रेग्यूलेटिंग एक्ट (1773 ई.) –
वैधानिक विकास
18 मई, 1773 ई. को लार्ड नार्थ ने कॉमन्स सभा में ईस्ट इंण्डिया कम्पनी रेग्यूलेटिंग बिल प्रस्तुत किया, जिसे कॉमन्स सभा ने 10 जून को और लार्ड सभा ने 19 जून को पास कर दिया। यह 1773 ई. के रेग्यूलेटिंग एक्ट के नाम से प्रसिद्ध है।
इस एक्ट का मुख्य उद्देश्य कम्पनी के संविधान तथा उसके भारतीय प्रशासन में सुधार लाना था। बंगाल का शासन गवर्नर जनरल तथा चार सदस्यीय परिषद में निहित किया गया। इस परिषद में निर्णय बहुमत द्वारा लिए जाने की भी व्यवस्था की गयी।
इस अधिनियम द्वारा प्रशासक मंडल में वारेन हेस्टिंग्स को गवर्नर जनरल के रूप में तथा क्लैवरिंग, मॉनसन, बरवैल तथा पिफलिप प्रफांसिस को परिषद के सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया।
इन सभी का कार्यकाल पांच वर्ष का था तथा निदेशक बोर्ड की सिफारिश पर केवल ब्रिटिश सम्राट द्वारा ही इन्हें हटाया जा सकता था।
मद्रास तथा बम्बई प्रेसीडेंसियों को बंगाल प्रेसीडेन्सी के अधीन कर दिया गया तथा बंगाल के गवर्नर जनरल को तीनों प्रेसीडेन्सियों का गवर्नर जनरल बना दिया गया। इस प्रकार वारेन हेस्टिंग्स को बंगाल का प्रथम गवर्नर जनरल कहा जाता है और वे लोग सत्ता का उपयोग संयुक्त रूप से करते थे
सपरिषद गवर्नर जनरल को भारतीय प्रशासन के लिए कानून बनाने का अधिकार प्रदान किया गया, किन्तु इन कानूनों को लागू करने से पूर्व निदेशक बोर्ड की अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य था।
इस अधिनियम द्वारा बंगाल (कलकत्ता) में एक उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गयी।
इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अन्य न्यायाधीश थे। सर एलिजा इम्पे को उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) का प्रथम मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया।
इस न्यायालय को दीवानी, फौजदारी, जल सेना मामलों में व्यापक अधिकार दिया गया।
न्यायालय को यह भी अधिकार था कि वह कम्पनी तथा सम्राट की सेवा में लगे व्यक्तियों के विरुद्ध मामले की सुनवायी कर सकता था।
इस न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध इंग्लैंड स्थित प्रिवी कौंसिल में अपील की जा सकती थी।
संचालक मंडल का कार्यकाल चार वर्ष कर दिया गया तथा अब 500 पौंड के स्थान पर 1000 पौंड के अंशधारियों को संचालक चुनने का अधिकार दिया गया।
इस प्रकार 1773 के एक्ट के द्वारा भारत में कंपनी के कार्यों में ब्रिटिश संसद का हस्तक्षेप व नियंत्रण प्रारंभ हुआ
तथा कम्पनी के शासन के लिए पहली बार एक लिखित संविधान प्रस्तुत किया गया।
बंगाल न्यायालय एक्ट –
रेल्यूलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने के लिए ब्रिटिश संसद ने मि. बर्क की अध्यक्षता में एक कमेटी नियुक्त की। इस कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर 1781 ई. में ब्रिटिश संसद ने एक एक्ट पास किया, जिसे बंगाल न्यायालय का एक्ट कहा जाता है। इसे संशोधन अधिनियम भी कहते हैं। इस एक्ट का मुख्य उद्देश्य न्यायालय के अधिकार क्षेत्र और शक्तियों के विषय में उत्पन्न अनिश्चितता का अन्त करना था।
एक्ट की प्रमुख धाराएँ-
- इस एक्ट के अनुसार कम्पनी के कर्मचारियों के सरकारी तौर पर किए गये कार्य काफी सीमा तक सुप्रीम कोर्ट के अधिकार के बाहर कर दिए गए। दूसरे शब्दों में गवर्नर जनरल और उसकी कौंसिल द्वारा किए गए कार्यो पर सर्वोच्च न्यायालय कोई नियंत्रण नहीं रहा।
- छोटे न्यायालयों के न्याय अधिकारियों के न्याय सम्बन्धी कार्यों पर से सुप्रीम कोर्ट का कण्ट्रोल हटा दिया गया।
- राजस्व वसूल करने वाले अधिकारियों पर से सुप्रीम कोर्ट का नियंत्रण हटा लिया गया।
- गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल पर से सुप्रीम कोर्ट का नियंत्रण हटा दिया गया। अब सुप्रीम कोर्ट गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल के सिर्फ उसी कार्य में हस्तक्षेप कर सकता था, जिससे ब्रिटिश प्रजा को हानि पहुँचती हो।
- कम्पनी के न्यायालयों के निर्णयों के विरूद्ध गवर्नर जनरल और उसकी कौंसिल को अपील सुनने का अधिकार दे दिया गया।
- गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद् को सुप्रीम कोर्ट की सम्मत्ति के बिना प्रान्तीय न्यायालयों तथा परिषद् के सम्बन्ध में नियम बनाने का अधिकार दे दिया गया।
- सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र केवल कलकत्ता वाशिंदों तक सीमित कर दिया गया अर्थात् शेष स्थानों पर रहने वाले भारतीयों के मुकदमें सुनने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को नहीं था।
- यह भी कहा गया कि न्याय करते समय भारतीयों की धार्मिक परम्पराओं, रीति-रिवाजो, सामाजिक नियमों और जातीय कानूनों को ध्यान में रखा जाएगा। इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट के लिए मुकदमों के फैसले अंग्रेजी कानून के अनुसार करने की मनाही कर दी गई।
- यह भी कहा जाता है कि सुप्रीम कोर्ट हिन्दुओ के मुकदमों का हिन्दुओं के कानून के अनुसार और मुसलमानों के मुकदमों का मुसलामनों के कानून के अनुसार फैसला करे।
इस एक्ट से सुप्रीम कोर्ट के गवर्नर जनरल की कौंसिल तथा छोटे न्यायालयों के साथ चलने वाले झगड़े समाप्त हो गए। भारतीयों को अंग्रेजी कानून के विरूद्ध जो शिकायत थी, वह भी दूर हो गई। संक्षेप में, इस एक्ट ने रेग्युलेटिंग एक्ट के सर्वोच्च न्यायलय से सम्बन्धित दोषों को दूर कर दिया। इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय की तुलना में गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल की स्थिति को दृढ़ बना दिया।
डुण्डास का इण्डियन बिल (अप्रैल 1783) –
30 मई, 1782 ई. को डुण्डास के प्रस्ताव पर ब्रिटिश लोक सभा ने वारेन हेस्टिंग्स प्रशासन की निन्दा की और डायरेक्टरों से उसे वापस बुलाने के लिए कहा। परन्तु संचालक मण्डल ने लोक सभा के आदेश की अवहेलना करते हुए हेस्टिग्स को उसके पद पर बनाए रखा।
कीथ के अनुसार, इस तरह स्पष्ट कर दिया गया कि कम्पनी के डायरेक्टर न तो अपने कर्मचारियों का नियंत्रित कर सकते थे और राज्यों को या कम्पनी को, जबकि कलकत्ता के विरूद्ध होने वाली मद्रास प्रेसीडेन्सी की कार्यवाहियों ने यह सिद्ध कर दिया कि मुख्य प्रेसीडेन्सी सहायक को अपने नियंत्रण में नहीं रखा सकती थी।
कम्पनी के संविधान में सुधार करने के लिए अप्रैल, 1783 में मि. डुण्डास ने एक बिल प्रस्तुत किया, जिसमें निम्नलिखित सुझाव दिए गए थे-
- सम्राट को कम्पनी के प्रमुख अधिकारियों को वापस बुलाने का अधिकार दिया जाए।
- कुछ महत्त्वपूर्ण मामलों में गवर्नर जनरल को अपनी कौंसिल के निर्णयों को रद्द करने की शक्ति दी जाए।
- गवर्नर जनरल और उसकी कौंसिल का प्रादेशिक सरकारों पर नियंत्रण बढ़ा दिया जाए।
चूँकि डुण्डास विरोधी दल का सदस्य था, अतः उसके द्वारा प्रस्तावित वह बिल पास नहीं हो सका। फिर, भी उसका विधेयक इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ कि इसने भारत में संवैधानिक परिवर्तन की आवश्यकता पर जोर दिया और मंत्रिमण्डल को कार्यवाही करने की प्रेरणा दी।
फॉक्स का इण्डिया बिल (नवम्बर, 1783) –
डुण्डास विधेयक ने सरकार को कम्पनी के संविधान में सुधार करने के लिए प्रेरित किया। अतः फॉक्स तथा नौर्थ के संयुक्त मंत्रिमण्डल ने तुरन्त इस प्रश्न को अपने हाथ में लिया। फॉक्स ने भारत में कम्पनी सरकार को अवर्णातीत, शोचनीय, अराजकता तथा गड़बड़ बतलाया। उसने 18 नवम्बर, 1783 ई. को अपना प्रसिद्ध ईस्ट इण्डिया बिल पेश किया, जिसके प्रमुख सुझाव निम्नलिखित थे-
- कम्पनी की प्रादेशिक सरकार को उसके व्यापारिक हितों से पृथक् कर दिया गया।
- संचालक मण्डल तथा संचालक मण्डल के स्थान पर सात कमिश्नरों का एक मण्डल लन्दन में स्थापित किया जाए।
- इस मण्डल को भारतीय प्रदेशों तथा उसके राजस्व का प्रबन्ध करने का पूर्ण अधिकार हो। उसको कम्पनी के समस्त कर्मचारियों को नियुक्त तथा पदच्युत करने की शक्ति भी दी जाए।
- मण्डल के सदस्यों की नियुक्ति पहली बार संसद के द्वारा की जाए लेकिन बाद में रिक्त होने वाले स्थानों को भरने का अधिकार सम्राट को हो।
- इन सदस्यों का कार्यकाल चार वर्ष रखा गाय और इस अवधि के दौरान उन्हें संसद के दोनों सदनों में से किसी एक सदन के कहने पर इंग्लैण्ड का सम्राट उन्हें पदच्युत कर सके।
- इस बोर्ड की बैठकें लन्दन में बुलाए जाए और संसद को इस मण्डल के कार्यों का निरीक्षण करने का अधिकार हो, अर्थात् बोर्ड पर संसद का नियंत्रण स्थापित किया जाए।
- व्यापार को नियंत्रित करने के लिए व सहायक निदेशकों का एक और मण्डल बनाया जाए।
- इन सहायक निदेशकों की नियुक्ति भी प्रथम बार संसद द्वारा हो और इसके पश्चात् संचालक मण्डल को उन्हें निर्वाचित करने का अधिकार दिया जाए।
- इन सहायक निदेशकों को कार्यकाल पाँच वर्ष हो और इस सम्बन्ध में वे भी कमिश्नरों की तरह सुरक्षित हों।
- विधेयक में एकाधिकार, भेंट तथा रियासतों को ब्रिटिश सेना के मदद को समाप्त करने की व्यवस्था की गई।
फॉक्स विधेयक का संसद में तथा उसके बाहर जोरदार विरोध हुआ। पुन्निया के शब्दो में पार्लियामेन्ट के अन्दर और बाहर दोनों जगह इस विधेयक का मुखर, प्रबल और कटुतापूर्ण विरोध हुआ। इस विधेयक के दोषों के बारे में रॉबर्ट्सन ने लिखा है, भारत में कम्पनी सरकार को वस्तुतः सात व्यक्तियों के सुपुर्द कर दिया गया था। इससे कमिश्नरों तथा शासक दल को संरक्षण बाँटने का विस्तृत अधिकार मिल जाता। इससे संसद ने भ्रष्ट होने का भी भय था।
यह नये राजनीतिक दायित्व का निर्माण करता। कम्पनी का संविधान चार्टर द्वारा नियमित होता था, परन्तु फॉक्स विधेयक से कम्पनी के चार्टर की पवित्रता नष्ट हो जाती और उसके संविधान के नष्ट हो जाने से अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो जाती।
इंग्लैण्ड नरेश जार्ज तृतीय के व्यक्तिगत हस्तक्षेप के कारण यह विधेयक लार्ड सभा में अस्वीकृत हो गया। रॉबर्ट्सन के शब्दों में विधेयक एक बड़ी समस्या को व्यापक रूप से सुलझाने का निश्छल एवं कूटनीतिक प्रयास था। कीथ ने भी लिखा है, यह विधेयक सम्पूर्ण संविधान को सुधारने का एक प्रबल प्रयत्न था।
1784 ई. का पिट्स इंडिया एक्ट:
रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने के लिये इस एक्ट को पारित किया गया। इस एक्ट से संबंधित विधेयक ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री पिट द यंगर ने संसद में प्रस्तुत किया तथा 1784 में ब्रिटिश संसद ने इसे पारित कर दिया।
इस एक्ट के प्रमुख उपबंध निम्नानुसार थे-
इसने कंपनी के राजनैतिक और वाणिज्यिक कार्यों को पृथक पृथक कर दिया | इसने निदेशक मंडल को कंपनी के व्यापारिक मामलों की अनुमति तो दी लेकिन राजनैतिक मामलों के प्रबंधन के लिए नियंत्रण बोर्ड (बोर्ड ऑफ़ कण्ट्रोल )नाम से एक नए निकाय का गठन कर दिया |
इस प्रकार द्वैध शासन व्यवस्था का शुरुआत किया गया नियंत्रण बोर्ड को यह शक्ति थी की वह ब्रिटिश नियंत्रित भारत में सभी नागरिक , सैन्य सरकार व राजस्व गतिविधियों का अधीक्षण व नियंत्रण करे |
इस प्रकार यह अधिनियम दो कारणों से महत्वपूर्ण था –
- भारत में कंपनी के अधीन क्षेत्रों को पहली बार ब्रिटिश अधिपत्य का क्षेत्र कहा गया
- ब्रिटिश सरकार को भारत में कंपनी के कार्यों और इसके प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण प्रदान किया गया |
1793 का राजपत्र
कम्पनी के कार्यों एवं संगठन में सुधार के लिए यह चार्टर पारित किया गया। इस चार्टर की प्रमुख विशेषता यह थी कि इसमें पूर्व के अधिनियमों के सभी महत्वपूर्ण प्रावधानों को शामिल किया गया था। इस अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं निम्न थी-
- कम्पनी के व्यापारिक अधिकारों को अगले 20 वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया।
- विगत शासकों के व्यक्तिगत नियमों के स्थान पर ब्रिटिश भारत में लिखित विधि-विधानों द्वारा प्रशासन की आधारशिला रखी गयी।
- इन लिखित विधियों एवं नियमों की व्याख्या न्यायालय द्वारा किया जाना निर्धारित की गयी।
- गवर्नर जनरल एवं गवर्नरों की परिषदों की सदस्यता की योग्यता के लिए सदस्य को कम-से-कम 12 वर्षों तक भारत में रहने का अनुभव को आवश्यक कर दिया गया।
- नियंत्रक मंडल के सदस्यों का वेतन अब भारतीय कोष से दिया जाना तय हुआ।
1813 ई. का चार्टर अधिनियम:
अधिनियम की विशेषताएं
- कंपनी के अधिकार-पत्र को 20 सालों के लिए बढ़ा दिया गया
- कंपनी के भारत के साथ व्यापार करने के एकाधिकार को छीन लिया गया।लेकिन उसे चीन के साथ व्यापर और पूर्वी देशों के साथ चाय के व्यापार के संबंध में 20 सालों के लिए एकाधिकार प्राप्त रहा
- कुछ सीमाओं के अधीन सभी ब्रिटिश नागरिकों के लिए भारत के साथ व्यापार खोल दिया गया
- ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रचार की अनुमति दी गयी।
1833 ई. का चार्टर अधिनियम:
ब्रिटिश भारत के केन्द्रीयकरण की दिशा में यह अधिनियम निर्णायक कदम था | अधिनियम की विशेषताएं
- कंपनी के व्यापारिक अधिकार पूर्णतः समाप्त कर दिए गए
- अब कंपनी का कार्य ब्रिटिश सरकार की ओर से मात्र भारत का शासन करना रह गया
- बंगाल के गवर्नर जरनल को भारत का गवर्नर जनरल कहा जाने लगा
- जिसमे सभी नागरिक और सैन्य शक्तियां निहित थी |
- विधि के संहिताकरण के लिए आयोग के गठन का प्रावधान किया गया।इस अधिनियम द्वारा भारत में केन्द्रीकरण का प्रारंभ किया गया, जिसका सबसे प्रबल प्रमाण विधियों को संहिताबद्ध करने के लिए एक आयोग का गठन था। इस आयोग का प्रथम अध्यक्ष लॉर्ड मैकाले नियुक्त किया गया।
- भारत में दास-प्रथा को गैर-कानूनी घोषित किया गया। फलस्वरूप 1843 में भारत में दास-प्रथा की समाप्ति की घोषणा हुई।
इस प्रकार इस अधिनियम में एक ऐसी सरकार का निर्माण किया जिसका ब्रिटिश कब्जे वाले संपूर्ण भारतीय क्षेत्र पर पूर्ण नियंत्रण हो | लार्ड विलियम बैंटिक भारत के पहले गवर्नर जनरल थे | इसने मद्रास और बम्बई के गवर्नरों को विधायिका संबंधी शक्ति से वंचित कर दिया |
भारत के गवर्नर जनरल को पूरे ब्रिटिश भारत में विधायिका के असीमित अधिकार प्रदान कर दिए गए | इसके अन्तर्गत पहले बनाए गए कानूनों को नियामक कानून कहा गया और नए कानून के तहत बने कानूनों को एक्ट या अधिनियम कहा गया | भारतीय कानूनों का वर्गीकरण किया गया तथा इस कार्य के लिए विधि आयोग की नियुक्ति की व्यवस्था की गई।
1853 का राजपत्र
1853 का राजपत्र भारतीय शासन (ब्रिटिश कालीन) के इतिहास में अंतिम चार्टर एक्ट था। यह अधिनियम मुख्यतः भारतीयों की ओर से कम्पनी के शासन की समाप्ति की मांग तथा तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी की रिपोर्ट पर आधारित था।
इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्न थी-
- ब्रिटिश संसद को किसी भी समय कम्पनी के भारतीय शासन को समाप्त करने का अधिकार प्रदान किया गया।
- कार्यकारिणी परिषद के कानून सदस्य को परिषद का पूर्ण सदस्य का दर्जा प्रदान किया गया।
- बंगाल के लिए पृथक गवर्नर की नियुक्ति की व्यवस्था की गयी।
- गवर्नर जनरल को अपनी परिषद के उपाध्यक्ष की नियुक्ति का अधिकार दिया गया।
- विधायी कार्यों को प्रशासनिक कार्यों से पृथक करने की व्यवस्था की गयी।
- निदेशक मंडल में सदस्यों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गयी।
- कम्पनी के कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए प्रतियोगी परीक्षा की व्यवस्था की गयी।
- भारतीय विधि आयोग की रिपोर्ट पर विचार करने के लिए इंग्लैंड में विधि आयोग के गठन का प्रावधान किया गया।
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