राजस्थान में जनजाति
जनजाति
भौगोलिक दृष्टि से राजस्थान में जनजातियों को 3 क्षेत्रों में विभाजित किया गया है ।
- पूर्वी एवं दक्षिणी पूर्वी क्षेत्र
- दक्षिणी क्षेत्र
- उत्तर पश्चिम क्षेत्र
1. पूर्वी एवं दक्षिणी पूर्वी क्षेत्र ( Eastern and Southern Eastern Areas )
अलवर ,भरतपुर ,धौलपुर, जयपुर, दोसा, सवाई माधोपुर, करौली ,अजमेर ,भीलवाड़ा, टोंक, कोटा, बारां, बूंदी, झालावाड़ इन क्षेत्रों में मीणा जाति का बाहुल्य है। अन्य जनजातियां भील, सहरिया, और सांसी पाई जाती है ,।
2. दक्षिणी क्षेत्र ( Southern Region )
सिरोही ,राजसमंद ,चित्तौड़गढ़, बांसवाड़ा ,डूंगरपुर ,उदयपुर क्षेत्र में भील, मीणा, गरासिया, डामोर मुख्य रूप से निवास करते हैं। भील जनजाति की बहुलता है। 70% गरासिया जनजाति सिरोही आबूरोड तहसील में निवास करती है। 98% डामोर जनजाति डूंगरपुर जिले की सीमलवाडा तहसील में निवास करते हैं ।
3. उत्तर पश्चिम क्षेत्र ( North West area )
झुंझुनू ,सीकर ,चूरू ,हनुमानगढ़, गंगानगर ,बीकानेर ,जैसलमेर, नागौर ,जोधपुर ,पाली ,बाड़मेर, जालोर इस क्षेत्र में मिश्रित जनजाति पाई जाती है । भील ,गरासिया ,मीणा मुख्य रूप से पाए जाते हैं ।
मीणा ( Meena )
मीणा शब्द का शाब्दिक अर्थ मत्स्य या मछली है । इनका संबंध भगवान मत्स्य अवतार से है। मीणाओं का संबंध मछली से उसी प्रकार संबंधित है जैसे भीलों का तीर कमान से । मीणा जनजाति में मछली निषेध है । इनमें 2 वर्ग मिलते हैं जमीदार मीणा व चौकीदार मीणा ।
इनके अलावा अन्य सामाजिक समूह भी मिलते हैं ।
- चौथिया मीणा- मारवाड़ के विभिन्न क्षेत्रों में कमजोर जमीदारों या ग्रामीणों द्वारा गांव की रक्षा हेतु चौथ कायम कर दी जिस कारण कुछ मीणा यहां रहने लगे इन्हें चौथिया मीना कहते हैं।
- आद मीणा- ऊंषाहार वंश के मीणा को ठेठ असली और अमिश्रित मीणा माना गया है ।
- रावत मीणा- स्वर्ण हिंदू राजपूतों से संबंधित मीणा रावत मीणा कहलाते हैं।
- चमरिया मीणा- चमड़े के कार्य से जुड़े होते हैं।
- सूरतेवाल मीणा – जब मीणा पुरुष किसी मालिन् या ऐसी ही किसी स्त्री से कोई संतान उत्पन्न करता है तो वह सूरतेवाल मीणा कहलाते हैं ।
- ठेड़िया मीणा – गोडवाड तथा जालौर क्षेत्र के मीना इस नाम से जाने जाते हैं।
- पडिहार मीणा – भैसे (पाडे) का मांस खाने के कारण इन्हें पडिहार मीना कहते हैं।
- भील मीणा- भील एवं मीणा लगातार संपर्क में आने के कारण या भील मीणा अस्तित्व में आए । इनमें गोद प्रथा पाई जाती है।
ब्रह्म विवाह गंधर्व विवाह और राक्षस विवाह का प्रचलन है था परंतु वर्तमान में विवाह स्वभाविक रुप से संपन्न होते हैं । हिंदू धर्म को मानते हैं शक्ति और शिवजी के उपासक होते हैं । पितरों को जल अर्पण करने की रस्म निभाते हैं । जादू टोने में विश्वास करते हैं । गांव का पटेल पंच पटेल कहलाता है ।
Bhil tribe of Rajasthan भील
स्थाई रूप से कृषक । सामाजिक दृष्टि से पितृसत्तात्मक,री शब्दों का अधिक प्रयोग होता है ।हैडन परंपरागत रूप से अच्छे तीरंदाज। मानव शास्त्रीय मुंडा जाति के वंशज मानते हैं इनकी भाषा मैं मुंडा ने इन्हें पूर्व द्रविड़ों की पश्चिम शाखा माना है ।
रिजले और क्रुक ने इन्हें द्रविड़ माना है ।प्रोफेसर गुहा इन्हें प्रोटो ऑस्ट्रेलियायड की प्रजाति से संबंधित मानते हैं । कर्नल टॉड के अनुसार तत्कालीन मेवाड़ राज्य अरावली पर्वत श्रेणी में रहने वाले लोग हैं ।
संस्कृत साहित्य में इन्हें निषाद या पुलिंद जाति से संबंधित माना गया है । इनकी उत्पत्ति महादेव की एक भील उप पत्नी से हुई है । भीलो की उत्पत्ति के विषय में महाभारत पुराण रामायण आदि प्राचीन ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है ।
यह देश के आदिम निवासी है। भील का अर्थ तीर चलाने वाले व्यक्ति से लिया गया है । द्रविड़ भाषा का शब्द जिसकी उत्पत्ति बिल या विल अर्थात तीर से हुई है । भीलो की कई उप शाखाओं का वर्णन है ।
इनमें से कई राजपूतों की उपशाखाएं भी पाई जाती है । भील जनजाति में राजपूतों के रक्त मिश्रण की पूर्ण संभावना है।
परंतु द्रावी ,जारगट, लेखिया और गेटार आदि भील गोत्रों में राजपूतों के रक्त का सम्मिश्रण नहीं है । कल्याणपुर के ओवरी ग्राम के भील मसार कहलाते हैं ।और अपने आप को धार के पवार बताते हैं । पार्ड़ा क्षेत्र के भील अपनी उत्पत्ति गुजरो से मानते हैं बुज गुर्जर भीलो में विवाह संबंध स्थापित करके भील हो गए ।
महुवाड़ा ,खेजड़ और सराडा क्षेत्र के भील पारगी कहलाते हैं । देवरा के भील अपने आप को सिसोदिया कहते हैं । सांभर के भ्रम में गाय मार कर खा गए भिलों में विवाह कर उन्हीं में शरीक हो गए यह गरासिया भील कहलाए । बिलक़ भील हाड़ा चौहान माने जाते हैं यह अहरि नाम से प्रसिद्ध है । कागदर के भिल राठौर कहलाते हैं।
नठारा और बारापाल के भील कटार चौहान कहलाते हैं । जिस क्षेत्र में वास करते हैं वह नायर कहलाता है । वीर भोमिया अपने आप को राजपूत कहते हैं ।
1895 में जीएम थॉमसन भी्ली व्याकरण प्रकाशित की भीली भाषा में कई शब्द गुजराती है। भीलो की भाषा को कॉपर्स और जूनगल्ट इंडो आर्यन भाषा समूह से संबंधित नहीं मानते ।
भील छोटे कद के गाढे काले रंग चौड़ी नाक रूखे बाल लाल आंखें और जबड़ा बाहर निकले हुए होते हैं। हाथ पैर की हड्डियां मोटी होती है पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां सुंदर होती है ।
वस्त्रों के आधार पर इन्हें दो वर्गों में बांटा जा सकता है ।
- लंगोटिया भील ( Langotiya bheel)
- पोतिद्द्दा भील ( Potidda Bhil )
लंगोटिया भील – कमर में एक लंगोटी पहनते हैं जिसे खोयतू कहते हैं ।
पोतिदद्दा भील – धोती बंडी और पगड़ी से शरीर् को ढकते हैं ।कमर पर अंगोछा लपेटते हैं यह फालू कहलाता है।
स्त्रियां जो कपड़े पहनती है कछावु कहलाते हैं। स्त्री पुरुषों को गोदने गुदवाने का बड़ा शौक होता है । बहुत से झोपड़े मिलकर पाल बनाते बनाते हैं । इनका मुख्य पालवी कहलाता है। भीलों के घर को कू कहते हैं।
मैदानी क्षेत्र में निवास करने वाले भील गांव में एक मोहल्ला फला बनाकर रहते हैं । छोटे गांव को फला बड़े गांव को पाल कहते हैं । भोजन में मक्का की रोटी कांदों का भात मुख्य है। मांसाहारी होते हैं महुआ की शराब व ताड का रस पीते हैं। संयुक्त परिवार प्रथा होती है ।
गांव में एक ही वंश की शाखा के लोग रहते हैं उनके मुखिया को तदवी या वंसाओ कहा जाता है। भीलों में विवाह इन्हें कन्या का मूल्य देना पड़ता है जिसे दापा कहा जाता है जो लड़की का बाप लेता है ।
नातरा विवाह, देवर ,बहुपत्नी ,बट्टा ,घर जमाई प्रथा आदि का प्रचलन है । भील भोले परंतु वीर साहसी और निडर स्वामी भक्त होते हैं। केसरिया नाथ के चढ़ी केसर का पानी पीकर कभी झूठ नहीं बोलते हैं । घर आए शत्रु का भी सम्मान करते हैं । फायरे भीलों का रण घोष है।
समस्त पाल का मुखिया गमेती कहलाताहै ।
मार्गदर्शक को बोलावा कहते हैं। कोई भील किसी सैनिक के घोड़े को मार ले तो वह पाखरीया कहलाता है ।जिसकी समाज में बड़ी इज्जत होती है । पाडा कह देने पर बहुत खुश होते हैं जबकि कांडी कहने पर गाली मानते हैं ।
हिंदू धर्म को मानते हैं और उन्हीं की भांति कर्मकांड करते हैं होली विशेष त्यौहार है । पहाड़ी ढालो पर वनों को जलाकर खेती करते हैं जिसे चिमाता कहा जाता है । मैदानी भाग में वनों को काटकर खेती करते हैं इसे दजिया कहा जाता है ।
गरासिया ( Garasia )
तीसरी सबसे बड़ी जनजाति गरासिया जनजाति चौहान राजपूतों के वंशज है ।
बड़ौदा के निकट चैनपारीन् क्षेत्र से चित्तौड़ के निकट आए अपनी राजपूती आदतों को त्याग कर भीलो की पुत्रियों से विवाह कर उन्हीं के अति निकट आदिम प्रकार का जीवन व्यतीत करते हैं।
गरासिया बोली भीली बोली से मिलती जुलती है लेकिन इसमें गुजराती के साथ मराठी शब्दों का प्रयोग भी है । पितृसत्तात्मक परिवार एक ही गोत्र एवं अटक के सदस्य आपस् में भाई बहन होते हैं । विवाह एक संविदा माना जाता है और उसका आधार वधू मूल्य होता है ।
तीन प्रकार के विवाह प्रचलित है मोर बंधिया विवाह के अंतर्गत फेरे चवरी और मोर बाँधना रस्मे होती है। पहरावना विवाह इसमें नाम मात्र के फेरे होते हैं । ताणना विवाह इसमें किसी प्रकार की रस्में नहीं होती है इसमें कन्या का मूल्य भेंट स्वरूप दिया जाता है ।
शिव भैरव दुर्गा की पूजा करते हैं अत्यंत अंधविश्वासी होते हैं । सफेद रंग के पशुओं को पवित्र मानते हैं । शव जलाने की प्रथा है 12 वें दिन अंतिम संस्कार करते हैं ।
होली और गणगौर प्रमुख त्योहार हैं । तीन मेले
- स्थानीय मेले ,
- संभागीय मेले और
- सबसे बड़ा मेला ( मनखारो मेलों ) होते हैं
गांवों में सबसे छोटी इकाई फलियां कहलाती है ।
सांसी जनजाति ( Sansi tribe )
खानाबदोश जीवन व्यतीत करती है । उत्पत्ति सासमल नामक व्यक्ति से। जनजाति दो भागों में विभक्त है
- प्रथम बीजा
- दूसरी माला
लोगों में सगाई की रस्म अनोखे ढंग से मनाई जाती है जब दो खानाबदोश समूह संयोग से घूमते-घूमते एक स्थान पर मिल जाते हैं तो सगाई हो जाती है गिरी के गोले के लेन-देन मात्र से विवाह पक्का मान लेते हैं।
होली व दीपावली के अवसर पर देवी माता के सम्मुख बकरों की बलि चढ़ाते हैं । यह लोग नीम पीपल और बरगद आदि वृक्षों की पूजा करते हैं। मांस में लोमड़ी और सांड का मांस अधिक पसंद किया जाता है। शराब भी पसंद करते हैं ।
सहरिया जनजाति ( Saharia tribe )
बारा जिले की किशनगंज शाहबाद तहसील में निवास करते हैं । सहरिया जनजाति के गांव सहरोल कहलाते हैं । गांव के एकदम बाहर इन की बस्ती को सहराना कहते हैं । जिसमें गैर सहरिया निवास नहीं कर सकता। सबसे छोटी इकाई फला कहलाती है ।
सहरिया स्वभावव से संतोषी, हिंसा व अपराध से दूर रहते हैं। यह भूख से मरना मंजूर करते हैं लेकिन भीख नहीं मांगते। बहुविवाह ,वधू मूल्य ,प्रचलित सगोत्र विवाह वर्जित ।
कन्या की गोद में मिठा रख कर सगाई संबंध पक्का करते हैं। मुखिया को कोतवाल कहते हैं सावन श्राद्ध नवरात्रा दशहरा दीपावली होली आदि प्रमुख पर्व मनाते हैं । पुवाड़ की सब्जी खाते हैं और महुआ फलों का सेवन करते हैं।
डामोर जनजाति ( Dhamor tribe )
डूंगरपुर जिले की सीमलवाडा पंचायत समिति और बांसवाड़ा जिले में गुजरात की सीमा पर पाए जाते हैं । यह अपनी उतपत्ति राजपूतों से बतलाते हैं । गांव की छोटी इकाई फला कहलाती है । मांसाहारी व शराब प्रिय।
विवाह की हर विधि में वधू मूल्य लिया जाता है कोई रियायत नहीं। बहुपत्नी विवाह प्रचलित नातरा प्रथा बच्चों के मुंडन की प्रथा प्रचलित है ।
डामोर जनजाति के लोगों के लिए छैला बाबजी का मेला जो गुजरात के पंचमहल में आयोजित होता है तथा ग्यारस की रेवाड़ी का मेला डूंगरपुर शहर में सितंबर माह में लगने वाला मेला दोनों महत्वपूर्ण मेले हैं। मुख्य रूप से कृषि से जीवन यापन करते हैं ।
कंजर जनजाति ( Kanraj tribe )
घुमंतू जनजाति अपराध वृत्ति के लिए प्रसिद्ध है संस्कृत शब्द काननचार अथवा कनकचार का अपभ्रंश है ।जिसका अर्थ जंगलों में विचरण करने वाला होता है । यह सामान्य कद के होते हैं पैदल चलने में इनका मुकाबला नहीं है।
कंजरों के मकान में किवाड़ नहीं होते हैं ।मकान के पृष्ठ भाग में एक खिड़की जरूर होती है जिसका यह उपयोग भाग कर् गिरफ्तारी से बचने के लिए करते हैं। इनमें एकता बहुत होती है ।
कंजर परिवारों में पटेल का स्थान प्रमुख होता है । किसी मामले की सच्चाई जानने के लिए संबंधित आदमी को हाकम राजा का प्याला पीकर कसम खानी पड़ती है ।चौथ माता और हनुमान जी को अपना आराध्य देव मानते हैं।
कंजर महिलाएं नाचने गाने में प्रवीण होती है । मरते समय व्यक्ति के मुंह में शराब की कुछ बूंदें डाली जाती है। मृतकों को गाड़ने की प्रथा है।मांसाहारी और शराब प्रिय जाति है । राष्ट्रीय पक्षी मोर का मांस इन्हें सर्वाधिक प्रिय है । कंजर लोग चोरी डकैती राहजनी को आज भी अपने बुजुर्गों की विरासत मानते हैं ।
चोरी डकैती तथा राहजनी जैसी वारदात पर जाने से पूर्व यह लोग विभिन्न तरीकों से शगुन अपशगुन देखते हैं ईश्वर का आशीर्वाद भी प्राप्त करते हैं इसे पाती मांगना कहते हैं ।
कथोडी जनजाति ( Kathodi tribe )
यह जनजाति छितरी छितरी निवास करती है । पत्तों की बनी झोपड़ियों में रहते हैं और खेर् के पेड़ों से कत्था तैयार कर जीवन यापन करते हैं इनका बाहुल्य दक्षिण पश्चिम राजस्थान की कोटड़ी तहसील और बारां जिले में है ।