वर में गाये जाते हैं और इन्हें प्राय: नृतक ही गाते हैं।
- ? इन दिनों ख्याल शैली के प्रमुख प्रर्वतक उगमराज खिलाड़ी है।
शेखावटी ख्याल-
नानूराम इस शैली के मुख्य खिलाड़ी रहे। शेखावाटी के कुछ ख्याल-
(1) हीरराझाँ
(2) हरीशचन्द्र
(3) भर्तृहरि
(4) जयदेव कलाली
(5) ढोला मरवड़
(6) आल्हादेव।
नानूराम चिड़ावा के निवासी थे, और मुसलमान थे। किन्तु सभी जाति के लोग उनका बडा सम्मान करते थे। अपनी कला के लिए वे आज भी सभी सम्प्रदायों में याद किए जाते है। उनके योग्यतम शिष्यों में दूलिया राणा का नाम लिया जाता है, जो उपर्युक्त सभी ख्याल अपने भतीजे के साथ खेला करते हैं।
विशेषताएं
- अच्छा पद संचालन
- पूर्ण सम्प्रेषित हो सके उस शैली, भाषा और मुद्रा में गीत गायन
- वाद्यवृन्द की उचित संगत, जिनमें प्राय: हारमोनियम, सारंगी, शहनाई, बाँसुरी, नक्कारा तथा ढोलक का प्रयोग करते हैं।
दुलिया राणा की मृत्यु के बाद उनके पुत्र सोहन लाल तथा पोते बन्सी बनारसी आज तक भी साल में आठ महीनों तक इन ख्यालों का अखाड़ा लगाते हैं।
जयपुरी ख्याल –
यद्यपि सभी ख्यालों की प्रकृति मिलती-जुलती है, परन्तु जयपुर ख्याल की कुछ अपनी विशेषता है जो इस प्रकार है-
- स्री पात्रों की भूमिका भी स्रियाँ निभाती हैं।
- जयपुर ख्याल में नए प्रयोगों की महती संभावनाएँ हैं।
- यह शैली रुढ़ नहीं है। मुक्त है तथा लचीली है।
- इसमें अखबारों, कविता, संगीत, नृत्य तथा गान व अभिनय का सुंदर समानुपातिक समावेश है।
इस शैली के कुछ लोकप्रिय ख्याल निम्नांकित है –
(1) जोगी-जोगन
(2) कान-गूजरी
(3) मियाँ-बीबी
(4) पठान
(5) रसीली तम्बोलन।
तुर्रा कलंगी ख्याल-
मेवाड़ के शाह अली और तुकनगीर नाम के दो संत पीरों ने 400 वर्ष पहले इसकी रचना की और इसे यह नाम दिया।
- तुर्रा को महादेव “शिव’ और “कलंगी’ को “पार्वती’ का प्रतीक माना जाता है।
- तुकनगीर “तुर्रा’ के पक्षकार थे तथा शाह अली “कलंगी’ के।
- इन दोनों खिलाड़ियों ने “तुर्राकलंगी’ के माध्यम से “शिवशक्ति’ के विचारों को लोक जीवन तक पहुँचाया।
- इनके प्रचार का मुख्य माध्यम काव्यमय सरंचनाएँ थी, जिन्हें लोक समाज में “दंगल’ के नाम से जाना जाता है।
- ये “दंगल’ जब भी आयोजित होते हैं, तो दोनों पक्षों के खिलाड़ियों को बुलाया जाता है और फिर इनमें पहर-दर-पहर काव्यात्मक संवाद होते हैं।
- “तुर्रा कलंगी’ का ख्याल बहुत लोकप्रिय हुआ है और यह सम्पूर्ण राजस्थान में खेला जाता है। इसका विस्तार मध्यप्रदेश तक भी है।
- “तुर्रा कलंगी’ सम्बन्धी सबसे पहले केले गए ख्याल का नाम “तुर्रा कलंगी का ख्याल’ था।
- तुर्रा कलंगी के शेष चरित्र प्राय: वही होते हैं जो अन्य ख्यालों के होते हैं।
निम्नलिखित विशिष्ट बातें इसकी उल्लेखनीय है –
- इसकी प्रकृति गैर व्यावसायिक की है।
- इसमें रंगमंच की भरपूर सजावट की जाती है।
- नृत्य की कदम ताल सरल होती है।
- लयात्सम गायन जो, कविता के बोल जैसा ही होता है।
- यही एक ऐसा लोकनाट्य है जिसमें दर्शक अधिक भाग लेते थे।
“तुर्रा कलंगी’ के मुख्य केन्द्र है, घोसूण्डा, चित्तौड़, निम्बाहेड़ा तथा नीमच (मध्य प्रदेश) इन स्थानों में “तुर्रा कलंगी’ के सर्वश्रेष्ठ कलाकार दिए हैं।जैसे चेतराम, घोसूण्डा का हमीद बेग एवं संवादों, पायल ताराचन्द तथा ठाकुर ओंकार सिंह आदि। इन तुर्राकलंगी खिलाड़ियों में “सोनी जयदयाल’ बहुत ही विख्यात एवं प्रतिभाशाली था।
अलीबक्शी ख्याल:- इनका सबसे पहला ख्याल कृष्णलीला जो ख्याल शैली के नाट्यो मे सर्वश्रेष्ठ समझा गया।
कन्हैया दंगल ख्याल:- इनका विस्तार सवाईमाधोपुर, टोंक, दौसा, करोली, भरतपुर के गांवो मे देखा गया हैं।
रम्मत :- रम्मत का अभिप्राय खेल हैं रम्मत बीकानेर, जैसलमेर, पोकरण और फलोदी क्षेत्र मे होती हैं।
तमाशा: –तमाशा जयपुर की परम्परागत लोक नाट्य शैली हैं।
गंधर्व नाट्य:- मारव़ाड के निवासी गंधर्व पेशेवर नृत्यकार होते है।
सवारी नाट्य :- सवारी अथवा जुलूस के रुप मे होता हैं।
माच के ख्याल
दंगली नाट्य
बैटकी -नाट्य
चारबैत
2 लीला:-
- लोक नाट्य का एक बहु प्रचलित रुप जिसकी कथा पुराणों या पुराख्यालो से ली जाती हैं।
- रासलीला: -रासलीला श्री कृष्ण के जीवन-चरित्र पर आधारित हैं।
- रामलीला: -यह भगवान श्रीराम के जीवन गाथा पर.आधारित लोक नाट्य हैं।
- रामत:-
- सनकादिकों की लीलाएँ:-
- रासधारी:-
3. स्वांग :-
- लोक नाट्यो के रुपों मे एक परम्परा ‘ स्वांग’ भी हैं शाब्दिक अर्थ हैं – किसी विशेष, एतिहासिक, पौराणिक, लोक प्रसिद्ध या समाज मे विख्यात चरित्र ।
- बहरुपिये/भाण्ड: -सपूर्ण राजस्थान मे बरुपिये मिलते है।
- कला का सबसे नामी कलाकार ‘ केलवा का परशुराम भाण्ड’ हैं। भीलवाड़ा के ‘ जानकीलाल भाण्ड थे।
4 नौटंकी
- नौटंकी का शाब्दिक अर्थ है नाटक का अभिनय करना।
5 नृत्य नाट्य
- गवरी (राई):- भीलो द्रारा भाद्रपद माह के प्रारंभ से आशिवन शुक्ला एकादशी तक गवरी उत्सव मे किया जाता हैं।
- भवाई:- एक मान्यता के अनुसार भवाई नृत्य नाट्य करने वाली जाति की उत्पति अजमेर (केकडी )के ‘नागोजी जाट ‘ ने की थी।
6.पारसी थियेटर:-
- इस शताब्दी के प्राथमिक चरण मे हमारे देश मे एक नये ही किस्म की रंगमंचीय कला का विकास हुआ, जिसका नाम ‘ पारसी थियेटर’ ,था
- राजस्थान मे प्रथम पारसी थियेटर की स्थापना जयपुर मे ‘ रामप्रकाश थियेटर के नाम से महाराजा रामसिंह द्रितीय ने 1878मे की थी।
- वे इस परम्पुरा का 1993 ई तक निर्वाह करते रहे।
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