उतर मुगलकालीन नये राजवंश
अवध ( Awadh )
उत्तर मुगलकालीन
अवध के स्वतंत्र राज्य के संस्थापक सआदत खां बुराहनुल्मुल्क था। 1722 ई. में मुग़ल बादशाह मुहमदशाह द्वारा फारस के शिया सआदत खां को अवध का सूबेदार बनाये जाने के बाद अवध सूबे को स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया गया।
सआदत खां ने सैय्यद बंधुओं को हटाने में सहयोग दिया। बादशाह ने सआदत खां को नादिरशाह के साथ वार्ता के लिए नियुक्त किया ताकि वह एक बड़ी रकम के भुगतान के एवज में अपने देश लौट जाये और शहर को तबाह करने से उसे रोका जा सके। लेकिन जब नादिरशाह को उस रकम का भुगतान नहीं किया गया तो उसका परिणाम दिल्ली की जनता को नरसंहार के रूप में भुगतना पड़ा। सआदत खां ने भी शर्म और अपमान के कारण आत्महत्या कर ली ।
सआदत खां के बाद अवध का अगला नवाब सफदरजंग बना जिसे मुग़ल साम्राज्य का वजीर भी नियुक्त किया गया था। उसका पुत्र शुजाउद्दौला उसका उत्तराधिकारी बना। अवध ने एक शक्तिशाली सेना का गठन किया जिसमे मुस्लिमों के साथ साथ हिन्दू ,नागा,सन्यासी भी शामिल थे।
अवध के शासक का प्राधिकार दिल्ली के पूर्व में स्थित रूहेलखंड क्षेत्र तक था। उत्तर –पश्चिमी सीमान्त की पर्वत श्रंखलाओं से बड़ी संख्या में अफ़ग़ान ,जिन्हें रोहिल्ला कहा जाता था ,वहाँ आकर बस गए थे।
अवध के नवाबों का विवरण निम्नलिखित है-
सआदत खां बुरहान-उल-मुल्क (1722-1739 ई ): इन्होने 1722 ई. में अवध की स्वायत्त राज्य के रूप में स्थापना की उसे मुग़ल बादशाह मुहम्मदशाह द्वारा गवर्नर नियुक्त किया गया था । उसने नादिरशाह के आक्रमण के समय साम्राज्य की गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अंततः इज्ज़त और सम्मान की खातिर आत्महत्या कर ली।
सफ़दर जंग अब्दुल मंसूर (1739-1754 ई ): वह सआदत खां का दामाद था जिसने 1748 ई. में अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध मानपुर के युद्ध में भाग लिया था।
शुजाउद्दौला (1754-1775 ई ): वह सफदरजंग का पुत्र और अहमदशाह अब्दाली का सहयोगी था। उसने अंग्रेजों के सहयोग से रोहिल्लों को हराकर 1755 ई. में रूहेलखंड को अपने साम्राज्य में मिला लिया था।
आसफ-उद-दौला:
वह लखनऊ की संस्कृति को प्रोत्साहित करने और इमामबाड़ा तथा रूमी दरवाजा जैसी ऐतिहासिक इमारतें बनवाने के लिए प्रसिद्ध है। उसने 1755 ई. में अंग्रेजों के साथ फ़ैजाबाद की संधि की।
वाजिद अली शाह : वह अवध का अंतिम नवाब था जिसे अख्तरप्रिया और जान-ए-आलम नाम से जाना जाता है। उसके समय में ही ब्रिटिश गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी द्वारा अवध को कुशासन के आधार पर ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया था। वह शास्त्रीय संगीत और नृत्य का शौक़ीन था जिसने कालका-बिंदा जैसे कलाकार भाइयों को अपने दरबार में शरण दी थी।
अवध अपनी उपजाऊ भूमि के कारण के हमेशा से आकर्षण का केंद्र रहा है ।अंग्रेजों ने भी अपने स्वार्थ के लिए इसकी उपजाऊ भूमि का दोहन किया। इसीलिए अंग्रेजों ने 1856 ई. में इसे अपने साम्राज्य में मिला लिया।
रुहेले एवं बंगश पठान
स्वतंत्र रूहेलखंड राज्य की स्थापना वीर दाउद तथा आलिमुहम्मद खांने ने की थी। रूहेल सरदार नजीबुद्दौला अफगान शासक अहमदशाह अब्दाली का विश्वासपात्र था। रूहेलखण्ड के कुछ दूर पूरब में मुहम्मद खां बंगश नामक एक वीर अफगान ने फरुखाबाद की जागीर को एक स्वतंत्र राज्य बना लिया।
मैसूर ( Mysore )
दक्षिण भारत में हैदराबाद के समीप हैदर अली नामक एक वीर योद्धा , जिसने अपना जीवन एक घुड़सवार के रूप में प्रारम्भ किया था, के आधीन जिस महत्वपूर्ण सत्ता का उदय हुआ, वह मैसूर था। 18वीं शताब्दी में मैसूर पर वाडियार वंश का शासन था। इस वंश के उस समय के अंतिम शासक चिक्का कृष्णराज द्वितीय के शासनकाल में शासन की वास्तविक शक्ति दो मंत्रियों देवराज व नंजराज के हाथों में थी।
हैदरअली के युद्ध कौशल से प्रभावित होकर नंजराज ने हैदर को डिंडीगुल के किले का फौजदार नियुक्त किया। फ्रांसीसियों की सहायता से हैदरअली ने डिंडीगुल में एक आधुनिक शास्त्रागार की स्थापना की। 1761 में हैदर ने नंजराज व देवराज को सत्ता से अलग कर दिया तथा स्वयं मैसूर का वास्तविक शासक बन बैठा।
हैदरअली ने मैसूर स्थित चामुंडेश्वरी देवी मंदिर के लिए दान दिया था, साथ ही अपने सिक्कों पर शिव, पार्वती, विष्णु इत्यादि की आकृति अंकित करवाई।
प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1767-69)
हैदरअली के शीघ्र उदय ने स्वभावतः अंग्रेजों, निजाम और मराठों की ईष्या को उभार डाला। इसके साथ-साथ हैदर की फ्रांसीसियों से बढ़ती निकटता तथा अंग्रेजों की आक्रामक नीति ने भी इस युद्ध के लिए आवश्यक मनोदशा के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हैदर ने कूटनीति से निजाम व मराठों को अपने पक्ष में करके कर्नाटक पर आक्रमण कर दिया। थोड़े उतार-चढ़ाव के साथ डेढ़ साल तक चले इस युद्ध में अंततः हैदरअली विजयी रहा। फलतः अंग्रेजों को हैदर की शर्तों पर एक अपमानजनक संधि करने को बाध्य होना पड़ा जिसे ‘मद्रास की संधि’ (1769) कहते है।
इसके अनुसार अंग्रेजों ने हैदर को किसी दुसरी शक्ति द्वारा आक्रांत होने पर सहायता का वचन दिया।
द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-84)
तत्कालीन परिस्थितियों के अंतर्गत हैदर पुनः (कर्नाटक के प्रथम युद्ध की भांति) निजाम व मराठों के साथ त्रिगुट बनाने में सफल रहा तथा कर्नल वेली के नेतृत्व वाली अंग्रेजी सेना को पराजित कर दिया।
लेकिन अंग्रेजों द्वारा निजाम व मराठों को अपने पक्ष में कर लेने के पश्चात् हैदर अंग्रेज जनरल आयरकूट के नेतृत्व वाली सेना से पोर्तोनोवा के युद्ध में पराजित हुआ एवं घायल हो गया जिससे कुछ दिनों पश्चात् उसकी मृत्यु हो गई। हैदर के पुत्र टीपू ने संघर्ष जारी रखा तथा ब्रिगेडीयर मैथ्यूज को पराजित कर सेना सहित बंदी बना लिया।
1784 में दोनों पक्षों के बीच मंगलौर की संधि से युद्ध समाप्त हुआ। भारतीय शक्तियों में हैदर अली पहला व्यक्ति था जिसने अंग्रेजों को पराजित किया।
टीपू सुल्तान
टीपू सुल्तान 1782 में मैसूर का शासक बना। टीपू को उर्दू, अरबी, फारसी, कन्नड़ इत्यादि भाषाएँ ज्ञात थी। टीपू एक प्रगतिशील विचारधारा वाला शासक था। इसने मापतौल के आधुनिक पैमाने अपनाएं, साथ ही आधुनिक कैलेंडर को लागू किया। टीपू ने सिक्का ढलाई की नई तकनीक अपनाई।
उसने अपने पिता हैदर अली की ही भांति अपने सिक्कों पर हिन्दू संवत् तथा हिन्दू देवी-देवताओं के चित्र अंकित करवाए। टीपू अपनी प्रशासनिक व्यवस्था में पाश्चात्य गुणों को शामिल करने वाला भारत का प्रथम शासक था। टीपू ने अरब, काबुल, मारीशस इत्यादि देशों से मैत्रीसम्बंध स्थापित करने हेतु अपने दूतमंडल वहाँ भेजे।
टीपू ने व्यापार की संवृद्धि के लिए अपने गुमास्तों की नियुक्ति कई देशों में की। इसने नौसेना के सशक्तिकरण हेतु मोलिदाबाद व मंगलौर में पोत निर्माण केंद्र स्थापित किये।
तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-92)
मद्रास व मंगलौर की संधियाँ युद्ध का तात्कालिक किन्तु अस्थाई समाधान मात्र थीं। दोनों ही पक्षों की महत्वकांक्षाएँ ज्यों की त्यों बनी हुई थी।1790 में कार्नवालिस ने टीपू पर अंग्रेजों के खिलाफ फ्रांसीसियों से गुप्त समझौता करने तथा ब्रिटिश संरक्षित त्रावणकोर राज्य पर हमला करने का आरोप लगाकर युद्ध छेड़ दिया।
टीपू अंग्रेज, मराठों व निजाम की संयुक्तसेना से पराजित हो गया तथा अंग्रेजों से संधि करने को बाध्य हुआ।श्रीरंगपट्टनम की इस संधि (1792) के अनुसार टीपू अपना आधा राज्य तथा तीन करोड़ रूपये अंग्रेजों को देने को बाध्य हुआ।
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799)
इस युद्ध का कारण था लार्ड वेलेजली द्वारा भेजे सहायक संधि के प्रस्ताव का टीपू द्वारा अस्वीकार कर दिया जाना। इस युद्ध में अंग्रेजों की सेना का नेतृत्व जनरल हैरिस,कर्नल वेलेजली तथा स्टुअर्ट ने किया। टीपू श्रीरंगपट्टनम दुर्ग के द्वार पर लड़ता मारा गया।
इस विजय के पश्चात् अंग्रेजों ने मैसूर राज्य का एक बड़ा भाग अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया तथा शेष मैसूर राज्य को वाडियार वंश के एक दो वर्षीय बालक कृष्णराज को राजा बनाकर अपने संरक्षण में ले लिया तथा मैसूर पर सहायक संधि आरोपित कर दी।
पंजाब / सिक्ख ( Punjab / Sikh )
सिक्ख धर्म की स्थापना सोलहवी शताब्दी के आरम्भ में गुरुनानक द्वारा की गई थी। गुरु नानक का जन्म 15 अप्रैल, 1469 को पश्चिमी पंजाब के एक गाँव तलवंडी में हुआ था। इन्होने कर्मकांड एवं अवतारवाद का विरोध किया तथा धर्मप्रचार के लिए सांगतो की स्थापना की।
गुरुअंगद (लेहना)- इन्हें गुरुनानक ने अपना उत्तराधिकारी बनाया था। इन्होने नानक द्वारा प्रारम्भ लंगर व्यवस्था को स्थायी बना दिया। इन्होने गुरुमुखी लिपि की शुरुआत की।
गुरुअमरदास- इन्होने सिक्ख सम्प्रदाय को एक संगठित रूप दिया। बादशाह अकबर इनमे मिलने स्वयं गोइंदवाल गया तथा इनकी पुत्री बीबीभानी के नाम कुछ जमीन दी। इन्होने हिन्दुओ और सिक्खों के विवाह को पृथक करने के लिए ‘लवन पद्धति’ शुरू की।
गुरुरामदास- अकबर ने इन्हें 500बीघा जमीन दी जिस पर इन्होने अमृतसर नगर की स्थापना की। इन्होंने गुरु के पद को पैतृक बना दिया।
गुरु अर्जुन देव-
1604 में इन्होने आदिग्रंथ की रचना की। इन्होने सूफीसंत मियाँमीर द्वारा अमृतसर में हरविंदर साहब की नींव डलवायी। कालांतर में महाराज रणजीत सिंह द्वारा स्वर्ण जड़वाने के बाद अंग्रेजो द्वारा इसे स्वर्ण मंदिर नाम दिया गया। इन्होने अनिवार्य अध्यात्मिक कर (सिक्खों से) लेना प्रारम्भ किया। शहजादा खुसरो (जहाँगीर के खिलाफ विद्रोह करने वाले) का समर्थन करने के कारण जहाँगीर ने इनको मृत्युदंड दे दिया।
गुरुहरगोविन्द- इन्होने सिक्खों में सैन्य भावना पैदा की तथा उन्हें मांस खाने की अनुमति दी। इन्होने अमृतसर की किलेबंदी करवाई तथा उसमे अकाल तख़्त की स्थापना की। बाज प्रकरण पर इनका शाहजहाँ से संघर्ष हुआ।
गुरुहरराय- इन्होने सामूगढ़ के युद्ध में पराजित हुए दाराशिकोह की मदद की थी।
गुरुहरकिशन- इन्होने अपना जीवन दिल्ली में महामारी से पीड़ित लोगों की सेवा में बिताया। इनकी मृत्यु चेचक से हुई।
गुरुतेग बहादुर- इन्होने औरंगजेब की कट्टर धार्मिक नीतियों का विरोध किया। औरंगजेब ने इन्हें दिल्ली बुलाकर इस्लाम धर्म स्वीकार करने को कहा तथा इनकार करने पर इनकी हत्या करवा दी।
गुरुगोविन्द सिंह-
ये सिक्खों के दसवें और अन्तिम गुरु थे। इनका जन्म पटना में हुआ था। इन्होने आनंदपुर की स्थापना कर वही अपनी गद्दी स्थापित की। इन्होने पाहुल प्रथा शुरू की। इस पंथ में दीक्षित व्यक्तियों को खालसा कहा जाता था। इन्होनें प्रत्येक सिक्खों को पंचकार धारण करने का आदेश दिया। चंदीदिवर एवं कृष्ण अवतार नामक पुस्तकों की रचना गुरु गोविन्द सिंह ने की। इनकी आत्मकथा का नाम विचित्रनाटक है। आनंदगढ़, लौहगढ़, फतेहपुर एवं केशगढ़ के किलों के निर्माण का श्रेय इन्ही को है।
गुरु गोविन्द सिंह के समय हुए कई युद्धों के दौरान आदि ग्रन्थ गायब हो गया अतः इन्होने पुनः उसका संकलन करवाया फलतः आदि ग्रन्थ को ‘दशम बादशाह का ग्रन्थ’ भी कहा जाता है। गुरु गोविंद सिंह ने अपनी मृत्यु से पहले गद्दी को समाप्त कर दिया। इनकी समाधि के कारण नादेड़(महाराष्ट्र) गुरुद्वारा पवित्र माना जाता है।
बंदा बहादुर- गुरु गोविन्द सिंह के पश्चात् सिक्खों का नेतृत्व बंद बहादुर ने संभाला। यह जम्मू का रहने वाला था। इसके बचपन का नाम लक्ष्मण था। इसे सिक्खों का पहला राजनीतिक नेता माना जाता था। 1716 में फर्रुखसियर के आदेश पर इसकी हत्या कर दी गई। सिक्खों ने 1716 में देग, तेग एवं फतह लेख युक्त चाँदी के सिक्के जारी किये, ये पंजाब में सिक्ख संप्रभुता की प्रथम उद्घोषणा मानी जाती है।
रणजीत सिंह-
आधुनिक पंजाब के निर्माण का श्रेय रणजीत सिंह को जाता है। ये सुकरचकिया मिसल के प्रमुख महासिंह के पुत्र थे अफगानिस्तान के शासक जमानशाह ने रणजीत सिंह राजा की पदवी दी तथा इन्हें लाहौर की सुबेदारी भी सौपी। 1809 में रणजीत सिंह व अंग्रेजों के बीच अमृतसर की संधि हुई जिसके द्वारा सतलज नदी दोनों राज्यों की सीमा मान ली गई।
1809 में रणजीत सिंह अपने भाई द्वारा अपदस्थ किये गए शाहशुजा को पुनः सत्तासीन करने में बहुत मदद की थी। शाहशुजा ने ही विश्व प्रसिद्द ‘कोहिनूर हीरा’ भेट किया था जिसे पहले नादिरशाह लूट कर ले गया था। रणजीत सिंह सदैव खालसा के नाम पर कार्य करते थे तथा अपनी सरकार को ‘सरकार-ए-खालसा’ जी कहते थे ।
इन्होंने गुरु नानक एवं गुरुगोविन्द सिंह के नाम पर सिक्के चलवाये। रणजीत सिंह भारतीय सेनाओं के दुर्बल पक्ष को समझते हुए कम्पनी के नमूने पर विदेशी कमाण्डरों की सहायता से एक कुशल, अनुशासित व सुसंगठित सेना का गठन किया। इसे ‘फौजे-ए-आईन’ कहा जाता है।
रणजीत सिंह ने लाहौर में एक तोप खाना खोला। रणजीत सिंह का उतराधिकारी खड्ग सिंह हुआ। इसके पश्चात् क्रमशः नौनिहाल सिंह एवं शेर सिंह ने शासन किया। शेर सिंह की हत्या हो जाने पर 1843 में महाराजा रणजीत सिंह का अल्पवयस्क पुत्र दिलीपसिंह महारानी जिंदल कौर के संरक्षण में सिंहासन पर बैठा।
1845 में अंग्रेजों ने पंजाब पर आक्रमण कर दिया। फलतः प्रथम आंग्ल सिक्ख युद्ध का प्रारम्भ हुआ। युद्ध में सिक्खों की पराजय हुई तथा इन्हें लाहौर की संधि व भेरोंवाल की संधि (1846) के लिए बाध्य होना पड़ा।
संधि के बदले अंग्रेजों ने दिलीप सिंह को महाराज, रानी जिंदल को संरक्षिका तथा युद्ध में अंग्रेजों की मदद करने वाले सिक्ख सेना के सेनापति लाल सिंह को वजीर के रूप में मान्यता प्रदान की। साथ ही कश्मीर गुलाब सिंह को बेच दिया।
पंजाब को ब्रिटिश प्रभाव से मुक्त करने तथा खालसा शक्ति को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए 1848 में पुनः विद्रोह हो गया इसे ‘द्वितीय आंग्लसिक्ख युद्ध’ के नाम से जाना जाता है। जिसमे 1849 के गुजरात के युद्ध में चार्ल्स नेपियर के नेतृत्व वाली अंग्रेजी सेना ने सिक्ख सेना को बुरी तरह पराजित किया। गुजरात का युद्ध ‘तोपों के युद्ध’ के नाम से जाना जाता है।
29 मार्च, 1849 को सिक्ख राज्य को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया। अंग्रेजों द्वारा दिलीप सिंह को शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड भेज दिया गया, जहाँ बाद में उन्होंने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया। दिलीप सिंह का निधन 23 अक्टूबर,1893 को पेरिस में हुआ।
हैदराबाद ( Hyderabad )
हैदराबाद के स्वतंत्र आसफजाही वंश की स्थापना चिनकिलिच खां निजामुलमुल्क ने 1724 में की थी। इसे मुग़ल बादशाह मुहम्मदशाह ने दक्कन का सूबेदार नियुक्त किया था।
1724 में स्वतंत्र हैदराबाद राज्य की स्थापना के पश्चात मुग़ल बादशाह मुहम्मदशाह ने इसे आसफजाह की उपाधि प्रदान की। शकुरखेडा के युद्ध में चिनकिलिच खां ने मुग़ल सूबेदार मुबरिजखां को पराजित किया।
चिनकिलिच खां की मृत्यु के बाद हैदराबाद का पतन प्रारंभ को गया और अंततः हैदराबाद भारत का पहला ऐसा राज्य बना जिसने वेलेजली की सहायता संधि के अनतर्गत एक आश्रित सेना रखना स्वीकार किया। यहॉं सन् 1724 से सन् 1948 तक ऩिजाम शाही या आसफजाही का शासन था।
निजाम शासकों के नाम इस प्रकार हैं-
- निजामुलमुल्क चिनकिलिच खान(प्रथम निजाम) (1724- 48)
- नासिर जंग(1748- 50)
- मुजफ्फर जंग(1750-51)
- सलावत जंग (1751 – 62)
- निजाम अली(द्वितीय निजाम) (1760 – 1803)
- सिकन्दर जहां (तृतीय निजाम) (1803 – 29)
- नासीर – उद-दौला (चतुर्थ निजाम) (1829-1857)
- अफज-उद-दौला(पांचवा निजाम) ( 1857-69)
- महबत अली खान(छठवां निजाम) ( 1869- 1911)
- उस्मान अली खान (सातवां निजाम) (1911-1948)
इस ऩिजाम आसफिया खानदान को दक्कन पर दो सौ साल तक हुकूमत करने का अवसर मिला। मीर उस्मान अली खॉं (सातवां ऩिजाम) ने सन् 1911 से 1948 तक आसफजाही वंश के अंतिम शासक के रूप में शासन चलाया।
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