Sangam Period ( संगमकाल )
चेर वंश ( Cher dynasty )
चेर, केरल का प्राचीन नाम था। द्रविड़ अथवा तमिल कहलाने वाले पांड्य, चोल और चेर नाम के तीन क्षेत्र दक्षिण भारत की सर्वप्रथम राजनीतिक शक्तियों के रूप में दिखाई देते हैं। अत्यंत प्रारंभिक चेर राजाओं को वानवार जाति का कहा गया है।
अशोक ने अपने साम्राज्य के बाहर दक्षिण की ओर के जिन देशों में धर्मप्रचार के लिए अपने महामात्य भेजे थे, उनमें एक था केरलपुत्र अर्थात् चेर ( शिलाभिलेख द्वितीय और त्रयोदश)।
Sangam Period
Sangam Period (लगभग 100 ई. से 250 ई. तक) का सबसे पहला चेर शासक था उदियंजेराल (130 ई.) जिसे संगम साहित्य में बहुत बड़ा विजेता कहा गया है उसे अथवा उसके वंश को महाभारत की घटनाओं से जोड़ा गया है।
चेर प्राचीन भारत का एक राजवंश था। इसको यदा कदा केरलपुत्र नाम से भी जाना जाता है। इसका विस्तार आधुनिक कोयम्बटूर, सलेम तथा करूर जिले तथा पास के केरल के पर्वतीय क्षेत्रों के पास केन्द्रित था।
चेरों का शासन काल संगम साहित्य युग के पूर्व आरंभ हुआ था। इसी काल के उनके पड़ोसी शासक थे – चोल तथा पांड्य। इनके काल में तमिल भाषा का बहुत उत्थान हुआ था। संगम साहित्य से चेर शासकों पर विशेष प्रकाश पड़ता है।
प्राचीन चेर राज्य में मूल रूप से उतरी त्रावणकोर, कोचीन तथा दक्षिणी मालाबार सम्मिलित थे। प्राचीन चेर राज्य की दो राजधानियाँ थीं, वंजि और तोण्डी।
वंजि की पहचान करूर से की गई है। टोलमी चेरों की राजधानी करौरा का उल्लेख करता है। प्रथम चेर शासक उदयन जेराल के बारे में कहा जाता है कि उसने कुरुक्षेत्र में भाग लेने वाले सभी योद्धाओं को भोजन दिया। अत: उसे महाभोज उदयन जेरल की उपाधि दी गई।
उदयन जेरल का पुत्र नेदुजेरल आदन ने कई राजाओं को पराजित करके अधिराज की उपाधि ली। वह इमैवरैयन (जिसकी सीमा हिमालय तक हो) कहा जाता था। नेडुंजेराल आदन भी शक्तिशाली था। उसने कुछ यवन (रोमक) व्यापारियों को बलात् रोककर धन वसूल किया, अपने सात समकालिक राजाओं पर विजय प्राप्त की
उसका छोटा भाई कुट्टुवन भी बड़ा भारी विजेता था, जिसने अपनी विजयों द्वारा चेर राज्य की सीमा को पश्चिमी पयोधि से पूर्वी पयोधि तक फैला दिया। वह दावा करता है कि उसने सारे भारत की जीत लिया तथा हिमालय पर चेर राजवंश के चिह्न को अंकित किया। उसकी राजधानी का नाम मरन्दई था।
आदन का पुत्र सेनगुटुवन था, परनर कवि द्वारा यश वर्णन किया गया है। वह एक कुशल अश्वारोही था तथा उसके पास संभवत: एक जलबेड़ा भी था। उसने कन्नगी पूजा अथवा पत्नी पूजा आरंभ की। माना जाता है कि पत्नी पूजा की मूर्ति के लिए पत्थर गंगा नदी से धोकर लाया गया था। शिल्पादिगारम में कन्नगीपूजा का प्रमाण मिलता है।
एक चेर शासक आदिग इमान उर्फ नदुमान अंजि है। वह विद्वानों का बड़ा संरक्षक था, उसे दक्षिण में गन्ने की खेती शुरू करने का श्रेय दिया जाता है। एक चेर शासक शेय था जिसे हाथी जैसे आँखों वाला कहा जाता था।
इस वंश के कुडड्की इरंजेराल इरुंपोडई (190 ई.) ने चोलों और पांड्यों से युद्ध के कई दुर्गों को जीता तथा उनकी धन-संपत्ति भी लूटी किंतु उसके बाद के मांदरजेराल इरुंपोडई नामक एक राजा को (210 ई.) पांड्यों से मुँह की खानी पड़ी।
अंतिम चेर शासक कुडक्को इलंजेराल इरमपोई थी। चेरो की राजधानी करूयूर अथवा वंजीपुर थी। चेरों का राजकीय चिह्न धनुष था।
इन चेर राजाओं की राजधानी वेंगि थी, जिसके आधुनिक स्थान की ठीक-ठीक पहचान कर सकना कठिन है। विद्वानों में इस विषय में इस विषय पर बड़ मतभेद है।
आदन उदियंजेराल का वंश कौटिल्य अर्थशास्त्र में वर्णित कुलसंघ का एक उदाहरण माना जाता है। कुलसंघ में एक राजा मात्र का नहीं अपितु राजपरिवार के सभी सदस्यों का राज्य पर शासन होता है।
तीसरी शती के मध्य से आगे लगभग 300 वर्षों का चेर इतिहास अज्ञात है। पेरुमल उपाधिधारी जिन राजाओं ने वहाँ शासन किया, वे भी चेर के निवासी नहीं, अपितु बाहरी थे।
सातवीं आठवीं शती के प्रथम चरण में पांड्यों ने चेर के कोंगु प्रदेश पर अधिकार कर लिया। अन्य चेर प्रदेशों पर भी उनके तथा अन्य समकालिक शक्तियों के आक्रमण होते रहे।
चेर राजाओं ने पल्लवों से मित्रता कर ली और इस प्रकार अपने को पांड्यों से बचाने की कोशिश की। आठवीं नवीं शती का चेर राजा चेरमान् पेरुमाल अत्यंत धर्मसहिष्णु और कदाचित् सर्वधर्मोपासक था। अनेक विद्वानों के मत में उसके शासनकाल के अंत के साथ कोल्लम अथवा मलयालम् संवत् का प्रारंभ हुआ (824-24 ई.)।
उसके समय में अरबी मुसलमानों ने मलाबार के तटों पर अपनी बस्तियाँ बसा लीं और वहाँ की स्त्रियों से विवाह भी किया, जिनसे मोपला लोगों की उत्पत्ति हुई।
चेरमान् पेरुमाल स्वयं भी लेखक और कवि था। उसके समकालिक लेखकों में प्रसिद्ध थे शंकराचार्य, जो भारतीय धर्म और दर्शन के इतिहास में सर्वदा अमर रहेंगे। पेरुमल ने अपने मरने के पूर्व संभवत: अपना राज्य अपने सभी संबंधियों में बाँट दिया था।
नवीं शतीं के अंत में चेर शासक स्थाणुरवि ने चोलराज आदित्य के पुत्र परांतक से अपनी पुत्री का विवाह कर चोलों से मित्रता कर ली। स्थाणुवि का पुत्र था विजयरागदेव। उसके वंशजों में भास्कर रविवर्मा (1047-1106) प्रसिद्ध हुआ।
किंतु राजराज प्रथम और उसके उत्तराधिकारी चोलों ने चेर का अधिकांश भाग जीत लिया। मदुरा के पांड्यों की भी उसपर दृष्टि थी। आगे रविवर्मा कुलशेखर नामक एक चेर राजा ने थोड़े समय के लिए अपने वंश की खोई हुई कुछ शक्ति पुन: अर्जित कर ली, पांड्य-पल्लव क्षेत्रों को रौंदा तथा अपने को सम्राट कहा। वह एक कुशल शासक और विद्वानों का अश्रयदाता था। कोल्लम् (क्विलॉन) उसकी राजधानी थी।
मध्ययुग और उसके बाद का चेर इतिहास बहुत स्पष्ट नहीं है। कालांतर में वह पुर्तगाली, अन्य योरोपीय आक्रमणकारियों, ईसाई धर्म-प्रचारकों और भारतीय रजवाड़ों की आपसी प्रतिस्पर्धा का विषय बन गया। अंग्रेजी युग में ट्रावणकोर और कोचीन जैसे देशी राज्य बचे तो रहे किंतु उनके पास अपनी कोई स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति नहीं थी।
विद्या और साहित्य की सेवा में चेरदेश के नंबूदरी ब्राह्मण परंपरया अग्रणी थे। उनमें यह प्रथा थी कि केवल जेठा भाई विवाह कर घरबार की चिंता करता था। शेष सभी छोटे भाई पारिवारिक चिंताओं से मुक्त होकर साधारण जनता में विद्या का प्रचार और स्वयं विद्याध्ययन में लगे रहते थे।
आर्यवंशी कुरुनंदडक्कन (नवीं शती) नामक वहाँ के शासक ने वैदिक विद्याओं के प्रचार के लिए एक विद्यालय और छात्रावास की स्थापना हेतु एक निधि स्थापित की थी। वह विद्यालय दक्षिणी त्रावणकोर में पार्थिवशेखरपुरम् के एक विष्णुमंदिर में लगता था। वास्तव में उस क्षेत्र के सभी मठ और सत्र अपने अपने ढंग से गुरुकुलों का काम करते थे।
चेर राजवंश के शासकों ने दो अलग अलग समयावाधियों में शासन किया था।पहले चेर वंश ने संगम युग में शासन किया था जबकि दूसरे चेर वंश ने 9 वीं शताब्दी ईस्वी से लेकर आगे तक के काल में भी शासन कार्य किया था।
हमें चेर वंश के बारे में जानकारी संगम साहित्य से मिलता है। चेर वंश की राजधानी बाद में चेर की उनकी राजधानी किज़न्थुर-कन्डल्लुर और करूर वांची थी।
परवर्ती चेरों की राजधानी कुलशेखरपुरम और मध्य्पुरम थी। चेरों का प्रतीक चिन्ह धनुष और तीर था. उनके द्वारा जारी सिक्को पर धनुष डिवाइस अंकित था।
उदियांजेरल- यह चेर राजवंश के पहले राजा के रूप में दर्ज किया गया है। चोलों के साथ अपनी पराजय के बाद इसने आत्महत्या कर ली थी।इसने महाभारत युद्ध में भाग लेने वाले वीरो को भोजन करवाया था ऐसी जानकारी स्रोतों से मिलती है।
नेदुन्जेरल आदन – इसने मरैंदे को अपने राजधानी के रूप में चुना था। इसके बारे में कहा जाता है की इसने सात अभिषिक्त राजाओं को पराजित करने के बाद अधिराज की उपाधि धारण की थी। इसने इयाम्बरंबन की भी उपाधि धारण की थी जिसका अर्थ होता है हिमालय तक की सीमा वाला।
सेनगुट्टवन (धर्म परायण कट्तुवन)- सेनगुट्टवन इस राजवंश का सबसे शानदार शासक था। इसे लाल चेर के नाम से भी जाना जाता था। वह प्रसिद्ध तमिल महाकाव्य शिल्प्पदिकाराम का नायक था। दक्षिण भारत से चीन के लिए दूतावास भेजने वाला वह पहला चेर राजा था।
करूर उसकी राजधानी थी। उसकी नौसेना दुनिया में सबसे अच्छी एवं मजबूत थी। इसे पत्नी पूजा का संस्थापक माना जाता है।
आदिग ईमान – इस शासक को दक्षिण में गन्ने की खेती प्रारंभ करने का श्रेय दिया जाता है।
दूसरा चेर राजवंश
कुलशेखर अलवर, दूसरे चेर राजवंश का संस्थापक था। उसकी राजधानी महोदयपुरम थी। दूसरे चेर राजवंश का अंतिम चेर राजा राम वर्मा कुलशेखर था।
सने 1090 से 1102 ईस्वी तक शासन किया था। उसके मृत्यु के बाद वंश समाप्त हो गया।
चोल वंश ( Chol Dynasty )
आरम्भिक चोल राजवंश
चोलों के विषय में प्रथम जानकारी पाणिनी कृत अष्टाध्यायी से मिलती है। चोल वंश के विषय में जानकारी के अन्य स्रोत हैं – कात्यायन कृत ‘वार्तिक’, ‘महाभारत’, ‘संगम साहित्य’, ‘पेरिप्लस ऑफ़ दी इरीथ्रियन सी’ एवं टॉलमी का उल्लेख आदि।
चोल राज्य आधुनिक कावेरी नदी घाटी, कोरोमण्डल, त्रिचनापली एवं तंजौर तक विस्तृत था। यह क्षेत्र उसके राजा की शक्ति के अनुसार घटता-बढ़ता रहता था। इस राज्य की कोई एक स्थाई राजधानी नहीं थी।
साक्ष्यों के आधार पर माना जाता है कि, इनकी पहली राजधानी ‘उत्तरी मनलूर’ थी। कालान्तर में ‘उरैयुर’ तथा ‘तंजावुर’ चोलों की राजधानी बनी। चोलों का शासकीय चिह्न बाघ था। चोल राज्य ‘किल्लि’, ‘बलावन’, ‘सोग्बिदास’ तथा ‘नेनई’ जैसे नामों से भी प्रसिद्व है।
भिन्न-भिन्न समयों में ‘उरगपुर’ (वर्तमान ‘उरैयूर’, ‘त्रिचनापली’ के पास) ‘तंजोर’ और ‘गंगकौण्ड’, ‘चोलपुरम’ (पुहार) को राजधानी बनाकर इस पर विविध राजाओं ने शासन किया। चोलमण्डल का प्राचीन इतिहास स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है।
पल्लव वंश के राजा उस पर बहुधा आक्रमण करते रहते थे, और उसे अपने राज्य विस्तार का उपयुक्त क्षेत्र मानते थे। वातापी के चालुक्य राजा भी दक्षिण दिशा में विजय यात्रा करते हुए इसे आक्रान्त करते रहे।
यही कारण है कि, नवीं सदी के मध्य भाग तक चोलमण्डल के इतिहास का विशेष महत्त्व नहीं है, और वहाँ कोई ऐसा प्रतापी राजा नहीं हुआ, जो कि अपने राज्य के उत्कर्ष में विशेष रूप से समर्थ हुआ हो।
चोल वंश के शासक
उरवप्पहर्रे इलन जेत चेन्नी- प्रथम चोल शासक इलजेतचेन्नी था। इसी ने उरैयूर राजधानी बनायी।
करिकाल- चोल राजाओं में करिकाल प्रमुख है। उसके बारे में कहा जाता है कि जब वह खुले समुद्र में जहाज चलाता था तो हवा भी उसके अनुसार बहने को बाध्य होती थी। करिकाल का अर्थ है जली हुए टांग वाला व्यक्ति। करिकाल को 7 स्वरों का ज्ञाता भी कहा जाता था।
कावेरी नदी के मुहाने पर उसने पुहार की स्थापना की। उसने पटिनप्पालै के लेखक को 16 लाख मुद्राएँ भेंट कीं। दूसरी सदी ई.पू. के एक शासक एलारा की भी चर्चा मिली है। इसने श्रीलंका पर 50 वर्षों तक शासन किया।
इनके बाद के शासको की स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है।
पांडय वंश ( Pandya Dynasty)
पाण्ड्य राजवंश पाण्ड्य राजवंश का प्रारम्भिक उल्लेख पाणिनिकी अष्टाध्यायी में मिलता है। इसके अतिरिक्त अशोक के अभिलेख ,महाभारत एवं रामायण में भीपाण्ड्य साम्राज्य के विषय में जानकारी मिलतीहै।
मेगस्थनीज पाण्ड्य राज्य का उल्लेख ‘माबर‘नाम से करता है। उसके विवरणानुसार पाण्ड्य राज्य पर ‘हैराक्ट‘ की पुत्री का शासन था, तथा वह राज्य मोतियों के लिए प्रसिद्ध था।
पाण्ड्यों की राजधानी ‘मदुरा’ (मदुरई) थी, जिसके विषय में कौटिल्य के अर्थशास्त्र से जानकारी मिलती है। मदुरा अपने कीमती मोतियों, उच्चकोटि के वस्त्रों एवं उन्नतिशील व्यापार के लिए प्रसिद्ध था।
‘इरिथ्रियन सी’ के विवरण के आधार पर पाण्ड्यों की प्रारम्भिक राजधानी ‘कोरकई’ को माना जाता है। सम्भवतः पाण्ड्य राज्य मदुरई, रामनाथपुरम, तिरुनेल्वेलि, तिरुचिरापल्ली एवं ट्रान्कोर तक विस्तृत था।
पाण्ड्यों का राजचिह्न मत्स्य (मछली) था। पाण्ड्य राज्य को ‘मिनावर’, ‘कबूरियार’, ‘पंचावर’,’तेन्नार’, ‘मरार’, ‘वालुडी’ तथा ‘सेलियार’ नामों से जाना जाता है।
प्रमुख शासक:-
पाण्ड्य राजवंश के निम्न शासक प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं-:
- नेडियोन
- पलशालैमुडुकुड़मी
- नेडुंजेलियन
- वेरिवरशेलिय कोरक
राजनीतिक दशा
दक्षिण भारत के चेर,चोल तथा पाण्ड्य राज्यों के उद्भव के संदर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि, ये राज्य कुल संघ प्रतीत होते हैं। इस प्रकार के राज्य उत्तरी भारत में भी थे, जिन्हें कौटिल्य ने कुल संघ कहा है।
इन परिषदों के सदस्य जनप्रतिनिधि,पुरोहित, ज्योतिषी, वैद्य एवं मंत्रीगण होते थे। इस परिषद को ‘पंचवरम’ या ‘पंचमहासभा’ भी कहा जाता था।इनमें-
- मंत्री – अमियचार
- पुरोहित – पुरोहितार
- सेनानायक – सेनापतियार
- दूत या राजदूत – दूतार
- गुप्तचर – ओर्रार
सैन्य व्यवस्था
Sangam Period शासकों के पास पेशेवर सैनिक होते थे। रथ,हाथी घोड़े एव पैदल सैनिक ही सेना के महत्त्वपूर्ण अंग थे। हथियार के रूप में तलवार, धनुष बाण (बिल कोल), भाला (बेल), खड़ग (बाल), बाघम्बर आदि का प्रयोग किया जाता था।
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